विश्व बैंक की आँखों में चुभते श्रम-क़ानून
सवजीत
इतिहास के रंगमंच पर जब से मज़दूर वर्ग की भूमिका का आगाज़ हुआ है, यह निरन्तर बुर्जुआ वर्ग के साथ एक संघर्ष में जुटी रही है। इस संघर्ष में अपनी एकता के बल पर छोटी-बडी लड़ाइयों में जीत हासिल करते हुए मज़दूर वर्ग ने कई बेहद महत्वपूर्ण अधिकार क़ानूनों की आड़ में पूँजीपति वर्ग से हासिल कर लिये। जिसमें आठ घण्टे का कार्य दिवस, यूनियन खड़ी करने का अधिकार, स्वास्थ्य और दुर्घटना बीमा जैसे कई और क़ानून भी गिने जा सकते हैं। अतीत में जब विश्व मज़दूर वर्ग का आन्दोलन अपने चरम पर था, तब ऐसे कई क़ानून न केवल लागू करवाये गये बल्कि पूरी सतर्कता के साथ इनकी निगरानी भी की गयी। लेकिन पूँजीपति वर्ग की आँखों में मज़दूरों के ये जायज़ अधिकार हरदम चुभते रहे और इनको ख़त्म करने की उनकी कोशिशें लगातार जारी रहीं। उनकी आँखों की इस चुभन की रंगत विश्व बैंक की इस वर्ष की विश्व विकास रिपोर्ट (वर्ल्ड डिवेलपमेण्ट रिपोर्ट) के जारी किये गये मसौदे में साफ़़ देखी जा सकती है।
अभी हाल ही में जारी किये गये इस मसौदे में विश्व बैंक ने पूँजीपति वर्ग को इन “पुराने पड़ चुके श्रम क़ानूनों” से मुक्त करने की दुहाई दी है और मज़दूरों की सुरक्षा को लेकर “गहरी चिन्ता” व्यक्त की है। इस रिपोर्ट में विश्व की सभी सरकारों को एक नयी व्यवस्था अपनाने का आह्वान किया है, जिसमें न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा जैसी धारणाओं को ख़त्म करके यूनिवर्सल बेसिक इनकम (व्यापक मूलभूत आमदनी), सामाजिक बीमा (सामाजिक सुरक्षा नहीं) व वेतन को उत्पादकता के साथ जोड़ने जैसी मज़दूर विरोधी और पूँजीपति वर्ग के पक्ष में झुकने वाली धारणाओं को आगे लाने को कहा गया है। और साथ ही “औपनिवेशिक दौर के पुराने पड़ चुके श्रम क़ानूनों” को भी ख़त्म करने पर ज़ोर दिया है।
न्यूनतम वेतन अथवा सामाजिक सुरक्षा से सम्बन्धित क़ानूनों के तहत पूँजीपतियों को मज़दूरों की आमदनी और जीवन-परिस्थिति को सुधारने के लिए मज़बूर किया गया था। विश्व बैंक का यह मानना है कि इन क़ानूनों से पूँजीपतियों के मुनाफ़़े “कम” होते हैं और कारोबार करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसलिए पूँजीपतियों को इस जंजाल से मुक्ति दिलाने के लिए न्यूनतम वेतन को ख़त्म कर यूनिवर्सल बेसिक इनकम और सामाजिक सुरक्षा की बजाय सामाजिक बीमे की ओर आगे बढ़ने के लिए विकसित और ख़ासकर भारत जैसे विकासशील देशों की सरकारों को कुछ दिशा-निर्देश दिये हैं। विश्व बैंक पहले भी क़दम-क़दम पर विकासशील देशों को निजीकरण और उदारीकरण की नीतियाँ लागू करने और श्रम क़ानूनों को कमज़ोर करने या ख़त्म करने जैसे निर्देश देता रहा है। हमारे देश में पिछले कई सालों से इन आदेशों के पालन का काम अपनी चरम गति से चल रहा है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, मज़दूरों के अधिकारों पर डाका डालने और श्रम क़ानूनों को कमज़ोर करने या भंग करने व अपने मालिकों को ख़ुश करने में किसी ने भी कोई क़सर नहीं छोड़ी। कांग्रेस पार्टी के मनमोहन सिंह के वित्त मन्त्री और फिर प्रधानमन्त्री रहते हुए शुरू किये गये हमले भाजपा की सरकार ने और भी आक्रामक रूप से आगे बढ़ाये हैं।
यूनिवर्सल बेसिक इनकम और सामाजिक बीमे की इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए बड़े स्तर पर नागरिकों के निजी और वित्तीय डाटा की ज़रूरत होगी, जिसकी मदद से आबादी की पहचान करना और सही अथवा अपेक्षित आबादी को टार्गेट करना आसान बनाया जा सके। यही वजह है कि यूपीए सरकार के प्रिय प्रोजेक्ट ‘आधार कार्ड’ का “पूर्ण विरोध” जताने वाली भाजपा सरकार भी सत्ता में आते ही इस प्रोजेक्ट की जड़ें दूर-दूर तक फैलाने में जी-जान से जुटी है। लगातार बार-बार जिस ‘डिजिटल या कैशलेस लेनदेन’ का प्रचार किया जा रहा है, उसको भी इसी सिलसिले की एक कड़ी के तौर पर देखा जाना चाहिए।
सीधे शब्दों में कहना हो तो कहा जा सकता है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम व सामाजिक बीमे की इस धारणा का अर्थ है मज़दूरों के वेतन और सुरक्षा का दायित्व पूँजीपतियों के कन्धों से उतार कर ख़ुद मज़दूरों के िसर ही डाल दिया जाये और पूँजीपतियों को श्रम का ख़ून चूसने, आम मेहनतकश लोगों द्वारा भरे गये करों को लूटकर मुनाफ़़ा (जो कि सार्वजनिक न होकर नंगे रूप में पूर्णतया निजी होता है) दोहने की खुली छूट दे दी जाये। विश्व विकास रिपोर्ट के मसौदों में यह बात साफ़़तौर से दिखायी देती है कि वेतन और सामाजिक सुरक्षा का दायित्व सरकारें आम जनता से वसूल किये गये करों के दम पर निभायें। मज़दूरों के स्वास्थ्य और दुर्घटना के बीमे आदि (फिर चाहे वह सब्सिडी के रूप में ही क्यों न देने पड़ें) का भुगतान राजकीय कोष से किया जाये, न कि पूँजीपतियों की जेब से। इन नीतियों को लागू करने में रुकावट बनने वाले श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने का काम और तेज़़ किया जायेगा। भारत सरकार पहले ही इस दिशा में अपने क़दम उठा चुकी है, श्रम क़ानूनों में सुधार करने के नाम पर नये ‘श्रम कोड’ बनाये जा चुके हैं (इस काम के लिए विश्व बैंक की इस रिपोर्ट में भारत सरकार की तारीफ़ भी की गयी है।) और इनको लागू करवाने के लिए प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है।
इन परिस्थितियों में नाेम चोमस्की का यह उद्धरण कितना प्रासंगिक है : “आधुनिक राजकीय पूँजीवाद का यह एक मूलभूत सिद्धान्त है कि ख़र्च और जोख़िम का, जहाँ तक सम्भव हो समाजीकरण रहा है, जबकि मुनाफ़़े का निजीकरण।”
मज़दूर बिगुल, जून 2018
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन