कपड़ा मज़दूरों की हड़ताल से काँप उठा बांग्लादेश का पूँजीपति वर्ग
पराग वर्मा
नये साल के पहले दो हफ़्तों में बांग्लादेश का कपड़ा औद्योगिक क्षेत्र, जोकि दुनिया के सबसे शोषक औद्योगिक क्षेत्रों में से एक है, कपड़ा मज़दूरों के विरोध प्रदर्शनों से हिल उठा। कपड़ा मज़दूरों की इस ऐतिहासिक हड़ताल का पुलिस द्वारा बर्बर दमन किया जा रहा है। हालाँकि यह लेख लिखे जाते समय कॉर्पोरेट द्वारा ख़रीद लिये गये ट्रेड यूनियनों के बहकावे में और रोजी-रोटी छिन जाने की धमकी से डर के कई मज़दूर फ़ैक्टरी पर लौटना शुरू कर रहे हैं, पर तमाम मज़दूरों ने अभी हार नहीं मानी है और अपनी माँगों को लेकर अड़े हुए हैं और नये मज़दूरों को एकजुट कर रहे हैं।
बांग्लादेशी कपड़ा मज़दूरों के ख़िलाफ़ जिस प्रकार से पुलिस, प्रशासन, नेता और पूँजीपति वर्ग का एकजुट होकर दमन देखने को मिला है वह एशिया में पूँजीवादी वैश्वीकरण के काले चेहरे को उजागर करता है। पिछले एक दशक से जारी वैश्विक आर्थिक मन्दी के चलते कपड़ा उद्योग के मालिकों के बीच मुनाफ़े को बढ़ाने की होड़ और तेज़ हो गयी है। मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए कपड़ा निर्माताओं ने पिछले कई वर्षों में कम से कम लागत में रेडीमेड कपड़ा बनाने के उद्देश्य से बांग्लादेश में कपड़ा बनाने वाली छोटी-बड़ी कम्पनियों की बाढ़ सी लगा दी हैं। बांग्लादेश में ही कपड़ा उद्योग का इस तरह वैश्विक विस्तार होने के पीछे वहाँ का इतिहास है। वहाँ हाथ से कपड़ा बनाने की तकनीकी कुशलता पर्याप्त रूप में मौजूद है। जब कपड़ा मालिक बांग्लादेश आये, तो वहाँ का न्यूनतम वेतन वैश्विक स्तर पर स्थापित कपड़ा मज़दूर के वेतन से बहुत कम था और अन्य देशों में, विशेष रूप से चीन में, कपड़ा मज़दूरों ने उच्च मज़दूरी के लिए सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ते हुए अपना वेतन सापेक्षतः बढ़वा लिया था। यही कारण है कि कपड़ों के बड़े से बड़े वैश्विक ब्राण्डों का उत्पादन बांग्लादेश में होता आया है और अमेरिका, कनाडा और यूरोप के अनेक देशों को बांग्लादेश लगभग 1.9 लाख करोड़ रुपये का रेडीमेड गारमेण्ट निर्यात करता है। ये बड़े-बड़े ब्राण्ड बांग्लादेश में ख़ुद फै़क्टरी लगाने की बजाय स्थानीय फ़ैक्टरियों को उत्पादन का ठेका दे देते हैं और इस प्रकार वे मज़दूरों के काम करने की मानवीय परिस्थिति और उनकी सुरक्षा जैसी जि़म्मेदारियों से पूरी तरह पल्ला झाड़ लेते हैं।
वैसे कपड़ा मज़दूर पिछले पाँच वर्षों से आन्दोलनरत हैं। इसकी शुरुआत 2013 से हुई थी, जब राणा प्लाज़ा इमारत के ढह जाने के कारण उसमें काम करने वाले 1138 मज़दूर मारे गये और 2000 घायल हो गये थे। मज़दूरों की ज़िन्दगी की सुरक्षा पर ध्यान दिये बिना पूँजीपति एक जर्जर इमारत में हज़ारों कपड़ा मज़दूरों से काम करवा रहे थे, जब ये हादसा हुआ। दिल दहला देने वाली इस दर्दनाक दुर्घटना के पीछे पूँजीपतियों के बीच मुनाफ़े के लिए आपसी होड़ ही जि़म्मेदार थी। 2013 में इस घटना के बाद 50 हज़ार कपड़ा मज़दूरों ने प्रदर्शन किया और मज़दूरों ने अपना वेतन बढ़ाने और मज़दूरों की बदहाल ज़िन्दगी सुधारने हेतु कुछ क़दम उठाने की माँग सरकार के सामने रखी थी।
परन्तु मौजूदा हड़ताल में रखी गयी ठोस माँगों की शुरुआत दिसम्बर 2016 की हड़तालों से हुई थी, जब मज़दूरों ने रेडीमेड गारमेण्ट उद्योग का एक बड़ा हिस्सा माने जाने वाले ढाका के पास स्थित आशुलिया और सवर औद्योगिक क्षेत्रों को पूरी तरह बन्द कर दिया था। इस बन्द के दौरान ही न्यूनतम वेतन को 16000 टका कर देने की ठोस माँग रखी गयी थी और आशुलिया और सवर औद्योगिक क्षेत्रों में 10 दिनों के लिए 1.5 लाख मज़दूरों ने लगातार प्रदर्शन किया था। शेख हसीना की आवामी लीग की सरकार ने इस हड़ताल प्रदर्शन को बर्बर ढंग से कुचला था और इसी दौरान लगभग 1600 मज़दूरों को काम से निकाल दिया गया था और लगभग 1500 मज़दूरों पर कुछ बेबुनियाद आरोप लगाकर जेल पहुँचा दिया गया था। नौकरी से निकाल दिये गये मज़दूरों को ब्लैकलिस्ट भी कर दिया गया था, जिससे उन्हें कहीं और भी नौकरी ना मिल सके। नौकरी से पूरी तरह निकाल देने और फ़ैक्टरी पर ताला डाल देने की धमकियों के द्वारा इस मज़दूर आन्दोलन को शान्त कर दिया गया था।
सितम्बर 2018 में जब कपड़ा मज़दूरों ने फिर एकजुट होकर हड़ताल चालू की तो शेख हसीना ने सात स्तरों में बँटे मज़दूरों में से सबसे निचले स्तर के मज़दूरों का न्यूनतम वेतन 8000 टका कर दिया, जबकि माँग 16000 टके की रखी गयी थी। सापेक्षतः बढ़ी वृद्धि केवल दस प्रतिशत निचले स्तर पर कार्यरत मज़दूरों के वेतन में हुई और बाक़ी के 6 स्तरों में काम कर रहे मज़दूरों के वेतन में केवल 500 टके तक की वृद्धि करके छोड़ दिया गया जोकि बेहद कम था। ज़ाहिर सी बात है बेहतर जीवन के लिए 16000 टका के न्यूनतम वेतन की माँग कर रहे मज़दूरों के लिए ये काफ़ी नहीं था और उन्होंने एक बड़े पैमाने पर यही माँग दिसम्बर 2018 में फिर से उठायी। 2018 के अन्त में बांग्लादेश में राष्ट्रीय चुनाव होने थे और कपड़ा मज़दूरों का नेतृत्व कर रही विभिन्न ट्रेड यूनियनों को सरकार ने समझा दिया कि अभी ये प्रदर्शन बन्द कर दें और राष्ट्रीय चुनावों के बाद इस विषय पर बात की जायेगी। ट्रेड यूनियनों के नेताओं ने हड़ताल को बन्द करवा दिया और राष्ट्रीय चुनावों में आवामी लीग की एक बार फिर जीत हुई और शेख हसीना फिर से प्रधानमन्त्री बन गयीं। बताया जाता है कि शेख हसीना ने पूँजीपतियों की ताक़त की मदद से चुनावों में भी बहुत गड़बड़ियाँ कीं और किसी तरह एक विशाल बहुमत जुटाने में कामयाब रहीं।
6 जनवरी 2019 से कपड़ा मज़दूरों ने फिर से न्यूनतम वेतन को 16000 टका कर देने की अपनी माँग को उठाया। आशुलिया इण्डस्ट्रियल बेल्ट की पाँच फ़ैक्टरियों के मज़दूरों ने सड़कों पर उतरकर हाईवे को ब्लॉक कर दिया जिससे अफ़रा-तफ़री मच गयी। प्रशासन ने जवाबी कार्यवाई करते हुए मज़दूरों पर रबर बुलेट दागे और आँसू गैस छोड़ी, जिसमें लगभग 100 मज़दूर घायल हो गये। पुलिस की इस कार्यवाई में एक मज़दूर की जान भी चली गयी। सुमोन मियाँ नामक एक मज़दूर जोकि प्रदर्शन में शामिल भी नहीं था, के सीने में पुलिस की गोली लगी और उसकी जान चली गयी। उसकी लाश को सामने रखके भी जब मज़दूरों ने प्रदर्शन किया तो उसे भी पुलिस ने बड़ी बेरहमी से कुचल दिया। इस सबके बावजूद सवर इण्डस्ट्रियल एस्टेट, आशुलिया, गाज़ीपुर, मीरपुर इत्यादि कई इलाक़ों में लगभग 50 हज़ार मज़दूरों ने मार्च किया और पुलिस की जवाबी कार्यवाही के रूप में रबर बुलेट की गोलियाँ खाईं और पानी के जेट और आँसू गैस से आहत हुए। यही नहीं, सरकार के आदेश से पुलिस ने कुछ मज़दूरों को लक्ष्य बनाके उनके घरों से उन्हें निकालके धमकाया भी और पीटा भी। आन्दोलन को बढ़ते देख शेख हसीना की तानाशाह सरकार ने एक त्रिपक्षीय समिति (सरकार, फ़ैक्टरी मालिक और मज़दूरों की यूनियनों के प्रतिनिधियों को मिलाकर) का गठन कर दिया और इस समिति ने रविवार 13 जनवरी को सबसे निचले स्तर के न्यूनतम वेतन को 8000 टका बरकरार रखते हुए बाक़ी स्तर के मज़दूरों के वेतन में कुछ वृद्धि के आदेश दे दिये। इस वृद्धि के बावजूद भी अधिकांश मज़दूरों का कुल वेतन 16000 टका नहीं हुआ है।
13 जनवरी को दी गयी इस बढ़त को नाकाफ़ी बताते हुए बहुत से मज़दूर उन ट्रेड यूनियन लीडरों से ख़फ़ा हैं जो इस अधूरी माँग पूर्ति के हो जाने के तुरन्त बाद काम पर वापस जाने को कह रहे हैं। वैश्विक कपड़ा उद्योग की सप्लाई चेन श्रृंखला में वैसे भी बांग्लादेश का कपड़ा मज़दूर सबसे कम वेतन पर काम करने वाला मज़दूर है। वैश्विक कपड़ा उत्पादन में हर स्तर पर मुनाफ़ा निचोड़ने की इस पूरी श्रृंखला में सबसे अधिक शोषण बांग्लादेशी मज़दूर का ही होता है। 2013 से लेकर 2018 तक जो न्यूनतम वेतन में वृद्धि कर 8000 टका किया भी गया है, उसकी तुलना अगर पुराने वेतन 5300 टका से करें तो उसमें गारण्टीकृत वेतन के हिस्से के प्रतिशत में कमी आयी है और जो भी बढ़ाया गया है वो भत्ते के रूप में बढ़ाया गया है जिसे कभी भी मौक़े के हिसाब से पूँजीपति वापस छीन सकते हैं। बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था कपड़े के उद्योग पर टिकी है और बांग्लादेश का 80 प्रतिशत निर्यात कपड़ा उद्योग से होता है। 2 लाख करोड़ की विदेशी मुद्रा लाने वाले इस उद्योग के कारण बांग्लादेश दुनिया में कपड़े का निर्यात करने वाला चीन के बाद दूसरे नम्बर का देश है। बांग्लादेश के कपड़ा उद्योग में लगभग 45 लाख मज़दूर काम करते हैं और विश्व पूँजी के जूनियर पार्टनर के रूप में काम करते बांग्लादेशी पूँजीपतियों और उनके हितों में काम करती आवामी लीग की सरकार को ये डर ज़रूर है कि ये आन्दोलन कहीं एक व्यापक मज़दूर आन्दोलन बनके उनके वर्चस्व को चुनौती ना दे दे, इसलिए पूरी सरकारी मशीनरी जैसे पुलिस, कॉर्पोरेट कम्पनियों और ट्रेड यूनियनों को साथ में मिलाकर इसे दबाने की कोशिश की गयी है। क्यूँकि कपड़ा उद्योग बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है, पूँजीपतियों और सरकार मिलकर मज़दूरों के वेतन को इसलिए कम रखना चाहती हैं क्यूँकि अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार की ट्रेड श्रृंखला में उनका मुनाफ़े में हिस्सा है और वो अपना हिस्सा कम नहीं होने देना चाहती हैं। यही कारण है कि कम्पनी प्रशासन और पुलिस ने सभी हथकण्डे अपनाये हैं और मज़दूरों को कई प्रकार से डराया और धमकाया गया है और ट्रेड यूनियनों के इस्तेमाल से इस पूरे मज़दूर आन्दोलन को बाँटने की कोशिश की गयी है। ट्रेड यूनियन एक्ट में बदलाव करके ट्रेड यूनियन बनाने के लिए न्यूनतम मज़दूरों की संख्या को 30 प्रतिशत से 20 प्रतिशत कर दिया गया है जिसके कारण बहुत से ट्रेड यूनियनें बन गयी हैं और इनमें से कई पूँजीपतियों और सरकार के हाथ की कठपुतली हैं, जो मज़दूरों के इस व्यापक आन्दोलन को अन्दर से खोखला करने का काम कर रहे हैं।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि वॉलमार्ट, टेस्को, गैप, जेसी पेनी, एच एण्ड एम, इण्डिटेक्स, सी एण्ड ए और एम एण्ड एस जैसे विश्व में बड़े-बड़े ब्राण्डों के जो कपड़े बिकते हैं और जिनके दम पर पूरी फै़शन इण्डस्ट्री चल रही है, उस पूरी सप्लाई श्रृंखला के मुनाफ़े का स्रोत बांग्लादेश के मज़दूर द्वारा किये गये श्रम का ज़बरदस्त शोषण ही है। सरकारें और देशी पूँजीपति मुनाफ़ा निचोड़ने की इस श्रृंखला का ही हिस्सा हैं और इसलिए पुरज़ोर कोशिश करते हैं जिससे कम से कम वेतन बना रहे और उनका शासन चलता रहे। पुलिस, सरकार, ट्रेड यूनियनों के कुछ हिस्सों और पूँजीपतियों का एक होकर मज़दूरों को यथास्थिति में बनाये रखने की कोशिश करना साफ़ दर्शाता है कि ये सभी मज़दूर विरोधी ताक़तें हैं।
वेतन में दी गयी इस छुटपुट बढ़ोत्तरी से ज़्यादातर मज़दूर नाख़ुश हैं। उनका कहना है कि पिछले पाँच वर्षों में जिस प्रकार से जीवनयापन की लागत बढ़ी है, उसको देखते हुए वेतन में हुई ये बढ़ोत्तरी किसी काम की नहीं। कपड़ा कम्पनियाँ तगड़ा मुनाफ़ा कमाती हैं और पूरी ज़िन्दगी फ़ैक्टरी के फ़्लोर पर कपड़ा सिलते इन मज़दूरों को न्यूनतम से भी न्यूनतम आय पे रखने की कोशिश करती हैं। एक सर्वे के द्वारा पता चला कि कपड़ा मज़दूर की औसत आय उसके परिवार के 49 प्रतिशत ख़र्चों को ही पूरा कर पाती है। पिछले पाँच सालों में बांग्लादेश के कपड़ा मज़दूरों के परिवारों के जीवन का स्तर बहुत कम होता गया है। एक अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि मज़दूरों के बच्चों की जन्म दर में भारी गिरावट आयी है। 47 प्रतिशत शादीशुदा मज़दूरों का एक बच्चा है और 28 प्रतिशत के एक भी बच्चा नहीं है। ऐसा उनके पारिवारिक जीवन के स्तर में गिरावट के कारण ही हुआ है। उनके सामाजिक जीवन और काम करने की परिस्थितियों की कठोरता और ख़तरे का अन्दाज़ा तो वहाँ आये दिन होने वाली फ़ैक्टरी दुर्घटनाओं से भी हो जाता है। चाहे वो 2012 में तज़रें फ़ैक्टरी में आग लगने वाला घटनाक्रम हो या 2013 का राणा प्लाज़ा की बिल्डिंग का ढहना हो, सभी यही बताते हैं कि पूँजीपति वर्ग के लिए अपने मुनाफ़े के आगे कपड़ा मज़दूरों के जान की कोई क़ीमत नहीं है। पूँजीपति वर्ग किसी भी क़ीमत पर मज़दूरों को एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए ज़रूरी 16000 टके के न्यूनतम वेतन की माँग पूरी करने के लिए तैयार नहीं है।
इस पूरी हड़ताल के दौरान हुई एकजुटता से एक बात तो साफ़ दिखायी पड़ रही है कि चाहे पूँजीपति वर्ग, उसकी सरकार और बिकाऊ ट्रेड यूनियनें कितनी भी कोशिशें कर लें, सड़ते पूँजीवाद से उपजती मज़दूरों की भौतिक परिस्थितियाँ उन्हें उनके शोषण से अवगत कराती जाती हैं और एक दिन वो एकजुट होकर अन्तरराष्ट्रीय पूँजी के पूरे ढाँचे को चुनौती दे सकता है। जब मज़दूर वर्ग की एकजुटता इस तरह एक सेक्टर में हुई हड़तालों के माध्यम से पूँजीपतियों को उनकी कुर्सी के लिए इस कदर चिन्तित कर सकता है तो वह बेशक एक दिन इससे आगे बढ़कर पूँजीपतियों को सत्ता की इस कुर्सी से गिरा भी सकता है और मज़दूर वर्ग की सत्ता स्थापित कर सकता है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019
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