अम्बेडकरनगर के ईंट-भट्ठों में भयंकर शोषण-उत्पीड़न के शिकार मज़दूर
मित्रसेन
अम्बेडकरनगर ज़िले के थानाक्षेत्र राजेसुल्तानपुर के आस पास सैकड़ों की संख्या में तथा ज़िले में हज़ारों की संख्या में ईंट-भट्ठे के उद्योग हैं। इन ईंट-भट्ठों पर काम करने वाले बहुत से मज़दूर बाहर से छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार तथा उत्तर प्रदेश के अन्य जि़लों रायबरेली, पीलीभीत से अपने पूरे परिवार सहित काम के लिए आते हैं। आसपास के गाँवों के भी बहुत से लोग इन ईंट-भट्ठों पर काम करते हैं।
इन ईंट-भट्ठों पर कई तरीक़े के काम होते है। अलग-अलग कामों के लिए अलग-अलग मज़दूर होते हैं। इन ईंट-भट्ठों पर कोई भी नियम-क़ानून लागू नहीं होता है। हर नियम-क़ानून को ताक पर रखकर इन मज़दूरों से ज़्यादा-से-ज़्यादा काम करवाया जाता है। मज़दूरों का शोषण किया जाता है। ईंट-भट्ठों पर धूल-मिट्टी-गर्दा का ज़्यादा काम होता है लेकिन मुँह पर लगाने के लिए मास्क आदि कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिया जाता। जिससे धूल और मिट्टी सीधे मज़दूरों के मुँह में जाती है। बहुत सारे मज़दूर टीवी और दमा रोग के शिकार हो जाते हैं और दवा इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं। चिमनी के पास ईंट पकाने के लिए कोयला डाला जाता है और वहाँ तापमान बहुत ज़्यादा होता है। लेकिन सुरक्षा के नाम पर वहाँ भी कुछ नहीं होता। न तो हाथ में पहनने के दस्ताने दिये जाते हैं और न ही पैर में पहनने के लिए भी कुछ दिया जाता है। आये दिन दुर्घटनाओं की वजह से मज़दूर जलकर मर जाते हैं। जिनकी खोज-ख़बर लेने वाला कोई भी नहीं होता है। अगर कोई मज़दूर ईंट-भट्ठे पर काम करते समय घायल हो जाता है तो मालिक केवल उनको घर तक पहुँचा देता है। उनको दवा-इलाज के लिए पैसा तक नहीं मिलता है। चाहे वह मार्च, अप्रैल, मई, जून की चिलचिलाती धूप और भयंकर गर्मी हो या दिसम्बर, जनवरी, फ़रवरी महीने की कड़कड़ाती ठण्ड हो; मज़दूर अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ काम करते रहते हैं। 6 से 20 वर्ष तक के तमाम बच्चे-बच्चियाँ भी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर यहाँ पर काम करते हैं। महिलाएँ, वृद्ध, बच्चे नौजवान तमाम लोग इन जगहों पर अधिक संख्या में काम करते हैं।
नियम तो यह है कि जहाँ पर धूल-मिट्टी का ज़्यादा काम होता है, वहाँ पर काम के बाद गुड़ और दूध का इन्तज़ाम किया जाना चाहिए। लेकिन गुड़ और दूध की तो बात छोड़िए पीने के लिए शुद्ध पानी तक नहीं मिलता है। मज़दूर कह रहे थे कि हम लोगों को काफ़ी कष्ट झेलना पड़ता है, लेकिन कोई यूनियन भी नहीं है जो हम लोगों की समस्याओं को उठा सके। सर्दियों के दिनों में बहुत सारे बच्चों के पास पहनने के लिए कपड़े तक नहीं होते हैं। गर्मी के दोपहर में भी जब भयंकर गर्मी पड़ती है तब भी लोग एस्बेस्टस (करकट) की छतों वाले घर में रहते हैं। नौजवान भारत सभा की अम्बेडकर नगर टीम ने ईंट-भट्ठों पर बच्चों को पढ़ाने की बात की तो लोगों ने कहा कि काम के समय बिल्कुल भी समय नहीं मिल पाता है, इसलिए हम अभी बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोच भी नहीं सकते, अबकी बार नहीं अगर अगली बार यहाँ आयेंगे तो बच्चे ज़रूर पढ़ेंगे।
बड़ी-बड़ी इमारतें, मन्दिर-मस्जिद आदि जिन ईंटों से मिलकर बनती हैं, उनको बनाने वाले मज़दूर बहुत ही नारकीय परिस्थितियों में अपनी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। ईंट-भट्ठों पर काम करने वालों के लिए कोई भी नियम-क़ानून नहीं है ना ही काम के घण्टे निर्धारित हैं, ना ही कोई श्रम क़ानून लागू होता है। बेहद कम मज़दूरी पर ज़्यादा से ज़्यादा काम करवाया जाता है। रहने की व्यवस्था इस तरह से होती है कि इंसान तो क्या जानवर भी उसमें ना रह सके।
ईंट-भट्ठों पर काम करने वाले मज़दूरों की मज़दूरी और काम की स्थिति के बारे में –
1. कच्ची ईंट पाथने या बनाने वाले मज़दूर, जिनको पथेरा कहा जाता है, इनको 1,000 कच्ची ईंट पाथने पर 600 मिलता है। जो मज़दूर बाहर से पथाई के लिए आते हैं उनको 1,000 पर 525 या 550 रुपये मिलता है। जब उनसे पूछा गया कि ये अन्तर क्यों है तो उन्होंने बताया कि कई बार मालिक काम करवाने के बाद पैसा ही नहीं देता इसलिए हम ठेकेदार के माध्यम से आते हैं। हम लोग दूर से काम करने के लिए आते हैं अगर मालिक पैसा नहीं दिया तो हम लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए मजबूरन हमें कम मज़दूरी पर काम करना पड़ता है। ईंट पाथने के लिए सर्वप्रथम मिट्टी को भिगोकर उसको फावड़े में मिलाकरके मिट्टी तैयार की जाती है। इसके बाद ईंट बनायी जाती है। इस काम में छोटे-छोटे बच्चों समेत पूरा परिवार हाड़-तोड़ मेहनत करता है। सुबह 3:00 या 4:00 बजे से लेकर दोपहर तक उसके बाद शाम को और देर रात तक काम करते रहते हैं। औसतन एक व्यक्ति लगभग 700 या 800 ईंट ही बना पाता है। काम करने की वजह से छोटे बच्चे-बच्चियाँ स्कूल तक नहीं जा पाते हैं। 12 से 15 घण्टे कड़ी मेहनत से काम करने के बाद मुश्किल से 250 या 300 रुपये का एक दिन में काम कर पाते हैं।
2. कच्ची ईंट बनाने के बाद उसको चिमनी में पकाने के लिए मज़दूर इसको ढोकर करके चिमनी तक ले जाते हैं। उनको 1,000 ईंट ढोने पर 180, 190 या 240 रुपये तक मिलते हैं। सुबह 3 या 4 बजे से दोपहर 2 या 3 बजे तक काम करना पड़ता है। उनको भी एक वर्ष में 6 महीने काम मिलता है।
3. चिमनी में ईंट जमाने वाले मज़दूरों को बेलदार कहा जाता है। इन 3 या 4 लोगों का काम कच्ची ईटों को चिमनी के अन्दर व्यवस्थित करना होता है। इनको भी 10 या 11 घण्टे काम करना होता है, इसके बदले में 11,000 या 12,000 रुपये महीने मिलता है। इनको काम के दौरान काफ़ी धूल का सामना करना पड़ता है। लेकिन सुरक्षा के नाम पर दस्ताने-चश्मा-मास्क आदि कुछ भी नहीं दिया जाता है।
4. कोयला फोड़ने वाले मज़दूरों को 1 घण्टे कोयला फोड़ने पर 100 रुपये दिया जाता है।
5. कोयला ढोने वाले मज़दूर कोयले को चिमनी तक पहुँचाने का काम करते हैं। इनको 10,000 या 11,000 रुपये महीने का दिया जाता है।
6. ईंट को पकाने के लिए चिमनी में कोयला डालने वाले मज़दूर, जिनको झुकवा बोला जाता है, यहाँ 4 या 5 मज़दूर दो या तीन शिफ़्ट में काम करते हैं, क्योंकि कोयला डालने का काम लगातार होता है। सुरक्षा के नाम पर इन्हें भी कुछ मुहैया नहीं करवाया जाता है। गर्मी में दोपहर में भी चिमनी के ऊपर रहकर उनको काम करना पड़ता है। जहाँ नीचे से काफ़ी गर्मी होती है। कई बार रात में नींद की वजह से मज़दूर चिमनी में गिर जाते हैं जिससे मज़दूर घायल होते और मरते रहते हैं। इनका वेतन भी हर महीने 12,000 से 13,000 तक होता है।
7. जब ईंट-भट्ठे में ईंट पककर तैयार हो जाती है तो उसको बाहर निकालकर चट्टा लगाया जाता है। चिमनी से ईंट बाहर निकालने के लिए 1,000 ईंट पर 130 से लेकर 150 रुपये तक दिये जाते हैं। इसमें भी इतने भयंकर तरीक़े से काम करवाया जाता है कि हमेशा जान का ख़तरा रहता है। इनको भी सुरक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं दिया जाता है।
8. राबिश डालने और उसको निकालने वाले मज़दूरों को दिहाड़ी 300 या 350 रुपये तक प्रतिदिन के हिसाब से दिया जाता है।
9. ट्रक से कोयला उतारने वाले मज़दूर को एक ट्रक उतारने का 1,000 या 700 से 800 रुपये तक दिया जाता है।
10. ईंट जब पककर तैयार हो जाती है, तब उसको घर बनाने या अन्य कामों के लिए ट्राली द्वारा पहुँचाने के लिए ट्राली पर लादने और उतारने के लिए 150 रुपये ही मिलता है, चाहे उस काम को एक व्यक्ति करे या कई लोग मिलकर, लेकिन उसके बदले उतना ही मिलता है।
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