अब विकल्प है!
मज़दूरों-मेहनतकशों ने बनायी अपनी क्रान्तिकारी पार्टी!
लोकसभा चुनावों में सात सीटों पर चुनाव लड़ेंगे ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI)’ के मज़दूरपक्षीय उम्मीदवार!
मज़दूर पार्टी को वोट दो! पूँजीवाद को चोट दो!
मज़दूर पार्टी को वोट दो! ठेका प्रथा को चोट दो!
सम्पादक मण्डल
नवम्बर 2018 में देश के विभिन्न हिस्सों के मज़दूरों, मेहनतकशों, ग़रीब किसानों और उनके बीच काम करने वाले राजनीतिक संगठनकर्ताओं ने ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ यानी Revolutionary Workers Party of India (RWPI) का गठन किया है। इस पार्टी ने वैसे तो दिसम्बर 2018 में अहमदनगर, महाराष्ट्र में नगरपालिका चुनावों में शिरकत के साथ पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर पक्ष के हस्तक्षेप की शुरुआत कर दी थी, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पूँजीवादी संसद के चुनावों में देश के मज़दूरों–मेहनतकशों के वर्ग हितों की नुमाइन्दगी की शुरुआत इस लोकसभा चुनाव के साथ शुरू की जायेगी।
‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ का अन्तिम लक्ष्य है क्रान्तिकारी रास्ते से मज़दूर सत्ता की स्थापना और समाजवादी व्यवस्था का निर्माण। यानी एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ हो और फ़ैसला लेने की ताक़त वास्तव में उनके हाथों में हो। लेकिन इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए यह ज़रूरी है कि आज ही से देश के मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष का निर्माण किया जाये और देश की हरेक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया और राजनीतिक क्षेत्र में उसका क्रान्तिकारी हस्तक्षेप हो। पूँजीवादी चुनाव देश में एक बेहद महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया और राजनीतिक क्षेत्र है। इसमें क्रान्तिकारी और स्वतन्त्र मज़दूर पक्ष की दख़ल होना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं होगा तो मज़दूर वर्ग की अपनी स्वतन्त्र आवाज़ और उसके अपने अलग वर्ग हित इस राजनीतिक प्रक्रिया से अनुपस्थित होंगे, जिसके नतीजे भयंकर होंगे। पहला नतीजा यह होगा कि मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी इस या उस पूँजीवादी या टटपुँजिया पार्टी का पिछलग्गू बनेगी; दूसरा यह कि वह अपने आपको अलग और स्वतन्त्र तौर पर राजनीतिक रूप से संगठित और गोलबन्द नहीं कर पायेगी; तीसरा यह कि वह कभी अपनी शक्तियों का सही आकलन नहीं कर सकेगी और बिखराव का शिकार रहेगी; चौथा यह कि वह मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के जनवाद को लेकर विभ्रमों का शिकार रहेगी और यह कभी नहीं समझ सकेगी कि एक ऐसी व्यवस्था में जिसमें उत्पादन के साधनों का एकाधिकार 10 फ़ीसदी पूँजीपति वर्ग और भूस्वामी वर्ग के हाथों में केन्द्रित है, वहाँ जनवाद भी मूलत: और मुख्यत: उन्हीं वर्गों के लिए होगा; और आखि़री नुक़सान, पूँजीवादी चुनाव प्रक्रिया और संसद में स्वतन्त्र क्रान्तिकारी मज़दूर वर्गीय हस्तक्षेप के बिना सभी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों के छल-छद्म व्यापक मेहनतकश जनता के समक्ष उजागर नहीं किये जा सकते। आज तक ऐसा ही होता आया है। इसलिए यह एक बड़ी ज़रूरत थी कि पूँजीवादी चुनावों की पूरी प्रक्रिया में मज़दूर व आम मेहनतकश वर्गों के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की ओर से एक संगठित हस्तक्षेप किया जाये। ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ (RWPI) इसी बेहद महत्वपूर्ण ज़रूरत को पूरा करने के लिए अस्तित्व में आयी है।
‘मज़दूर बिगुल’ के पाठक इस बात से वाकि़फ़ होंगे कि हमारा शुरू से यह मानना रहा है कि पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग को रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) हस्तक्षेप करना चाहिए। फ़रवरी 2017 के ‘मज़दूर बिगुल’ के सम्पादकीय में भी हमने मज़दूर वर्ग की ओर से पूँजीवादी चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी की ज़रूरत को रेखांकित किया था। ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ के गठन के साथ हमें इस बात की फिर से ज़रूरत महसूस हो रही है कि पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग के संगठित रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) हस्तक्षेप के महत्व को रेखांकित किया जाये। इसलिए हम इस बार आपके समक्ष पूँजीवादी चुनावों में कम्युनिस्टों की ओर से क्रान्तिकारी रणकौशलात्मक हस्तक्षेप और उनके क्रान्तिकारी संसदवाद पर विस्तार से बात रखेंगे और इस बाबत हमारे महान शिक्षकों यानी कि मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के विचारों को आपसे साझा करेंगे और आज के दौर में उनके विचारों की एक नये सन्दर्भ और नये अर्थों में प्रासंगिकता की बात करेंगे। लेकिन सबसे पहले इस बारे में बात करना ज़रूरी है कि ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI)’ क्या है? उसके लक्ष्य क्या हैं? उसका स्वरूप क्या है? RWPI के ज़िम्मेदार प्रवक्ताओं ने ‘मज़दूर बिगुल’ से इस बारे में अपनी राय साझा की है और उन्हें अपना चुनाव घोषणापत्र दिया है, जिसके आधार में हम RWPI के लक्ष्य, स्वरूप, वित्तीय आधार, वर्ग चरित्र आदि की चर्चा करेंगे।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) क्या है?
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) एक क्रान्तिकारी पार्टी है, जो कि स्वयं मज़दूरों, मेहनतकशों और उनके ऐसे राजनीतिक संगठनकर्ताओं द्वारा बनायी गयी है, जो मज़दूर आन्दोलनों की गरमी में परिपक्व हुए हैं, शिक्षित हुए हैं और मज़दूरों-मेहनतकशों को नेतृत्व दे रहे हैं। इस पार्टी का गठन नवम्बर 2018 में देश के कई राज्यों से एकत्रित हुए मज़दूरों, मेहनतकशों और उनके बीच काम कर रहे संगठनकर्ताओं ने किया। इसके बाद, दिसम्बर 2018 में इस नयी पार्टी ने अहमदनगर, महाराष्ट्र में निगम पार्षद के चुनाव में एक सीट पर चुनाव लड़ा और पूँजीवादी दलों द्वारा धनबल, शराब और बाहुबल के नग्न उपयोग के बावजूद क़रीब हज़ार वोटों के साथ चौथे स्थान पर आयी। लेकिन चूँकि समाजवादी कार्यक्रम को जनता के बीच परिचित और लोकप्रिय बनाने के मामले में सबसे अहम चुनाव होते हैं राष्ट्रीय विधायिका यानी कि संसद के चुनाव, इसलिए इस बार यह पार्टी लोकसभा चुनावों में चार राज्यों की सात सीटों (दिल्ली की दो सीटें, महाराष्ट्र की दो सीटें, हरियाणा की दो सीटें और उत्तर प्रदेश की एक सीट) पर अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है। इसके अलावा, मज़दूरों और मेहनतकशों के बीच पंजाब, बिहार, उत्तराखण्ड और केरल में पार्टी के सदस्यों और वॉलण्टियरों की तैयारी का काम शुरू कर दिया गया है, जिससे कि आने वाले चुनावों में और अधिक सीटों पर मज़दूर वर्ग की ओर से क्रान्तिकारी राजनीतिक हस्तक्षेप किया जा सके।
‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ मज़दूर वर्ग की एक हिरावल पार्टी है जो कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद के क्रान्तिकारी उसूलों में यक़ीन करती है। यह पार्टी मानती है कि सर्वहारा वर्ग का ऐतिहासिक लक्ष्य है कि वह क्रान्तिकारी रास्ते से बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करके सर्वहारा वर्ग की सत्ता क़ायम करे और समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करे। RWPI का मानना है कि मज़दूर सत्ता और समाजवादी व्यवस्था अन्तत: इसी रास्ते से बन सकते हैं। लेकिन समाजवादी क्रान्ति से पहले भी एक सही क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी को पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पक्ष की हैसियत से हस्तक्षेप करना चाहिए और यदि वह संसद में अपने प्रतिनिधि भेजने में सफल होती है, तो उसे पूँजीवादी संसद के भीतर से पूँजीवादी संसदीय व्यवस्था की असलियत को आम मेहनतकश जनता के समक्ष उजागर करना चाहिए, ऐसे पूँजीवादी जनवादी अधिकारों को आम मेहनतकश जनता तक पहुँचाने के लिए हरसम्भव प्रयास करना चाहिए जो कि महज़ काग़ज़ पर उन्हें मिले हुए हैं, वास्तव में हासिल नहीं हैं, और आम मेहनतकश जनता के जीवन में सुधार के लिए जो भी सीमित कार्य किये जा सकते हैं, वे करने चाहिए।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का मानना है कि आम मेहनतकश जनता के एक अच्छे–ख़ासे हिस्से को आज भी यह लगता है कि पूँजीवादी संसदीय लोकतन्त्र उसे कुछ दे सकता है और इसीलिए वह कभी इस तो कभी उस पूँजीवादी पार्टी को चुनावों में वोट देती है। अगर ऐसा नहीं होता तो वह वोट ही नहीं देती। क़रीब 70 फ़ीसदी जनता द्वारा मतदान किये जाने की व्याख्या वोटों को ख़रीदने आदि से नहीं की जा सकती है। निश्चित तौर पर, आम मेहनतकश जनता के भी एक अच्छे–ख़ासे हिस्से के पूँजीवादी जनवादी विभ्रम बने हुए हैं, यानी उन्हें यह लगता है कि पूँजीवादी संसद अभी भी कम–से–कम आंशिक रूप से राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक है। यह विभ्रम महज़ राजनीतिक प्रचार के ज़रिये नहीं दूर किया जा सकता है, बल्कि पूँजीवादी चुनावों में हस्तक्षेप करके व्यावहारिक उदाहरण के ज़रिये ही दूर किया जा सकता है।
आम मेहनतकश जनता में भी तीन संस्तर होते हैं : पहला, जो कि राजनीतिक रूप से बेहद उन्नत है; दूसरा, जो कि राजनीतिक रूप से मध्यवर्ती स्थिति रखता है; और तीसरा, जो कि राजनीतिक रूप से पिछड़ी चेतना का शिकार है। केवल बेहद उन्नत राजनीतिक तत्व ही महज़ क्रान्तिकारी पार्टी के राजनीतिक प्रचार से पूँजीवादी संसदीय जनवाद की सीमाओं को समझ पाते हैं और यह समझ लेते हैं कि इस प्रकार का पूँजीवादी जनवाद कभी मज़दूर वर्ग को वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं दे सकता क्योंकि ऐसे पूँजीवादी जनवाद की चुनावी व्यवस्था में अन्तत: पूँजीपति वर्ग का धनबल ही निर्णायक शक्ति की भूमिका निभाता है। आज ही देख लें : एक लोकसभा उम्मीदवार को 25 हज़ार रुपये की जमानत राशि जमा करनी होती है, एक निर्वाचन क्षेत्र में औसतन 12 लाख से भी अधिक वोटर होते हैं, जिनमें चुनाव प्रचार ही आयोजित करने के लिए करोड़ों रुपये ख़र्च किये जाते हैं। ऐसे में क्या कोई मज़दूर, कोई ग़रीब किसान, कोई आम मेहनतकश व्यक्ति पूँजीवादी चुनावों में खड़ा हो सकता है? नहीं! वास्तव में, ग़रीब आबादी को केवल चुनने का अधिकार होता है, चुने जाने का नहीं। ऐसे में, पूँजीवादी संसदीय जनवाद की चुनावी व्यवस्था में मज़दूर वर्ग को केवल यह अधिकार होता है कि वह पूँजीपतियों की पार्टियों, यानी भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, अकाली दल, आम आदमी पार्टी, जदयू, जद (सेकू), राजद, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, टीडीपी, टीआरएस, तृणमूल कांग्रेस, माकपा, भाकपा आदि में से किसी एक को चुन ले। आम मेहनतकश आबादी के उन्नत तत्व इस बात को राजनीतिक प्रचार से ही समझ सकते हैं और अक्सर स्वयं ही समझ भी जाते हैं। लेकिन दूसरी और तीसरी श्रेणी की आबादी यानी मध्यवर्ती राजनीतिक तत्व और पिछड़े राजनीतिक तत्व महज़ राजनीतिक प्रचार से पूँजीवादी संसदीय जनवाद की राजनीतिक अप्रासंगिकता को नहीं समझते हैं। वे केवल और केवल व्यावहारिक अनुभव के ज़रिये ही समझ सकते हैं कि पूँजीवादी संसदीय जनवाद मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को बुनियादी जनवादी अधिकार नहीं दे सकता है और इन बुनियादी जनवादी अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर सत्ता अनिवार्य और अपरिहार्य है। ऐसे में, यह एक ज़रूरी कार्यभार है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी पूँजीवादी चुनावों और संसद, विधानसभाओं आदि में मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष के तौर पर रणकौशलात्मक हस्तक्षेप करे और पूँजीवादी संसदीय जनवाद की असलियत को न सिर्फ़ बाहर से बल्कि अन्दर से भी आम मेहनतकश जनता के समक्ष उजागर करे। आज इस काम को कोई भी पार्टी नहीं कर रही है क्योंकि आम मेहनतकश आबादी की कोई क्रान्तिकारी पार्टी मौजूद ही नहीं है जो कि सर्वहारा वर्ग का हिरावल हो और समस्त मेहनतकश जनता की नेतृत्वकारी कोर हो। ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ के गठन का वास्तविक उद्देश्य एक ऐसी ही पार्टी का निर्माण है जो कि न सिर्फ़ समाजवादी क्रान्ति और मज़दूर सत्ता की स्थापना के दूरगामी राजनीतिक लक्ष्य के लिए आज ही से काम करे, बल्कि ठीक इसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए आज ही से सभी राजनीतिक क्षेत्रों और प्रक्रियाओं में, जिसमें कि पूँजीवादी चुनाव भी शामिल हैं, मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष को पेश करे और उन्हें राजनीतिक रूप से एक अलग वर्ग के तौर पर संगठित करे, ताकि वह समस्त आम मेहनतकश जनता को क्रान्तिकारी आन्दोलन में नेतृत्व दे सके।
निश्चित तौर पर, यह एक जटिल और जोखिम भरा काम है, जैसा कि तमाम संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों के हश्र को देखकर समझा जा सकता है। ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ का यह मानना है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1951 से, और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (सीपीएम) अपने जन्म यानी 1964 से ही संशोधनवादी पार्टियाँ हैं। संशोधनवादी पार्टियों के रूप में ये अपने नाम में ‘कम्युनिस्ट’ लगाती हैं, लेकिन वास्तव में छोटे पूँजीपति वर्ग, धनी और मँझोले किसानों, मँझोले और छोटे व्यापारियों और समूची मज़दूर आबादी के एक बेहद छोटे हिस्से, यानी कि बैंक–बीमा, पोस्टल–टेलीग्राफ़, रेलवे आदि के स्थायी कर्मचारियों के एक हिस्से की सेवा करती हैं, जिन्हें आप लेनिन की भाषा में कुलीन मज़दूर वर्ग कह सकते हैं। ये पूँजीवादी चुनावों, संसद और विधानसभाओं में मज़दूर वर्ग की ओर से रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) हस्तक्षेप नहीं करतीं, बल्कि पूँजीपति वर्ग और निम्न पूँजीपति वर्ग की ओर से रणनीतिक (स्ट्रैटेजिक) हस्तक्षेप करती हैं।
इसका क्या मतलब है? इसका अर्थ यह है कि ये पूँजीवादी चुनावों, संसद और विधानसभाओं में इस मक़सद से हस्तक्षेप नहीं करतीं कि आम मेहनतकश अवाम के समक्ष उसकी सीमाओं और उसकी वास्तविकता को उजागर कर सकें, बल्कि एक टटपुँजिया सुधारवादी पार्टी के रूप में रणनीतिक हस्तक्षेप करती हैं और पूँजीवादी चुनावों, संसद और विधानसभाओं में आम मेहनतकश जनता की आस्था को बढ़ावा देती हैं और इनके बारे में उनके विभ्रमों को बढ़ाती हैं। इनका लक्ष्य मज़दूर सत्ता की स्थापना और समाजवाद का निर्माण नहीं है, बल्कि ये एक सुधारवादी कल्याणकारी पूँजीवाद की स्थापना का शेखचिल्ली जैसा सपना पाले हुए हैं, जो कि अब सम्भव ही नहीं है। ऐसे पूँजीवादी राज्य की स्थापना के लिए पूँजीपति वर्ग के पास भारी मुनाफ़ा होना चाहिए, स्वस्थ अर्थव्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन साम्राज्यवाद के आज के संकटग्रस्त दौर में यह सम्भव ही नहीं है। मुनाफे़ का संकट अपने चरम पर है। वित्तीय संकट 1970 के दशक से जाने का नाम ही नहीं ले रहा है। पूँजीपति वर्ग के मुनाफे़ की हवस ने ही पूँजीवाद को हमेशा की तरह संकट में धकेल दिया है, लेकिन 1970 के दौर से जारी इस संकट की ख़ासियत यह है कि चालीस वर्षों से यह संकट पूरी तरह कभी जा ही नहीं रहा है। इसीलिए इसे दीर्घकालिक मन्दी नाम दिया गया है और ऐसा लग रहा है कि यह मन्दी अब पूँजीवादी व्यवस्था के अन्त या किसी विनाशकारी महायुद्ध के साथ ही समाप्त होगी। ऐसे दौर में पूँजीपति वर्ग अपने घटते मुनाफे़ को बचाने के लिए मज़दूर वर्ग की मज़दूरी को घटाता है, उसके हक़ों को छीनता है, उसके आन्दोलनों को कुचलता है। वह कल्याणवाद और सुधारवाद कर ही नहीं सकता। उसे नवउदारवादी नीतियों की, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों की और भूमण्डलीकरण की नीतियों की आवश्यकता है। राजनीतिक तौर पर, उसे मोदी, ट्रम्प, दुतेर्ते, एर्दोआन, बोल्सोनारो जैसे फ़ासीवादियों या धुर दक्षिणपन्थियों की सत्ताओं की आवश्यकता है। कारण यह कि वह सुधारवाद करके यानी रोज़गार गारण्टी, सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा आदि का हक़ मज़दूर वर्ग को नहीं दे सकता क्योंकि फिर मज़दूर वर्ग औनी-पौनी मज़दूरी पर काम करने को तैयार नहीं होगा और उसके मोलभाव की ताक़त बढ़ जायेगी। इस समय पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत है कि मज़दूर वर्ग को बेरोज़गारी, भुखमरी, कुपोषण और बेघरी की हालत में रखा जाये ताकि वह कम-से-कम मज़दूरी में काम करने को तैयार हो और पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा उसे क़ायम रखने लायक़ स्तरों पर बना रहे। यही कारण है कि माकपा, भाकपा जैसे मज़दूर वर्ग के ग़द्दारों के बौद्धिक “विशेषज्ञों” की लाख सलाह के बावजूद पूँजीपति वर्ग निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को ही आगे बढ़ा रहा है और इन नक़ली कम्युनिस्टों के नेहरूवादी कल्याणवाद के सपने को अपने जूते तले कुचल रहा है। ये मज़दूर वर्ग की ग़द्दार पार्टियाँ हैं, जिनसे अब मज़दूर वर्ग अपने क्रान्तिकारी लक्ष्य को पूरा करने में नेतृत्व की उम्मीद नहीं कर सकता है और न ही पूँजीवादी चुनावों, संसद और विधानसभाओं में मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष के तौर पर रणकौशलात्मक हस्तक्षेप की उम्मीद कर सकता है।
राजनीतिक और विचारधारात्मक तौर पर यही हालत भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) –लिबरेशन की भी है। इस पार्टी ने अपनी शुरुआत एक “वामपन्थी” दुस्साहसवादी पार्टी के रूप में की थी लेकिन 1980 के दशक में नितान्त अवसरवादी पैंतरापलट करते हुए अपनी सभी पुरानी विचारधारात्मक अवस्थितियों (पोज़ीशन्स) को बदलकर यह संशोधनवाद के विपरीत ध्रुव तक जा पहुँची और संसदमार्गी जड़वामनों की पाँत में जाकर बैठ गयी। आज इसे संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों में भी सर्वाधिक अवसरवादी और निकृष्ट कोटि की पार्टी कहा जा सकता है। ऐसी कई अन्य नामधारी कम्युनिस्ट या समाजवादी पार्टियाँ भी हैं जो कि अपने-अपने तरीक़े से संशोधनवाद और सुधारवाद के रास्ते पर चल रही हैं, जैसे कि सोशलिस्ट यूनिटी सेण्टर ऑफ़ इण्डिया (कम्युनिस्ट), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, फ़ारवर्ड ब्लॉक आदि। इन सभी पर अलग से चर्चा की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन संशोधनवाद और सुधारवाद की प्रवृत्ति पर संक्षेप में चर्चा इसलिए ज़रूरी थी क्योंकि ये पार्टियाँ भी कम्युनिस्ट होने का दावा करते हुए पूँजीवादी चुनावों, संसद और विधानसभा में हस्तक्षेप करती हैं लेकिन ये पूँजीवादी सुधारवाद की राजनीतिक अवस्थिति से रणनीतिक भागीदारी करती हैं, न कि मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी अवस्थिति से रणकौशलात्मक हस्तक्षेप, जिसका लक्ष्य पूँजीवादी जनवादी व्यवस्था की सीमाओं और असलियत को उजागर करना होता है।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का लक्ष्य है कि पूँजीवादी संसदवाद के दलदल में धँस चुकी तमाम संशोधनवादी पार्टियों को भी आम मेहनतकश आबादी के सामने बेनक़ाब किया जाये और उनके सुधारवाद और उनकी टटपुँजिया राजनीति की असलियत को उजागर किया जाये जिससे कि पूँजीवादी संसद में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट टैक्टिकल हस्तक्षेप को सही अर्थों में स्थापित किया जा सके।
संक्षेप में, ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ का गठन इसलिए किया गया है ताकि मज़दूर वर्ग की एक हिरावल पार्टी का निर्माण किया जा सके जो आम मेहनतकश जनता का नेतृत्वकारी कोर की भूमिका निभा सके। इसका अन्तिम लक्ष्य क्रान्तिकारी रास्ते से मज़दूर सत्ता की स्थापना और समाजवादी व्यवस्था का निर्माण है। इस दूरगामी राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह पार्टी मौजूद पूँजीवादी समाज में हर राजनीतिक प्रक्रिया और राजनीतिक क्षेत्र में मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष के रूप में हस्तक्षेप करेगी, चाहे वह ट्रेड यूनियन आन्दोलन हो, प्रगतिशील जनान्दोलन हों, जैसे कि बेरोज़गारी के विरुद्ध, महँगाई के विरुद्ध, भ्रष्टाचार के विरुद्ध, फ़ासीवाद के विरुद्ध या फिर जनवादी हक़ों पर हमले के विरुद्ध, या फिर, पूँजीवादी चुनाव, संसद, विधानसभाएँ, नगरपालिकाएँ या पंचायतें हों। पूँजीवादी चुनावों, संसदों, विधानसभाओं आदि में हस्तक्षेप का मक़सद इन संस्थाओं की वास्तविकता और सीमाओं को आम मेहनतकश जनता के समक्ष उजागर करना है, न कि इन संस्थाओं के प्रति विभ्रम को बढ़ावा देना। यानी ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ का लक्ष्य है, इन पूँजीवादी चुनावों, संसद व विधानसभाओं में मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष के रूप में क्रान्तिकारी रणकौशलात्मक हस्तक्षेप करना।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) की ज़रूरत क्यों है?
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) की ज़रूरत इसलिए है क्योंकि आज सभी मौजूद चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से या ब्लॉक की नुमाइन्दगी करती हैं। चाहे वह बड़ा कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग हो जैसे कि अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला, मित्तल, बजाज आदि, चाहे वह मँझोला पूँजीपति वर्ग हो जैसे कि गोदरेज, निरमा, आदि, या वह छोटा पूँजीपति वर्ग हो जैसे कि छोटे कारख़ाना मालिक, ठेकेदार, छोटे व मँझोले व्यापारी, दलाल, धनी व उच्च मध्यम किसान व भूस्वामी, काफ़ी ऊँची तनख़्वाहें पाने वाले नौकरशाह वर्ग, शहरी उच्च मध्यम वर्ग, आदि। आइए ज़रा देखते हैं कि कुछ प्रमुख पूँजीवादी व टटपुँजिया चुनावबाज़ पार्टियाँ किन वर्गों की नुमाइन्दगी करती हैं।
कोई पार्टी किस वर्ग या किन वर्गों की नुमाइन्दगी करती है इसका फै़सला किन बातों से होता है? इसका फै़सला दो बातों से होता है : पहला, इस पार्टी के राजनीतिक नेतृत्व का राजनीतिक वर्ग चरित्र और विचारधारा क्या है; दूसरा, इस पार्टी के संसाधनों यानी चुनावी चन्दों, योगदानों आदि के स्रोत क्या हैं। आइए इन दो पैमानों पर भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी, माकपा जैसी प्रमुख राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियों की परख करें। इससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ये किन वर्गों की नुमाइन्दगी करती हैं।
सबसे पहले तो हम यह देख लेते हैं कि आज समस्त सांसदों का 82 प्रतिशत करोड़पति हैं। यानी एक बात तो स्पष्ट है कि आज न सिर्फ़ सभी चुनावी पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग के किसी न किसी हिस्से की नुमाइन्दगी करती हैं, बल्कि स्वयं उनका नेतृत्व इन्हीं वर्गों से आता है जो कि सक्रिय मुनाफ़ाखोर और पूँजीपति हैं। सांसदों में कारख़ाना मालिक, चीनी मिल मालिक, ठेका कम्पनियों के मालिक, बड़े भूस्वामी भरे हुए हैं। जो पेशेवर नेता हैं, अगर उनकी राजनीतिक विचारधारा का अध्ययन किया जाये तो कांग्रेस और भाजपा के नेता उन्नीस-बीस के फ़र्क से नवउदारवादी नीतियों के ही समर्थक हैं और इस रूप में देश के मेहनत और क़ुदरत को लूट-खसोट के लिए पूँजीपति वर्ग को सौंप देने के हिमायती हैं। अगर क्षेत्रीय दलों जैसे कि सपा, राजद, जद (यू), तेदेपा, द्रमुक, अकाली, तृणमूल आदि की बात करें तो ये भी अपने-अपने राज्य के बड़े और मँझोले पूँजीपतियों, बिल्डरों, ठेकेदारों के वर्ग हितों की सेवा करते हैं और उनकी आर्थिक नीतियाँ और राजनीतिक विचारधारा इसी के अनुसार तय होती हैं। माकपा, भाकपा और भाकपा (माले) लिबरेशन जैसी पार्टियों की बात करें तो इनके सांसद या विधायक सीधे पूँजीपति वर्ग से नहीं आते हैं, बल्कि उनका राजनीतिक वर्ग चरित्र टटपुँजिया वर्गों का है। इनकी आर्थिक नीतियाँ भी छोटे मालिक, छोटे व्यापारी वर्ग, धनी और मँझोले किसान और संगठित स्थायी कर्मचारी वर्ग के हितों की ही सेवा करती हैं। हालाँकि, दिलचस्प बात यह है कि जब भी माकपा व भाकपा का गठबन्धन सत्ता में होता है, जैसे कि पश्चिम बंगाल में था और केरल में है, तो वह बड़े पूँजीपतियों की भी बड़े चाव से सेवा करता है जैसे कि बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने पश्चिम बंगाल में टाटा के नैनो संयन्त्र के लिए किया था या केरल में पिनरायी विजयन की सरकार एम.ए. यूसुफ़ अली के लिए कर रही है। इससे यह साफ़ होता है कि टटपुँजिया वर्ग की कोई अपनी विचारधारा नहीं होती और वह अन्तत: पूँजीवादी विचारधारा पर ही चलता है। आम आदमी पार्टी की बात करें तो वह सबसे स्पष्ट तौर पर छोटे मालिकों और व्यापारियों की पार्टी के रूप में सामने आयी है। न सिर्फ़ उसकी राजनीतिक विचारधारा छोटे मालिकों और व्यापारियों की सेवा करती है, बल्कि स्वयं इस पार्टी के नेतृत्व में तमाम छोटे कारख़ाना मालिक व व्यापारी शामिल हैं जैसे कि विकास गोयल, गिरीश सोनी, राजेश गुप्ता आदि। इसके अलावा, अन्य टटपुँजिया आर्थिक पेशों से आने वाले लोग आम आदमी पार्टी के नेतृत्व और सदस्यों में भारी मात्रा में हैं जैसे कि प्रापर्टी डीलर, ट्रांसपोर्टर, शेयर दलाल, बिचौलिये, इत्यादि। इस पार्टी की नीतियों ने भी पिछले पाँच वर्षों में दिल्ली में इन्हीं वर्गों की सेवा की है, हालाँकि यह एक ऐसी पार्टी है जिसने सभी वर्गों से सभी वायदे कर दिये थे! इसका दावा था कि जो बड़े पूँजीपति “ईमानदारी” से काम करते हैं (मानो ईमान नापने की कोई मशीन केजरीवाल के पास हो!) उन्हें धन्धे की पूर्ण स्वतन्त्रता दी जायेगी, छोटे और मँझोले मालिकों और व्यापारियों पर कर विभाग आदि के छापे रुकवा दिये जायेंगे और धन्धा करना आसान बना दिया जायेगा (यानी श्रम क़ानूनों से पैदा होने वाली रुकावट ख़त्म कर दी जायेगी); लेकिन साथ ही इस पार्टी ने मज़दूरों से भी लुभावने वायदे किये जैसे कि ठेका प्रथा को ख़त्म करने, श्रम क़ानूनों को लागू करने आदि के वायदे। इसने टटपुँजिया वर्गों यानी छोटे मालिक वर्ग व व्यापारी वर्ग, बड़े पूँजीपति वर्ग से किये सारे वायदे तो पूरे किये लेकिन मज़दूर वर्ग से किये सारे वायदों से यह पार्टी मुकर गयी। यह लाज़िमी भी था। जो पार्टी स्वयं छोटे पूँजीपतियों ने बनायी हो, वह मज़दूरों को श्रम क़ानून के अधिकार और ठेका प्रथा से मुक्ति कैसे दे सकती थी। ये वायदे तो सिर्फ़ मज़दूरों और आम मेहनतकशों के वोटों के लिए किये गये थे और आम मेहनतकश आबादी ने बड़े चाव से आम आदमी पार्टी को वोट भी दिया क्योंकि वह नयी पार्टी थी और लोग भाजपा व कांग्रेस से तंग आ चुके थे। लेकिन अब वे आम आदमी पार्टी से भी तंग आ चुके हैं। यदि तमाम क्षेत्रीय दलों की बात करें तो उनका नेतृत्व भी इन्हीं राजनीतिक वर्गों से आता है। अब आते हैं कुछ प्रमुख चुनावबाज़ पूँजीवादी दलों के आर्थिक संसाधन के स्रोतों पर। यह सबसे भरोसेमन्द पैमाना है जो कि आपको इन पार्टियों की वास्तविक वर्ग चरित्र के बारे में बताता है। सबसे पहले सबसे बड़ी और फ़ासीवादी और सबसे ज़्यादा मज़दूर-विरोधी, दलित-विरोधी, स्त्री-विरोधी, आदिवासी-विरोधी और धार्मिक अल्पसंख्यक विरोधी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी की बात करते हैं।
भाजपा को 2017 में कुल 1034.27 करोड़ रुपये का फ़ण्ड मिला। यह केवल ज्ञात चन्दा है, जो कि कुल चन्दे का बहुत छोटा हिस्सा है। इसका सबसे बड़ा हिस्सा प्रूडेण्ट इलेक्टोरल ट्रस्ट के पास से आया, जिसका पुराना नाम सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट था। इसे 2014 के चुनाव के ठीक पहले एयरटेल के मालिक ने बनाया था और इसने दर्जनों बड़ी कम्पनियों से फ़ण्ड एकत्र करके भाजपा को दिया। इन कम्पनियों में डीएलएफ़, टॉरेण्ट पावर, एस्सार, हीरो, आदित्य बिड़ला ग्रुप, आदि शामिल हैं। इसने अपने कुल फ़ण्ड का 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा बड़ा हिस्सा भाजपा को दिया। बचे हुए हिस्से से कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय लोकदल को चुनावी चन्दा दिया गया। इसके अलावा, एबी इलेक्टोरल ट्रस्ट ने भी भाजपा को जमकर फ़ण्ड दिये हैं, जो कि आदित्य बिड़ला ग्रुप का है। इसके अलावा भाजपा को बड़े चन्दे देने वाली पूँजीपतियों में कैडिला हेल्थकेयर, माइक्रो लैब्स, सिपला लिमिटेड, महावीर इलेक्ट्रिकल्स आदि शामिल हैं। भाजपा के चन्दे का 95 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा पूँजीपति घरानों और बड़ी-बड़ी कम्पनियों से आया है।
कांग्रेस को भाजपा से कहीं कम फ़ण्ड मिले, यानी लगभग 200 करोड़ रुपये। लेकिन इस फ़ण्ड का स्रोत भी अधिकांशत: पूँजीपति घरानों से ही आया है। इस समय पूँजीपति घरानों ने भाजपा को ज़्यादा फ़ण्ड इसलिए दिया है क्योंकि मोदी सरकार ने इन पूँजीपति घरानों को लूट-खसोट की जैसी छूट दी है, वह अभूतपूर्व है और साथ ही जनता के आन्दोलनों को जिस बर्बरता से कुचलने का प्रयास किया है वह भी अभूतपूर्व है। यही कारण है कि कांग्रेस को भाजपा की तुलना में पाँच गुना कम फ़ण्ड मिले हैं, जिसका रोना कांग्रेस रो रही है। लेकिन कांग्रेस को जो फ़ण्ड मिले हैं उनका अधिकांश भी बड़ी-बड़ी कम्पनियों और उनके चुनावी ट्रस्टों से आया है। कांग्रेस को फ़ण्ड देने वालों में प्रूडेण्ट (सत्या) इलेक्टोरल ट्रस्ट, ट्रायम्फ़ इलेक्टोरल ट्रस्ट, निरमा लिमिटेड, आदित्य बिड़ला इलेक्टोरल ट्रस्ट, ज़ाइडस हेल्थकेयर, गायत्री प्रोजेक्ट्स आदि प्रमुख हैं। कांग्रेस के फ़ण्ड का भी 90-95 प्रतिशत हिस्सा बड़े पूँजीपतियों से आया है।
आम आदमी पार्टी को 2016-17 में कुल लगभग 25 करोड़ रुपये फ़ण्ड प्राप्त हुए। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा उसी सत्या या प्रूडेण्ट इलेक्टोरल ट्रस्ट का है, जिसकी हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। इसके अलावा टीडीआई इन्फ्राटेक, आईबीसी नॉलेज पार्क, अलेग्रो कारपोरेट फाइनेंस, पार कम्प्यूटर साइंस इण्टरनेशनल, इण्डियन फ्रेटवेज़, रालसन इण्डिया लिमिटेड और बहुत से मँझोले और छोटे उद्यमियों ने आम आदमी पार्टी को करोड़ों और लाखों में फ़ण्ड दिये हैं, जैसे कि सोनम सर्राफ़, वकील हाउसिंग डेवलपमेण्ट कारपोरेशन, इण्डियन डिज़ाइन्स एक्सपोर्ट, आदि।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को कुल क़रीब 1 करोड़ 15 लाख रुपये फ़ण्ड मिले। इसके बड़ा हिस्सा पार्टी के विभिन्न राज्यों की राजकीय परिषदों से आया, जिनमें सहयोग करने वाले अधिकांश लोग छोटे उद्यमी हैं, जो कि अक्सर इस पार्टी के पदों पर भी विराजमान हैं। इसके अलावा, तमाम अल्पसंख्यक उद्यमियों के संगठनों ने भाकपा को चन्दा दिया है। लेकिन अधिकांशत: ये चन्दे निम्न पूँजीपति वर्ग, छोटे उद्यमियों, व्यापारियों और साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के उभार से डरे हुए सेक्युलर व जनवादी शहरी मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग ने दिये हैं। इनके फ़ण्ड का एक हिस्सा निश्चित तौर पर इनकी ट्रेड यूनियन एटक के नेटवर्क से भी आता है, जिनकी बैंक व बीमा कर्मचारियों, पोस्टल व टेलीग्राफ़ कर्मचारियों आदि में ठीकठाक पकड़ है। यह मज़दूर वर्ग का वह हिस्सा है जिसे हम एक वर्ग के तौर पर कुलीन मज़दूर वर्ग की संज्ञा दे सकते हैं।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को 2017-18 में क़रीब 2 करोड़ 76 लाख रुपये का चुनावी चन्दा मिला। इसमें पार्टी के नेताओं द्वारा दिये गये फ़ण्ड के अलावा, जो कि स्वयं खाते-पीते मध्यवर्ग, छोटे उद्यमियों, छोटे व्यापारियों, कुलीन मध्यवर्ग से चन्दे के रूप में आता है, तमाम छोटी कम्पनियों द्वारा दिया गया फ़ण्ड है जैसे कि सेमत्ती टेक्सटाइल, ब्रिलियण्ट स्टडी सेण्टर, ईकेके कंस्ट्रक्शन, वेल्लाप्पली ब्रदर्स, जॉस्को ज्यूलर्स, एसेट्स होम्स, कोसामट्टम फाइनेंस, जेजे हॉलीडे, होटल एक्सकैलीबर, एसबीबी एण्ड क्ले प्रोडक्ट्स, श्री बालाजी रेज़ीडेंसी, बालाजी इंजीनियरिंग सर्विसेज़ आदि शामिल हैं। इनकी यूनियन सीटू ने भी अपने बैंक व बीमा कर्मचारियों, पोस्टल व टेलीग्राफ़ कर्मचारियों आदि से जुटाया गया चन्दा इन्हें दिया है।
बहुजन समाज पार्टी ने पिछले कई वर्षों से ऐलान किया हुआ है कि वह किसी से भी 20,000 रुपये से अधिक चन्दा नहीं लेती। लेकिन मौजूदा साल में उसे कुल 52 करोड़ रुपये के क़रीब चन्दा मिला है। इसका बड़ा हिस्सा दलित नौकरशाहों, अफ़सरों, दलित व अन्य पिछड़ी जातियों के छोटे उद्यमियों, बिल्डरों, व्यापारियों, व्यवसायियों आदि से आया है। ये दाता कौन हैं यह पता नहीं चलता है क्योंकि पार्टियों के लिए 20,000 रुपये या उससे कम दान देने वालों का नाम उजागर करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन बसपा का प्रमुख दाता वर्ग उपरोक्त ही हैं।
समाजवादी पार्टी को लगभग 7 करोड़ रुपये का चन्दा वर्ष 2017-18 में प्राप्त हुआ है। चन्दा देने वालों में सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट (एयरटेल व अन्य), जनरल इलेक्टोरल ट्रस्ट (बिड़ला), प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट (टाटा), आईटीसी लिमिटेड के साथ-साथ तमाम छोटे पूँजीपतियों, धनी कुलकों-फार्मरों, ने चन्दा दिया है। इसके दाताओं की पूरी सूची देखें तो साफ़ हो जाता है कि यह पार्टी भी बड़े पूँजीपतियों की एक लॉबी के साथ-साथ छोटे पूँजीपतियों, व्यापारियों, धनी फ़ार्मरों, ठेकेदार कम्पनियों, छोटे व मँझोले धार्मिक अल्पसंख्यक उद्यमियों आदि की ही नुमाइन्दगी करती है।
कुछ बड़ी कम्पनियों के चुनावी ट्रस्ट सभी बड़ी राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियों को भारी-भरकम चन्दा देते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि इन घोषित चन्दों के अलावा बहुत भारी रक़म और हवाई जहाज़, हेलिकॉप्टर, गाड़ियाँ, मकान, होटल आदि पूँजीपतियों द्वारा अघोषित रूप से भी पार्टियों को मुहैया कराये जाते हैं। इसी के बूते ये पार्टियाँ चुनाव लड़ती हैं। दूसरा स्रोत होता है स्वयं उम्मीदवारों की धन-सम्पदा।
अन्य चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों के फ़ण्ड में रुचि रखने वाले पाठक ‘एसोसियेशन फ़ॉर डेमोक्रैटिक रिफ़ॉर्म्स’ की रिपोर्टों को देख सकते हैं जो कि इण्टरनेट पर उपलब्ध हैं। हम इन सारी पार्टियों का ब्यौरा यहाँ नहीं दे सकते क्योंकि उसके लिए पूरी किताब की आवश्यकता पड़ेगी। लेकिन अब सौ टके का सवाल : क्या ये चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियाँ चुनावों समेत किसी भी राजनीतिक प्रक्रिया, मंच या क्षेत्र में आम मेहनतकश वर्गों के वर्ग हितों की नुमाइन्दगी या सेवा कर सकती हैं? जिन पार्टियों के समस्त आर्थिक संसाधनों के स्रोत का कम–से–कम 90 प्रतिशत पूँजीपति वर्ग या निम्न पूँजीपति वर्ग से आता हो, वह भला क्यों मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के वर्ग हितों की सेवा करने लगीं? ज़ाहिर सी बात है कि जो जिसका खाता है, उसी का गाता है। ऐसे में, इन पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों से यह उम्मीद रखना कि वे हम आम मेहनतकशों और मज़दूरों के हक़ों और हितों की सेवा कर सकती हैं, निपट मूर्खता होगी।
इस मायने में ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ (RWPI) सिद्धान्त और व्यवहार के मामले में एक अलग अवस्थिति पर खड़ी है। कैसे? आइए उन्हीं दो पैमानों पर RWPI के राजनीतिक वर्ग चरित्र का मूल्यांकन करते हैं, जिन पर हमने पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों का किया है। यानी, नेतृत्व का राजनीतिक वर्ग चरित्र और उसके संसाधनों के स्रोत। RWPI का राजनीतिक नेतृत्व मज़दूर आन्दोलनों से पैदा हुआ है। दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, राजस्थान, उत्तराखण्ड के अनेक मज़दूर आन्दोलनों, क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलनों, व अन्य प्रगतिशील जनान्दोलनों में परिपक्व हुए राजनीतिक व मज़दूर संगठनकर्ताओं की कोर टीम से ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ के नेतृत्व का निर्माण हुआ है।
‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ का यह उसूल है वह किसी भी तरीक़े से पूँजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से से कोई भी संस्थागत अनुदान, चन्दा या योगदान नहीं लेगी। RWPI किसी भी देशी–विदेशी पूँजीवादी कम्पनी, उनके चुनावी ट्रस्टों, उनकी फ़ण्डिंग एजेंसियों आदि से कोई आर्थिक सहायता नहीं लेगी। दूसरे शब्दों में, RWPI पूरी तरह से मज़दूरों, मेहनतकशों और प्रगतिशील व्यक्तियों के बीच से ही अपने संसाधनों को जुटायेगी और उसी के आधार पर अपनी सभी गतिविधियों को अंजाम देगी। केवल एक ऐसी पार्टी ही मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के हितों की सेवा कर सकती है, उनका प्रतिनिधित्व कर सकती है और उनसे सीखकर उन्हें नेतृत्व दे सकती है। इस रूप में, RWPI सच्चे मायने में मज़दूर वर्ग की हिरावल पार्टी है और समूची मेहनतकश जनता का नेतृत्वकारी कोर बनने की क्षमता रखती है। RWPI सामूहिक नेतृत्व और जनवादी केन्द्रीयता के उसूलों को मानती है। इसका अर्थ यह है कि नेतृत्व व्यक्ति आधारित नहीं, बल्कि एक चुने हुए निकाय द्वारा दिया जायेगा और फै़सला लिये जाने से पहले बहस-मुबाहिसे और चर्चा की पूर्ण स्वतन्त्रता और बहुसंख्या द्वारा फै़सला लिये जाने के बाद पूर्ण अनुशासन। केवल ऐसी पार्टी ही मेहनतकश वर्गों के राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने और उनके लिए लड़ने की क्षमता रख सकती है। अन्यथा पार्टी टटपुँजिया भटकावों और विचलनों का शिकार होने को बाध्य होगी।
जो भी मज़दूर, आम मेहनतकश, छात्र, स्त्रियाँ व अन्य इंसाफ़पसन्द व तरक़्क़ीपसन्द नागरिक भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के कार्यक्रम से सहमत हैं, वे उसके वॉलण्टियर बन सकते हैं। लेकिन सदस्यता ग्रहण करने के लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद के उसूलों और विश्व दृष्टिकोण को स्वीकार करना अनिवार्य होगा। वॉलण्टियर पार्टी के कार्यक्रम के प्रचार-प्रसार और उसके चुनावी प्रचार-प्रसार में पूरी तरह से हिस्सा लेंगे। लेकिन पार्टी के सम्मेलनों आदि में वे ही लोग भाग ले सकते हैं जो कि न सिर्फ़ पार्टी के कार्यक्रम को स्वीकार करें, बल्कि पार्टी के सर्वहारा विश्व-दृष्टिकोण यानी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को भी स्वीकार करें।
यहाँ से हम इस चर्चा पर आ सकते हैं कि मौजूदा लोकसभा चुनावों में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी किस कार्यक्रम या किस चुनाव घोषणापत्र के साथ मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की ओर से हस्तक्षेप करने वाली है।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) का चुनाव घोषणापत्र क्या कहता है?
RWPI का चुनाव घोषणापत्र पहले ही यह स्पष्ट करता है कि ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, बेघरी, भुखमरी, शोषण और उत्पीड़न का अन्तिम तौर पर ख़ात्मा तभी हो सकता है, जबकि क्रान्तिकारी रास्ते से मज़दूर वर्ग की हिरावल पार्टी के नेतृत्व में मज़दूर सत्ता की स्थापना हो और समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाये। इस क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए ज़रूरी है कि पूरे देश में मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी खड़ी की जाये। इसी लक्ष्य के साथ RWPI का गठन किया गया है कि वह इस ज़िम्मेदारी को निभा सके और समूची मेहनतकश आबादी के नेतृत्वकारी कोर की भूमिका निभा कर सके।
साथ ही ऐसा क्रान्तिकारी परिवर्तन कोई क्रान्तिकारी पार्टी अपनी मन मर्ज़ी से नहीं कर सकती बल्कि ऐसा क्रान्तिकारी परिवर्तन कई वस्तुगत अन्तरविरोधों पर भी निर्भर करता है। जब तक कि पूँजीवादी व्यवस्था का आर्थिक संकट और तमाम राजनीतिक अन्तरविरोध मिलकर एक सन्धिबिन्दु का निर्माण नहीं करते, यानी कि जब तक वे मिलकर समूची पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के एक आम राजनीतिक संकट में तब्दील नहीं होते तब तक क्रान्ति के लिए पूरी तरह तैयार सर्वहारा वर्ग और उसका पूरी तरह तैयार हिरावल भी क्रान्तिकारी परिवर्तन को अंजाम नहीं दे सकते हैं। निश्चित तौर पर, पूँजीवादी व्यवस्था चक्रीय क्रम में ऐसे राजनीतिक संकटों का शिकार होती है, जैसे कि 2011 में मिस्र और ट्यूनीशिया में हुआ था। लेकिन यदि उस समय सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को राजनीतिक रूप से तैयार करने और नेतृत्व देने के लिए कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद नहीं है, तो यह आम राजनीतिक संकट का दौर बीत जाता है और जनता को किसी न किसी प्रकार की धुर दक्षिणपन्थी या फ़ासीवादी प्रतिक्रिया के रूप में दण्ड मिलता है, जैसा कि मिस्र में हुआ भी। यानी कि क्रान्तिकारी परिवर्तन सर्वहारा वर्ग और उसके हिरावल की राजनीतिक तैयारी और वस्तुगत राजनीतिक परिस्थिति के भी पूर्ण रूप से पकने, यानी मनोगत और वस्तुगत दोनों ही कारकों के तैयार होने के सन्धिबिन्दु पर निर्भर करता है।
लेकिन वस्तुगत परिस्थितियाँ अपने आप ही तैयार नहीं होतीं बल्कि उसमें क्रान्तिकारी मनोगत शक्तियों का हस्तक्षेप भी आवश्यक होता है। यही वस्तुगत और मनोगत का द्वन्द्व भी है। यानी कि क्रान्तिकारी पार्टी के सतत् राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना न तो पूँजीवाद का राजनीतिक संकट स्वत:स्फूर्त गति से पूरी तरह परिपक्व हो सकता है और न ही पूँजीवादी व्यवस्था के आर्थिक संकट के बिना क्रान्तिकारी वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए पूरी तरह तैयार हो सकती है। इस सूत्रीकरण से निकलने वाला ठोस राजनीतिक नतीजा क्या है? इसका ठोस राजनीतिक नतीजा यह है कि राजनीतिक रूप से ग़ैर-क्रान्तिकारी दौरों में भी सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी को सतत् राजनीतिक सक्रियता के ज़रिये मेहनतकश वर्गों से सीखना होता है, यानी उनमें व्याप्त सही विचारों को अपनाना होता है और उन्हें माँजना होता है और इसके आधार पर राजनीतिक कार्यदिशा सूत्रबद्ध करनी होती है और उसके आधार पर समूची मेहनतकश आबादी को राजनीतिक नेतृत्व देना होता है। यह कैसे हो सकता है? यह तभी हो सकता है जबकि सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी वर्तमान समय की सभी राजनीतिक प्रक्रियाओं, मंचों, क्षेत्रों और गतिविधियों के प्रवाह से कटी न रहे, बल्कि उसमें सक्रिय राजनीतिक हस्तक्षेप करे। लेकिन यह कोई भी राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होता बल्कि सर्वहारा वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की ओर से किया गया हस्तक्षेप होता है, यानी कि यह सर्वहारा वर्ग और अन्य मेहनतकश वर्गों के हितों को राजनीतिक रूप से तमाम पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों से विलग कर देता है। सामाजिक-आर्थिक रूप से इन मेहनतकश वर्गों के हित पहले से ही अलग होते हैं। लेकिन जब तक ये मेहनतकश वर्ग स्वयं इस बात को समझते नहीं और अपने आप को स्वतन्त्र राजनीतिक रूप से संगठित नहीं करते, तब तक राजनीतिक तौर पर उनके वर्ग हितों का पूँजीवादी और निम्न-पूँजीवादी वर्ग से विलगाव नहीं हुआ होता है। यही वजह है कि सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी हिरावल को पूँजीवादी समाज के रोज़मर्रा के राजनीतिक जीवन के हर पहलू पर पोज़ीशन लेना और उसमें हस्तक्षेप करना सर्वहारा वर्ग को सिखाना होता है। इसके बिना न तो सर्वहारा वर्ग और न ही आम मेहनतकश आबादी क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए तैयार होती है।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि पूँजीवादी चुनाव पूँजीवादी समाज में जारी समस्त राजनीतिक प्रक्रियाओं में यदि सबसे महत्वपूर्ण नहीं तो एक बेहद महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया है। ऐसे में यह लाज़िमी है कि सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी को संगठित किया जाये और इस प्रक्रिया में भी सर्वहारा वर्ग की स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति से हस्तक्षेप किया जाये। यह हस्तक्षेप टैक्टिकल हस्तक्षेप होता है, जिससे कि समूचे क्रान्तिकारी परिवर्तन की परियोजना को आगे बढ़ाया जा सके। इसके बारे में हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। निश्चित तौर पर, चुनाव में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप करने वाली क्रान्तिकारी पार्टी को भी चुनाव में एक एजेण्डा पेश करना होता है जिसके बिना वह जनता के बीच अपने राजनीतिक कार्यक्रम को लोकप्रिय नहीं बना सकती है। इस एजेण्डा में पार्टी कौन-सी माँगों या कार्यभारों को रखती है? वे माँग और कार्यभार जो कि समूचे समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम से जाकर जुड़ते हैं और उसे ही आगे बढ़ाते हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ ने RWPI के चुनाव घोषणापत्र का अध्ययन करके पाया कि यह घोषणापत्र लगभग उन सभी मौजूदा माँगों या कार्यभारों को समेटता है, जो सीधे–सीधे समाजवाद के लिए संघर्ष से जाकर जुड़ते हैं। आइए देखते हैं कि यह एजेण्डा और उसकी कुछ प्रमुख माँगें या कार्यभार क्या हैं, जिन्हें लेकर RWPI के मज़दूर वर्गीय उम्मीदवार आने वाले लोकसभा चुनावों में हस्तक्षेप कर रहे हैं।
पहली आम माँग जो कि RWPI का घोषणापत्र उठाता है, वह है सभी अप्रत्यक्ष करों को समाप्त करना और समूचे पूँजीपति वर्ग पर प्रगतिशील कर की व्यवस्था को लागू करना। हम मज़दूरों और मेहनतकशों को इस माँग का महत्व समझना चाहिए। पिछले बजट में सरकार ने यह बताया था कि सरकार की कुल आमदनी 2.7 लाख करोड़ रुपये है। यह वास्तव में देश में वस्तुओं और सेवाओं की कुल पैदावार का मूल्य है। ज़ाहिर है कि ये सारी वस्तुएँ और सेवाएँ टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अडानी, जिन्दल और मित्तल, तमाम कारख़ाना मालिक, ठेकेदार, दलाल और बिचौलिये नहीं बना रहे हैं, बल्कि आम मेहनतकश आबादी अपनी मेहनत से बनाती है। यदि कोई पूँजीपति कहता है कि कारख़ाना और मशीनें तो उसकी हैं, तो वह कारख़ाना और मशीनें भी उसने बनायी नहीं बल्कि उसे ख़रीदा है। जिससे ख़रीदा है, वह भी पूँजीपति है, लेकिन उसने भी मशीनें और उत्पादन के साधन नहीं बनाये। अन्तत:, सुई से लेकर जहाज़ तक सबकुछ मज़दूर वर्ग ही बनाता है। रुपये का नोट अपने आप में काग़ज़ का टुकड़ा मात्र है यदि उससे ख़रीदने के लिए कुछ मौजूद ही न हो। आप उसे खा या पहन नहीं सकते और न ही उसमें रह सकते हैं। ज़ाहिर है, कि शोषण की व्यवस्था का ढाँचा ऐसा है कि समस्त मूल्य यानी कि बेची और ख़रीदी जाने वाली हर वस्तु, यानी माल का उत्पादन मज़दूर वर्ग करता है लेकिन उसके बदले में उसे इस समस्त मूल्य पर अधिकार नहीं मिलता, बल्कि मज़दूरी के रूप में सिर्फ़ जीने की ख़ुराकु मिलती है। 1973 में कुल उत्पादन में मज़दूरी का हिस्सा 30 प्रतिशत के क़रीब था जो कि आज घटकर 11 प्रतिशत के क़रीब पहुँच चुका है। यानी मज़दूर जो कुछ पैदा करता है, उसका केवल 11 प्रतिशत उसे मिलता है ताकि वह ज़िन्दा रह सके और पूँजीपति के लिए मुनाफे़ का उत्पादन जारी रख सके। ऐसे में, जब कि सबकुछ मज़दूर ही पैदा कर रहा है, उससे अप्रत्यक्ष कर के रूप में सरकारी ख़ज़ाने का बड़ा हिस्सा वसूलना क्या न्यायपूर्ण है? वैसे तो समूची पूँजीवादी व्यवस्था और उसका शोषणकारी चरित्र ही अन्यायपूर्ण है, लेकिन आम जनवादी सिद्धान्तों के अनुसार भी, अप्रत्यक्ष कर के रूप में आम मेहनतकश जनता की कमाई पर डाका डालना अनुचित और अनैतिक है। कुल सरकारी ख़ज़ाने का मात्र 28 प्रतिशत कॉरपोरेट कर से आता है। अन्य लगभग 20 प्रतिशत आयकर से आता है, जिसका एक हिस्सा निम्न व मध्यम मध्य वर्ग देता है। बाकी अप्रत्यक्ष करों से एकत्र होता है। जनता से यह अतिरिक्त अप्रत्यक्ष कर लिया जाना एक प्रकार का डाका है, क्योंकि यह मेहनतकश जनता पहले ही सबकुछ पैदा करती है, जिसमें कि समूचे पूँजीपति वर्ग की आमदनी भी है। इसलिए अप्रत्यक्ष कर को तत्काल समाप्त किये जाने की माँग एक जन माँग है, जोकि आम मेहनतकश जनता के लिए महँगाई को कम करेगी और उसके जीवन को आसान बनायेगी। सरकारी ख़ज़ाने को बढ़ाने, ताकि कम-से-कम सैद्धान्तिक तौर पर जनकल्याण के कार्यों में उसे लगाया जा सके, के लिए सरकार को पूँजीपति और धनाढ्य वर्ग पर प्रगतिशील कर लगाना चाहिए, यानी कि जैसे-जैसे आय और सम्पत्ति बढ़ेगी वैसे-वैसे कर भी बढ़ते जायेंगे। आज कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के लिए कहने को टैक्स की दर 30 प्रतिशत है, लेकिन कोई भी 10-12 प्रतिशत से अधिक नहीं देता, मिसाल के तौर पर, अम्बानी 10 प्रतिशत के क़रीब कर देता है। यही वह नीति है जो पूँजीपति वर्ग को अधिक से अधिक धनी बनाती है, और मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी को ग़रीबी के दलदल में धकेलती जाती है। इन कॉरपोरेट पूँजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाली सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ इन्हीं नीतियों को लागू करती हैं। इसलिए ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ मानती है कि सभी अप्रत्यक्ष करों को तत्काल समाप्त किया जाये और पूँजीपति वर्ग पर प्रगतिशील कराधान की व्यवस्था को लागू किया जाये।
दूसरी आम माँग जो कि RWPI का घोषणापत्र उठाता है, वह है कि समस्त नॉन पर्फार्मिंग एसेट्स, यानी ऐसी कम्पनियाँ जो कि बैंकों से भारी क़र्जे़ का ग़बन करके, यानी कि जनता के धन का ग़बन करके बैठी हैं, या वे कम्पनियाँ जिनकी कुल सम्पदा में बड़ा हिस्सा ऋण का है, उनका तत्काल राष्ट्रीकरण किया जाये। इसका कारण यह है कि ये कम्पनियाँ जनता के पैसों का ग़बन करके जनता को ही लूटने का काम कर रही हैं। इसलिए इनका राष्ट्रीकरण करके इन्हें समस्त जनता की सम्पत्ति घोषित किया जाना चाहिए। यह एकदम जायज़ माँग है क्योंकि ये कम्पनियाँ पूँजीवादी क़ानून के अनुसार भी ग़बन और भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। पूँजीवादी जनवादी क़ानून के उसूलों के अनुसार भी इन्हें जनता को सौंप दिया जाना चाहिए। हमारी माँग है कि कालान्तर में, सभी कॉरपोरेट घरानों की कम्पनियों को ज़ब्त किया जाना चाहिए और उनका राष्ट्रीकरण किया जाना चाहिए। कारण यह कि इन कम्पनियों द्वारा पैदा पूरा मूल्य समूचा मज़दूर वर्ग पैदा कर रहा है। कोई एक पूँजीपति भी इन्हें अपनी निजी सम्पत्ति नहीं करार दे सकता है। पूँजीपति बोल सकता है कि कारख़ाना तो उसके बाप-दादों ने लगाया था। वैसे तो उसके लिए ज़रूरी सामान भी उसके बाप-दादों ने नहीं पैदा किया था, बल्कि मज़दूरों ने ही पैदा किया था, लेकिन यदि इस बात को छोड़ भी दें तो जितना आरम्भिक निवेश पूँजीपति ने किया था, उससे कई गुना ज़्यादा मुनाफ़ा कमाकर मज़दूर वर्ग दशकों पहले इन पूँजीपतियों को दे चुका है। आज इन सभी कम्पनियों की एक-एक कील और इन पूँजीपतियों की बनियान तक मज़दूर वर्ग की दी हुई है और अगर मज़दूर वर्ग इस समस्त सम्पदा को हस्तगत कर लेता है, तो यह पूरी तरह से न्यायपूर्ण है। इस दिशा में बढ़ने के लिए एक अहम कार्यभार है कि सभी कल-कारख़ानों और खानों-खदानों का राष्ट्रीकरण किया जाये।
इसी प्रकार RWPI का चुनावी घोषणापत्र यह माँग उठाता है कि समूची ज़मीन का राष्ट्रीकरण किया जाना चाहिए। अर्थात्, ज़मीन को कोई बेच या ख़रीद नहीं सकता क्योंकि यह समूचे राष्ट्र की सम्पत्ति होगी। किसानों को ज़मीन भोगाधिकार के आधार पर प्राप्त होगी। लेकिन वे उसे बेच या ख़रीद नहीं सकते हैं। हवा, पानी, और धूप के समान ही ज़मीन प्राकृतिक सम्पदा है और उसे किसी ने पैदा नहीं किया है। ऐसे में, ज़मीन में निजी सम्पत्ति का क्या तर्क हो सकता है? कोई नहीं! इसलिए ज़मीन में निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा होना चाहिए। इसी से जुड़ी हुई माँग यह है कि यदि ज़मीन किसी की निजी सम्पत्ति नहीं है तो बड़े धनी फ़ार्मरों और कुलकों से उनकी ज़मीनें ले ली जानी चाहिए जो कि अपने निजी पारिवारिक श्रम द्वारा खेती नहीं करते, या फिर मुख्य रूप से और नियमित तौर पर मज़दूरों से खेती करवाते हैं। ऐसी सूरत में मज़दूर समूची राष्ट्र की सम्पदा पर अपनी मेहनत से फ़सल उगाते हैं और उस पूरे मूल्य को मज़दूरी देने के बाद धनी कुलक और भूस्वामी हड़प जाते हैं, जबकि न तो ज़मीन उनकी है और न ही मेहनत। इसलिए सभी बड़े फ़ार्मों का राष्ट्रीकरण कर उस पर सहकारी, सामूहिक व राजकीय यानी सरकारी मॉडल फ़ार्म बनाये जाने चाहिए। सहकारी फ़ार्म ग़रीब किसानों के सहकारी संघों को दिये जाने चाहिए, सामूहिक फ़ार्म खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों के समूहों को दिये जाने चाहिए और राजकीय फ़ार्म पर खेतिहर मज़दूरों को राजकीय कर्मचारी के तौर पर रखकर खेती करवायी जानी चाहिए। इस प्रकार से समूची खेती को पुनर्संगठित कर देश को खाद्यान्न समस्या और भूख व कुपोषण से पूरी तरह से निजात दिलायी जा सकती है। RWPI की यह माँग पूर्ण रूप से न्यायसम्मत है, और समाजवाद के संघर्ष से सीधे तौर पर जाकर जुड़ती है।
अगली माँग एक ऐसी माँग है जो कि आज देश की जनता की प्रमुख माँग बनी हुई है। यह माँग काम के हक़, या राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून की माँग है जिसके तहत सभी काम करने योग्य लोगों को साल भर का रोज़गार देना या फिर कम–से–कम रु. 10,000 बेरोज़गारी भत्ता देना सरकार की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। मोदी सरकार के दौर में बेरोज़गारी ने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं। फ़रवरी 2019 में यह दर 7.2 प्रतिशत पहुँच चुकी है। लेकिन वास्तव में यह इससे कहीं ज़्यादा है क्योंकि सरकारी आँकड़े बेरोज़गारों की सही गिनती नहीं करते। कारण यह है कि हमारे देश में रोज़गार गारण्टी का कोई क़ानून नहीं है। नतीजतन, तमाम तथाकथित “स्वरोज़गार” प्राप्त लोगों को वास्तव में बेरोज़गारों के रूप में नहीं गिना जाता, जबकि वे वास्तव में बेरोज़गार ही हैं और कोई रोज़गार मिलने तक रेहड़ी-खोमचा लगाने, पटरी दुकानदारी करने, लेबर चौक पर खड़े होने, हमाली या बेलदारी करने, रिक्शा खींचने, चाय-पकौड़ा बेचने, बीड़ी-सिगरेट-पान बेचने आदि को मजबूर होते हैं। अगर इन सभी वास्तव में बेरोज़गार लोगों को जोड़ा जाये तो हमारे देश में क़रीब 25 से 30 करोड़ लोग बेरोज़गारी का शिकार हैं। यह आज मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की सबसे प्रमुख माँग है कि उन्हें रोज़गार की गारण्टी मिले और इसके लिए सरकार संविधान में संशोधन कर रोज़गार के अधिकार को मूलभूत अधिकार माने और रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाकर सभी काम करने योग्य व्यक्तियों को या तो साल भर का पक्का रोज़गार दे या फिर जीवनयापन योग्य बेरोज़गारी भत्ता दे जो कि कम-से-कम रु. 10,000 होना चाहिए।
RWPI के घोषणापत्र में अगली सबसे अहम माँग है सभी नियमित प्रकृति के कामों से ठेका प्रथा का पूर्ण रूप से उन्मूलन करना। आज देश के समस्त मज़दूरों में से 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा ठेका प्रथा के अन्तर्गत काम कर रहे हैं। इन मज़दूरों को न तो कोई श्रम अधिकार प्राप्त होता है और न ही रोज़गार सुरक्षा। सरकार से लेकर न्यायपालिका तक ठेका प्रथा नामक इस आधुनिक ग़ुलामी को बढ़ावा दे रहे हैं और सही ठहरा रहे हैं, ताकि मज़दूरों की औसत मज़दूरी को कम किया जा सके और पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाया जा सके। नतीजतन, यह मज़दूर वर्ग की सबसे अहम माँगों में से एक बनती है कि सभी नियमित प्रकृति के कामों में ठेका मज़दूरी को पूरी तरह से समाप्त किया जाये।
आज सरकार काग़ज़ी तौर पर न्यनूतम मज़दूरी को बढ़ाती है लेकिन यह कहीं भी लागू नहीं होती। और सरकारी तौर पर भी राष्ट्रीय न्यनूतम मज़दूरी बेहद कम है। RWPI के एजेण्डा में यह एक प्रमुख माँग है कि राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी को कम–से–कम रु. 20,000 किया जाये और जिन राज्यों में जीवनयापन का ख़र्च ज़्यादा है वहाँ इसे और भी अधिक किया जाये। न्यूनतम मज़दूरी के आकलन में न सिर्फ़ मज़दूर के परिवार का भोजन, बल्कि मकान के किराये, परिवहन, ईंधन, कपड़े-लत्ते, दवा-इलाज और बच्चों की शिक्षा के ख़र्च को जोड़ा जाना चाहिए। यदि इन सभी कारकों को जोड़ा जाये तो राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी कम-से-कम रु. 20,000 बनती है।
जैसा कि हमने पहले इंगित किया, देश के कुल उत्पादन में मज़दूरी का हिस्सा 1973 के 30 प्रतिशत से घटकर 11 प्रतिशत पर आ चुका है। मज़दूर पहले हमेशा से ज़्यादा उत्पादन हमेशा से कम समय में कर रहा है। तकनोलॉजी के उन्नत होने के साथ, जो कि स्वयं शारीरिक व मानसिक श्रम करने वाले मज़दूर वर्ग का ही योगदान है, मज़दूर वर्ग की उत्पादकता बेहद बढ़ चुकी है। लेकिन उसे कुल उत्पादन का हमेशा से कम हिस्सा मिल रहा है। मज़दूरों को आज हमेशा से कम वास्तविक मज़दूरी पर हमेशा से ज़्यादा काम करना पड़ रहा है। 90 प्रतिशत से ज़्यादा मज़दूर 9 से 11 घण्टे काम करते हैं और बदले में उन्हें औसतन 7 से 9 हज़ार रुपये प्रति माह मिलते हैं। ऐसे में, RWPI ने यह माँग उठायी है कि काम के घण्टे क़ानूनी तौर पर 6 घण्टे निर्धारित किये जाने चाहिए। आज उन्नत तकनोलॉजी के स्तर को देखते हुए 8 घण्टे से 10 घण्टे काम करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि सभी मज़दूरों को 6 घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार प्राप्त होता है, तो भारी संख्या में रोज़गार भी पैदा होगा। अभी तो यदि 8 घण्टे के ही कार्यदिवस को ही क़ानूनी तौर पर सही तरीक़े से लागू किया जाये तो करोड़ों नये रोजगार पैदा हो सकते हैं। इसीलिए RWPI यह भी माँग उठा रही है कि श्रम विभाग में बड़े पैमाने पर श्रम निरीक्षकों और कारख़ाना निरीक्षकों की भर्ती हो और इनकी निरीक्षण टोली में मज़दूरों के चुने हुए प्रतिनिधियों को शामिल किया जाये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी श्रम क़ानूनों को सही तरीक़े से और पूर्ण रूप से लागू किया जा रहा है।
हम सभी जानते हैं कि मज़दूर ओवरटाइम इसलिए करते हैं क्योंकि उनकी मज़दूरी बेहद कम है। अधिकांश मज़दूरों से जबरिया ओवरटाइम कराया जाता है और जहाँ वे “स्वेच्छा” से भी ओवरटाइम करते हैं उसका कारण कम मज़दूरी होता है। ओवरटाइम उनके शरीर और मस्तिष्क को तोड़ डालता है, उनकी जीवन प्रत्याशा को घटा देता है और उन्हें जल्दी बूढ़ा कर देता है। उन्हें मनोरंजन, आराम और परिवार के साथ वक्त बिताने का अवसर नहीं मिलता। ऐसे में, एक इंसानी ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है कि ओवरटाइम की व्यवस्था को पूर्ण रूप से समाप्त किया जाये। RWPI ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इस मुद्दे को भी पुरज़ोर तरीक़े से उठाया है। इसी से जुड़ा हुआ मसला रात्रि शिफ्ट का है। रात्रि कार्य को ख़त्म किया जाना चाहिए और जिन उद्योगों में रात्रि कार्य अनिवार्य है वहाँ भी इसकी सीमा 4 घण्टे तय की जानी चाहिए और मज़दूरों के संगठनों और यूनियनों से राय–मशविरा करके ही इसे लागू किया जाना चाहिए। आज यह मेडिकल साइंस द्वारा सिद्ध तथ्य है कि रात्रि कार्य मज़दूरों के लिए और विशेष तौर पर स्त्री मज़दूरों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जिन उद्योगों में स्त्रियों को रात्रि कार्य करना आवश्यक हो, वहाँ उन्हें घर से लेने और घर तक छोड़ने की व्यवस्था नियोक्ता यानी कि मालिक की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए।
स्त्री मज़दूरों की सबसे बड़ी माँग यह है कि उन्हें समान काम के लिए पुरुषों के बराबर वेतन मिलना चाहिए। यह माँग औपचारिक तौर पर सभी संगठन व केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें उठाते रहे हैं, लेकिन इसे लेकर कोई जुझारू संघर्ष नहीं किया जा रहा है। ऐसे में, सरकार को श्रम विभाग में स्त्री निरीक्षकों की भर्ती करनी चाहिए जो उन सभी उद्योगों में जहाँ कि स्त्री मज़दूर काम करती हैं, वहाँ यह सुनिश्चित करें कि स्त्रियों को सभी श्रम अधिकार और स्त्री मज़दूरों के अधिकार प्राप्त हो रहे हैं। इन अधिकारों में कार्यस्थल पर पालना घर व क्रेच की व्यवस्था, बच्चों को दूध पिलाने वाली स्त्रियों को हर तीन घण्टे पर स्तनपान हेतु एक घण्टे का ब्रेक, गर्भवती स्त्रियों को प्रसव के छह माह पहले और छह माह बाद तक वैतनिक छुट्टी, कार्यस्थल पर साफ-सुथरे अलग शौचालय और साफ़ पीने के पानी की व्यवस्था आदि शामिल हैं। RWPI अपने चुनावी घोषणापत्र के एजेण्डे में इन माँगों को प्रमुखता से स्थान देती है।
सभी स्कीम वर्करों, यानी विशेष योजना के तहत काम करने वाले कर्मियों, जैसे कि आँगनवाड़ी कर्मी, आशाकर्मी, आदि को स्थायी रोज़गार सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इन विशेष स्कीमों को समाप्त कर प्रीस्कूल, पोषण, पालनाघर आदि के कार्य को बाक़ायदा सरकार की नीति का अंग बनाया जाना चाहिए और इनके लिए विभाग और उपयुक्त ढाँचा खड़ा किया जाना चाहिए। इसके बिना, इन कार्यों को विशेष स्कीमों के नाम पर चलाने का अर्थ है लाखों कर्मचारियों, विशेषकर स्त्री कर्मचारियों से बेगार करवाना। RWPI का चुनाव घोषणापत्र इन माँगों को अलग से स्थान देता है और इनके लिए संघर्ष की प्रतिबद्धता घोषित करता है।
मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के लिए, जो कि किसी अन्य के श्रम का दोहन नहीं करते, राजकीय बीमा की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए जिसके तहत हर प्रकार की विकलांगता, बीमारी, बच्चे के जन्म, जीवन-साथी की मृत्यु, अनाथ होने पर सरकार द्वारा बीमा राशि दी जानी चाहिए। इस बीमा योजना के लिए धन विशेष कर द्वारा पूँजीपतियों से लिया जाना चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था आम मेहनतकश आबादी का हक़ है, जो कि देश की समस्त धन-दौलत और सम्पदा पैदा कर रहे हैं।
घरेलू कामगार सर्वाधिक शोषित मज़दूरों में से एक हैं, जिनसे लगभग आधुनिक ग़ुलामी के हालात में काम करवाया जाता है। RWPI का चुनाव घोषणापत्र माँग करता है कि घरेलू कामगारों के लिए अलग लेबर एक्सचेंज का गठन हो, जिसमें कि उनका पंजीकरण हो और किसी भी व्यक्ति को घरेलू कामगार की ज़रूरत पड़ने पर इस एक्सचेंज द्वारा घरेलू कामगार मुहैया कराये जायें। घरेलू कामगारों पर न्यूनतम मज़दूरी समेत सभी श्रम क़ानून प्रदत्त अधिकार लागू हों। उनके लिए एक अलग विशेष क़ानून बनाया जाये जिसमें उनकी रोज़गार-सुरक्षा, उनके सम्मान और उनके साथ बराबरी के बर्ताव को सुनिश्चित करने के लिए भी प्रावधान किया जाये। न सिर्फ़ घरेलू कामगारों की पहचान और पंजीकरण को सुनिश्चित किया जाये, बल्कि उनके नियोक्ताओं की भी जाँच, पहचान और पंजीकरण किया जाये।
देश में करोड़ों मज़दूर, विशेषकर निर्माण मज़दूर, लेबर चौकों की श्रम मण्डियों में श्रम शक्ति बेचने को मजबूर हैं। RWPI का घोषणापत्र माँग करता है कि लेबर चौकों के मज़दूरों के लिए भी अलग लेबर एक्सचेंज का गठन किया जाये, जिनमें उनकी दिहाड़ी न्यूनतम मज़दूरी के अनुसार और काम के घण्टे विनियमित किये जायें। उनके पहचान कार्ड बनाये जायें और किसी भी नियोक्ता को मज़दूर रखने के लिए इन्हीं एक्सचेंजों से सम्पर्क करने की व्यवस्था बनायी जाये। सांसद के रूप में चुने जाने पर RWPI के सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में ऐसी व्यवस्था बहाल करेंगे। लेकिन इसके लिए राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है और उसके लिए RWPI के उम्मीदवार चुने जाने पर संसद में संघर्ष करेंगे।
देश में करोड़ों की संख्या में ग्रामीण मज़दूर सबसे कठिन क़िस्म के काम करते हैं और वह भी किसी भी प्रकार की क़ानूनी सुरक्षा के बिना। RWPI का घोषणापत्र यह माँग करता है कि सभी खेतिहर मज़दूरों के काम को श्रम क़ानूनों के मातहत लाया जाये और उनके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त ढाँचे का निर्माण किया जाये।
मज़दूर वर्ग की इन बुनियादी माँगों के अलावा, समस्त मेहनतकश जनता की कुछ बेहद अहम माँगें हैं, जिन्हें RWPI का चुनाव घोषणापत्र प्रखरता के साथ उठाता है। इनमें से प्रमुख हैं सभी के लिए समान और नि:शुल्क शिक्षा की सरकारी व्यवस्था और निजी स्कूलों और कॉलेजों की जगह पूर्ण रूप से एक समान सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की व्यवस्था, सार्विक स्वास्थ्य देखरेख की सरकारी व्यवस्था जिसके तहत सभी नागरिकों को नि:शुल्क व समान दवा-इलाज का हक़ मिले, समस्त मेहनतकश आबादी के लिए भोगाधिकार के आधार पर सरकारी आवास की व्यवस्था जिसके लिए समस्त ख़ाली निजी अपार्टमेण्टों व मकानों को ज़ब्त किया जाये और पूँजीपति वर्ग पर विशेष कर लगाकर नये सरकारी मकानों का निर्माण किया जाये, देश में भूख और कुपोषण की समस्या को हल करने के लिए रियायती दरों पर अनाज मुहैया कराने हेतु प्रभावी सार्वजनिक वितरण प्रणाली या राशन की दुकानों की व्यवस्था बहाल की जाये, इत्यादि।
RWPI का चुनाव घोषणापत्र सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की इन बुनियादी सामाजिक-आर्थिक माँगों के अतिरिक्त जनता की बुनियादी राजनीतिक माँगों को भी उठाता है जैसे कि धर्म को राज्य से वास्तव में और पूर्ण रूप से अलग किया जाना चाहिए, सभी धार्मिक शिक्षण संस्थानों को बन्द किया जाना चाहिए, समान नागरिक संहिता लागू की जानी चाहिए, सभी राष्ट्रीयताओं को बिना शर्त आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए, सभी को अपनी मातृभाषा में शिक्षण का अधिकार प्राप्त हो, किसी भी भाषा को राजकीय भाषा का दर्जा न प्राप्त हो और पूरे देश में हर स्थान पर जनता को अपनी भाषा में सभी सरकारी व न्यायिक कार्य का अधिकार हो, न सिर्फ़ अस्पृश्यता को बल्कि किसी भी रूप में जाति-आधारित भेदभाव को अपराध की श्रेणी में लाया जाना चाहिए और जाति-आधारिक वैवाहिक विज्ञापनों और जाति-आधारित पंचायतों, खापों और संगठनों पर पूर्ण रोक लगायी जानी चाहिए, दंगों के लिए ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई और सज़ा सुनिश्चित करने के लिए नया सख़्त क़ानून बनाया जाना चाहिए, सभी दमनकारी क़ानूनों जैसे कि आफ्स्पा, डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्ट, धारा 144, एस्मा, यूएपीए, मकोका, यूपीकोका, राजद्रोह क़ानून, ऑफ़ि़शियल सीक्रेट्स एक्ट आदि को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाना चाहिए, काम्पा और ईपीए जैसे क़ानून रद्द किये जाने चाहिए जिनके ज़रिये आदिवासियों के भोगाधिकार वाली सामुदायिक सम्पदा को पूँजीपतियों के हाथों बेचा जा रहा है। इसके अलावा, RWPI का चुनाव घोषणापत्र माँग करता है कि सैनिकों की जायज़ माँगों जैसे कि वन रैंक वन पेंशन को स्वीकार किया जाना चाहिए, उन्हें राजनीतिक साहित्य पढ़ने, संगठित होने और हड़ताल करने का जनवादी अधिकार दिया जाना चाहिए।
अन्य कई आवश्यक माँगों सहित पूरा घोषणापत्र पाठक RWPI की वेबसाइट www.rwpi.org पर देख सकते हैं।
उपरोक्त माँगों के साथ RWPI आने वाले चुनावों में मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष के तौर पर हस्तक्षेप कर रहा है। यह आज की ज़रूरत है कि इन बुनियादी मुद्दों पर मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को संगठित किया जाये और पूँजीवादी चुनावबाज़ दलों को इन प्रश्नों पर नंगा किया जाये और उनके असली वर्ग चरित्र को जनता के सामने लाया जाये। यह सर्वहारा वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित करने और उसे व्यापक मेहनतकश जनता को क्रान्तिकारी आन्दोलन में नेतृत्व देने के योग्य बनाने के लिए अपरिहार्य है। RWPI इन्हीं कार्यभारों को पूरा करने वाला मज़दूरों और आम मेहनतकशों का अपना राजनीतिक दल है।
मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी को RWPI को वोट और समर्थन क्यों देना चाहिए?
उपरोक्त कारणों से ‘मज़दूर बिगुल’ ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ का समर्थन करता है और मानता है कि जब तक यह पार्टी वास्तव में इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कार्य करती है, सर्वहारा विचारधारा और राजनीति पर अडिग रहती है, जनवादी केन्द्रीयता के उसूलों को लागू करती है, मज़दूर वर्ग को राजनीतिक तौर संगठित करने के कामों को श्रमसाध्य रूप से करती है, तब तक ‘मज़दूर बिगुल’ इसे अपना समर्थन देगा। यदि भविष्य में भी RWPI क्रान्तिकारी कार्यदिशा को लागू करने और आन्तरिक तौर पर जनवादी केन्द्रीयता को लागू करने, अपने आर्थिक संसाधनों को मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के बीच से जुटाने और इन्हीं संसाधनों पर निर्भर रहने के निर्णय और नीति पर अडिग रहती है, तो यह उम्मीद की जा सकती है कि यह निश्चित ही देश में मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष और उनके क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व के रूप में उभरेगी और समाजवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ेगी।
इसीलिए हमारा मानना है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में RWPI के उम्मीदवारों को मत दिया जाना चाहिए और इसे हर प्रकार का समर्थन दिया जाना चाहिए। हम सभी मज़दूरों और मेहनतकश साथियों, भाइयों और बहनों का आह्वान करते हैं कि आने वाले लोकसभा चुनावों में जहाँ कहीं भी RWPI के उम्मीदवार मौजूद हों, उन्हें वोट दें, समर्थन दें, उसके वॉलण्टियर बनें और उनकी जीत को सुनिश्चित करें।
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अगले अंक में हम ऐतिहासिक तौर पर पूँजीवादी चुनावों में टैक्टिकल भागीदारी की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट कार्यदिशा पर बात करेंगे और दिखलायेंगे कि किस प्रकार मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन व माओ ने इस कार्यदिशा को प्रतिपादित किया था और आज के दौर में उसे किस प्रकार लागू किया जाना चाहिए।
अगले अंक में…
चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट कार्यदिशा क्या है?
चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप की क्रान्तिकारी कार्यदिशा के बारे में महान शिक्षकों के क्या विचार हैं?
निष्कर्ष
मज़दूर बिगुल, मार्च 2019
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन