हरियाणा में नगर परिषद, नगर निगम, नगर पालिका के कर्मचारियों की हड़ताल समाप्त
सबक क्या निकला?
बिगुल संवाददाता
ज्ञात हो हरियाणा की नगरपालिकाओं-नगरनिगमों और नगरपरिषदों में क़रीबन 30-32 हज़ार कर्मचारी पिछले दिनों हड़ताल पर थे। कर्मचारियों की हड़ताल अपने 16वें दिन सरकार के साथ हुए समझोते के बाद समाप्त हो गयी। हड़ताल पर गये कर्मचारियों में पक्के कर्मचारियों की संख्या बेहद कम है ज़्यादातर कच्चे, डीसी रेट पर, ऐड हॉक पर तथा ठेके पर हैं। ये कर्मचारी विभिन्न प्रकार के कामों को सम्हालते हैं। इनमें विभिन्न तरह के कर्मचारी हैं जैसे सफ़ाईकर्मी, माली, लिपिक, बेलदार, चौकीदार, चपड़ासी, अग्निशमन सम्हालने वाले, स्वास्थ्यकर्मी, इलैक्ट्रिशियन, ऑपरेटर इत्यादि। कर्मचारी ज़्यादा कुछ नहीं माँग रहे थे उनकी माँग बस यही है कि हरियाणा की भाजपा सरकार ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कर्मचारियों के लिए जो वायदे किये थे उन्हें वह पूरे कर दे।
भाजपा एक तरफ़ स्वदेशी का राग अलापती नहीं थकती दूसरी और सफ़ाई तक का ठेका विदेशी कम्पनियों को दे रही है। ये कम्पनियाँ देसी ठेकेदारों से सांठ-गाँठ करके न केवल कर्मचारियों का मनमाना शोषण करती हैं बल्कि नागरिकों से भी मनमाने पैसे ऐंठती हैं। स्मार्ट सिटी विकसित करने का कार्यक्रम भी पूरी तरह से हर चीज़ को बिकाऊ माल में तब्दील करने का कार्यक्रम है। हरियाणा के नगरपालिका, नगरपरिषदों और नगरनिगमों के तहत यानी प्रदेश के 80 शहरों और 6,754 गाँवों में क़रीबन 25 हज़ार सफ़ाई कर्मचारी काम करते हैं। हरियाणा की ढाई करोड़ आबादी के लिहाज़ से आबादी के अनुपात में 62 हज़ार सफ़ाई कर्मचारी होने चाहिए। सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के ढोंग की असलियत यहीं पर जनता के सामने आ जाती है। साफ़-सुथरी जगह पर झाड़ू लेकर फ़ोटो खिंचा लेना एक बात है और हर रोज़ गन्दगी, बदबू, सड़ान्ध से जूझ रहे कर्मचारियों को मूलभूत सुविधाएँ देना दूसरी बात है। बिना दस्तानों, मास्क, बूट, सुरक्षा उपकरणों के चलते कितने ही कर्मचारी बीमारी का शिकार होते हैं तथा बिना पर्याप्त सुरक्षा उपकरणों के कितने ही जहरीली गैस के कारण अपनी जान से ही हाथ धो बैठते हैं।
हड़ताल का नेतृत्व नगरपालिका कर्मचारी संघ, हरियाणा ने किया था जोकि जोकि सर्व कर्मचारी संघ, हरियाणा से सम्बन्ध रखता है। 16 दिन की हड़ताल का कुल परिणाम यह निकला की कर्मचारियों की तनख्वाह 11,700 से बढ़ाकर 13,500 कर दी गयी है। पक्का करने की माँग, ठेका प्रथा ख़त्म करने की माँग और समान काम का समान वेतन देनें की माँग पर सरकार ने वही पुराना कमेटी बैठने का झुनझुना कर्मचारी नेताओं को थमा दिया जिसे लेकर वे अपने-अपने घर आ गये। इस चीज़ में कोई दोराय नहीं है कि फ़िलहाली तौर पर मिल रहे संघर्षों के हासिल को अपने पास रख लिया जाये और आगे के संघर्षों की तैयारी की जाये। किन्तु फ़िलहाल और लम्बे समय से देश सहित हरियाणा प्रदेश में भी मज़दूर-कर्मचारी आन्दोलनों में अर्थवाद पूरी तरह से हावी है। रोहतक हड़ताल स्थल पर जब बिगुल संवाददता ने अपनी बात में विस्तार से पूँजीवाद, मज़दूरी की व्यवस्था, इसकी ऐतिहासक नियति पर बात साझा की तो अगले दिन पर्याप्त समय होने और श्रोताओं में बात सुनने के प्रति उत्सुकता होने के बावजूद भी मंच संचालक महोदय ने उनसे कहा कि मुद्दे से जुड़ी बात ही कीजियेगा!
कहना नहीं होगा कि संशोधनवादी पार्टियों की घुसपैठ कर्मचारी यूनियनों और संगठनों में हावी है जो आन्दोलनों के जुझारू तेवरों को दीमक की तरह चाट जाती है। दुवन्नी-चवन्नी बढ़वाने की लड़ाई से संघर्ष आगे ही नहीं बढ़ते हैं। हम यह नहीं कहते कि आज ही राज्यसत्ता पर कब्जे के संघर्ष संगठित किये जायें किन्तु आज से ही मज़दूरों में राजनीतिक चेतना का प्रचार और विकास नहीं किया गया तो आने वाले समय के आन्दोलन भी बिना राजनीतिक चेतना के कुपोषण के शिकार होंगे। परन्तु संशोधनवादियों का सारा जोर ही आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ने, 20 और 30 प्रतिशत की दलाली हासिल करने, सदस्यताओं का चन्दा वसूल करने पर होता है। हमारा यह स्पष्ट मानना है कि आर्थिक संघर्ष भले ही आवश्यक हैं किन्तु मात्र उनसे काम नहीं चल सकता। पूँजीवादी व्यवस्था के चरित्र, कार्य प्रणाली का भी मज़दूरों को ज्ञान होना चाहिए। समाज बदलाव के नियमों का भी उन्हें भेद होना चाहिए। बिना वर्ग सचेत हुए न केवल आज के आर्थिक संघर्षों को जुझारू तरीके से लड़ा जा सकता है बल्कि आगामी संघर्षों को भी राजनीतिक सत्ता व्यवस्था को बदलने की तरफ़ यानि क्रान्ति की तरफ़ विकसित नहीं किया जा सकता। मज़दूरों के शोषण पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था के तहत रहते हुए मज़दूरों का कोई भला नहीं है। इसलिए व्यवस्था परिवर्तन के विचार मज़दूर वर्ग के बीच ले जाने बेहद ज़रूरी हैं। मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने हड़ताल को मज़दूर वर्ग की प्राथमिक पाठशाला की संज्ञा दी है। इस दौरान मज़दूर मालिक, श्रम विभाग, चुनावी पार्टियों, राज्य, पुलिस, संविधान और पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के चरित्र को समझने की सबसे माकूल स्थिति में होते हैं। किन्तु यह अफसोसजनक बात है कि अर्थवाद और संशोधनवाद मज़दूर आन्दोलनों को खासा नुकसान पहुँचा रहे हैं। इन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष की आवश्यकता है। आगे हम विस्तार से हरियाणा के मज़दूर और कर्मचारियों के संघर्षों, इनकी प्रवृत्तियों, दिशा, सम्भावनाओं, चुनौतियों पर विस्तार से लिखेंगें।
मज़दूर बिगुल, जून 2018
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन