महेश्वर की कविता : वे
वे
जब विकास की बात करते हैं
तबाही के दरवाजे़ पर
बजने लगती है शहनाई
वे
कहते हैं – एकजुटता
और गाँव के सीवान से
मुल्क की सरहदों तक
उग आते हैं काँटेदार बाड़े
वे
छुपाने के उस्ताद हैं
मगर खोलने की बात करते हैं
वे
मिटा देते हैं फ़र्क
गुमनाम हत्याओं और
राजनीतिक प्रक्रियाओं
के बीच
उनके लिए
धर्म एक धन्धा है और सहिष्णुता – हथकंडा
वे
राशन-दुकान की लम्बी लाइन में चिपके
आदमी के हाथ
बेच देते हैं
आदमी के सबसे हसीन सपने
और कहते हैं
कि दुनिया बदल रही है – धीरे-धीरे
वे
बदलाव के गीत गाते हैं
और
अच्छे भरे-पूरे दिन
रातों-रात बन जाते हैं
टूटी दीवारों पर फड़फड़ाते इश्तिहार
वे
चाहें तो सूरज को पिघला कर
बना दें – निरा पानी
वे चाहें तो चाँद के धब्बे
हो जायें – और गहरे
वे
चाहें तो तारों को बना दें डॉलर
और ख़रीद लें दुबारा
अपनी बेची हुई अस्मिता
अपनी चाहत में वे हैं –
सर्वशक्तिमान
मगर उनका ज़ोर चलता है
कमज़ोरों पर –
यानी, उस पर
जो ऐन वक़्त पर
आदमी होने के बजाय
साबित होते हैं –
भेड़िए के मुँह में मेमना!
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