आँधी-तूफ़ान से हुई जानमाल की भयंकर क्षति
प्रकृति को जि़म्मेदार ठहराकर यह व्यवस्था अपने निकम्मेपन को नहीं छुपा सकती
आनन्द सिंह
वैसे तो हर साल मई के महीने में देश के विभिन्न इलाक़ों में धूल भरी आँधी, तूफ़ान, बिजली गिरने और ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक परिघटनाएँ देखने को आती हैं, लेकिन इस बार उनकी तीव्रता और भयावहता कुछ ज़्यादा ही थी। 2 मई को आयी आँधी में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखण्ड, तेलंगाना में एक दिन में ही 134 लोगों की मौत हो गयी और 400 से ज़्यादा लोग घायल हो गये। 80 से ज़्यादा मौतें तो अकेले उत्तर प्रदेश में हुईं। उसके बाद 13 मई को आयी आँधी में एक बार फिर तबाही का मंजर देखने को आया, जब पूरे देश में 60 लोग मारे गये। अख़बारों और मीडिया चैनलों पर इसकी कवरेज बहुत निराशाजनक रही। ज़्यादातर मीडिया समूहों ने बहुत कम कवरेज की और जहाँ कवरेज हुई भी उसमें इन आपदाओं के लिए क़ुदरत को ही जि़म्मेदार ठहराया गया। ऊपरी तौर पर देखने पर ये आपदाएँ वाक़ई क़ुदरत का क़हर लगती हैं जिन पर इंसान का कोई वश नहीं है। लेकिन जब हम उनकी तफ़सीलों में जाते हैं, तो पाते हैं कि ये प्राकृतिक परिघटनाएँ ऐसी कुछ ख़ास परिस्थितियों में ही विनाशकारी साबित होती हैं, जिन पर निश्चय ही मनुष्य का नियन्त्रण है।
पर्यावरणविद ज़ोर देकर कहते हैं कि आँधी, तूफ़ान, सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक परिघटनाओं की तीव्रता और भयावहता में वृद्धि सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हुई है। जलवायु परिवर्तन के लिए मुनाफ़े पर आधारित मौजूदा पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली जि़म्मेदार है जिसके तहत हुए अनियोजित औद्योगिक विकास और जंगलों को अन्धाधुँध काटने की वजह से पारिस्थितिक असन्तुलन बढ़ता जा रहा है जिसकी परिणति प्राकृतिक आपदाओं की भयावहता और बारम्बारता के बढ़ने के रूप में होती है। मुनाफ़े की हवस में बड़े पैमाने पर जंगल के काटने और पूँजीवाद खेती-बाड़ी की वजह से मृदा क्षरण बहुत तेज़ी से होता है जो आँधी-तूफ़ान की भयावहता को कई गुना बढ़ा देता है, क्योंकि मृदा क्षरण की वजह से मिट्टी धरती से चिपके रहने की बजाय धूल बनकर उड़ जाती है। इसके अतिरिक्त शहरों में कूड़े-करकट का अम्बार खुले में फैला रहता है जिसकी वजह से आँधी के साथ-साथ धूल और ज़हरीले कण फि़ज़ाओं में फैल जाते हैं।
आँधी-तूफ़ान अपने आप में जानलेवा नहीं होते। आँधी-तूफ़ान में जान गँवाने वाले ज़्यादातर लोग किसी इमारत, घर या दीवार के ढहने से या फिर पेड़ के गिरने से मरते हैं। इस बार की आँधी में भी ज़्यादा मौतें उन लोगों की हुईं जिनके घर कच्चे थे। कुछ लोग बिजली के टूटे तार के करेण्ट से भी मरते हैं। बिजली गिरने से मरने वाले लोग भी ज़्यादातर इसलिए मरते हैं क्योंकि वे उस समय पानी भरे खेतों में काम कर रहे होते हैं। प्राकृतिक परिघटनाओं पर भले ही मनुष्य का नियन्त्रण न हो परन्तु उन परिस्थितियों पर निश्चय ही मनुष्य का नियन्त्रण है जो इन मौतों का प्रत्यक्ष कारण होती हैं। आज सिविल इंजीनियरिंग इतनी उन्नत हो चुकी है कि आँधी-तूफ़ान-बिजली गिरने या भूकम्प आदि जैसे ख़तरों से दीवारों, घरों और इमारतों को सुरक्षा को ध्यान में रखकर बनाया जाये तो निश्चीय ही ऐसी मौतों की सम्भावना को काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है। इसी तरह से अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद मौसम विज्ञान इतनी तरक़्क़ी तो कर ही चुका है कि आँधी-तूफ़ान-तेज़ बारिश का मोटा-मोटी पूर्वानुमान लगाया जा सके। संचार व्यवस्था भी इतनी उन्नत हो चुकी है कि ऐसे पूर्वानुमानों पर आधारित सूचनाएँ समाज के प्रत्येक सदस्य तक पहुँचाई जा सकती हैं, ताकि कोई भी ऐसे समय बाहर न निकले, जब कोई आपदा आने वाली हो।
लेकिन सोचने वाली बात है कि विज्ञान-प्रौद्योगिकी में इतनी उन्नति के बावजूद आज भी इतने सारे लोग आपदाओं की चपेट में क्यों आ जाते हैं? इस बार मौसम विभाग ने उत्तर भारत में भयंकर आँधी-तूफ़ान आने का अन्देशा जताया था। लेकिन फिर भी तमाम सरकारों ने जानमाल को होने वाले नुक़सान को रोकने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाये। उत्तर प्रदेश, जहाँ सबसे ज़्यादा मौतें हुईं, के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ तो आपदा प्रबन्धन की निगरानी करने की बजाय कर्नाटक के चुनाव प्रचार में मशगूल थे। वैसे भी हमारे देश में आपदा प्रबन्धन इतना लचर है कि यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वह अपने आप में एक आपदा है। अगर मौसम विभाग के पूर्वानुमानों के आधार पर लोगों को पहले से ही सतर्क करने के इन्तज़ाम किये जायें और आपदा आने के पहले से ही आपदा प्रबन्धन की मशीनरी सतर्क रहे तो आपदा से होने वाले नुक़सान को विचारणीय स्तर पर कम किया जा सकता है।
ऊपर हमने देखा कि आपदा प्रबन्धन अगर बेहतर ढंग से किया जाये तो आपदाओं से होने वाले जानमाल को कम किया जा सकता है। लेकिन अगर आपदा प्रबन्धन के अलावा भी मौजूदा व्यवस्था के ढाँचे में ऐसे तमाम कारक हैं जिनकी वजह से आपदाओं के दौरान आम ग़रीब आबादी की ज़िन्दगी पर ख़तरा बरकरार रहेगा। इसकी वजह समाज का ऐसा असमानतापूर्ण ढाँचा है जिसके तहत उत्पादन के साधनों और तमाम प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व समाज के मुट्ठी-भर लोगों के पास केन्द्रित है। ऐसे ढाँचे में विज्ञान-प्रौद्योगिकी की चमत्कारिक प्रगति के लाभ का बँटवारा भी असमानतपूर्ण होता है। यह महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि आँधी-तूफ़ान-बिजली आदि का क़हर सबसे ज़्यादा समाज के ग़रीब और मेहनतकश तबके़ पर बपरता है। ग़रीबों-मेहनकशों के घर ऐसी आपदाओं को झेल पाने में समर्थ नहीं होते हैं और उन तक ऐसी आपदाओं की सूचना भी सही समय से पहुँच नहीं पाती। ऐसे अन्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के बरकरार रहने से ही सामान्य से सामान्य प्राकृतिक परिघटनाएँ भी एक आपदा का रूप ले लेती हैं। मुनाफ़ा कमाने के लिए कारख़ानों के अन्दर तो ख़ूब योजनाएँ बनायी जाती हैं, परन्तु पूरे समाज के स्तर पर घोर अराजकता छाई रहती है। भ्रष्ट और निठल्ला प्रशासन तन्त्र आग में घी डालने का काम करता है। इन सभी का संयुक्त प्रभाव आपदा की भयावहता को कई गुना बढ़ा देता है। ऐसी आपदाओं के प्रभाव को विचारणीय स्तर तक कम करने के लिए समूचे समाज के स्तर पर योजनाबद्ध विकास की दरकार है। परन्तु उसके लिए मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को आमूलचूल ढंग से बदलना होगा।
मज़दूर बिगुल, मई 2018
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