वाराणसी में फ्लाईओवर गिरने से कम से कम 20 लोगों की मौत
यह कोई हादसा नहीं, क्रूर हत्या है जिसके अपराधियों को बचाने के लिए सरकार मुस्तैद है

अविनाश

बनारस में निर्माणाधीन पुल के दो बीम गिरने से कम से कम बीस लोग मौत के शिकार हो गये। हालाँकि स्थानीय लोगों के अनुसार मरने वालों की संख्या इससे कहीं अधिक थी। हर घटना की तरह इस घटना में भी असली वजह को लापरवाही या हादसा जैसे शब्दों की आड़ में छिपाया जा रहा है। मगर वास्तव में यह लापरवाही नहीं बल्कि एक अापराधिक कृत्य है। इसके पहले भी सरकार, अफ़सरों व ठेकेदारों का गँठजोड़, क़ानूनी-गैरक़ानूनी तौर-तरीक़ों के ज़रिये पैसे कमाने की हवस सैकड़ो लोगो की ज़िन्दगियाँ निगल चुकी है। इस भयानक घटना के बाद बेशर्मी की हद यह है कि मृतकों की संख्या को बहुत कम करके दिखाया जा रहा है। सरकार व मीडिया के मुताबिक़ केवल 20 लोगो की मौत हुई है तथा 30 से ज़्यादा लोग घायल हुए हैं, जबकि मरने वालो की संख्या इससे कई गुना ज़्यादा है। इसका अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस समय यह घटना हुई, उस समय वहाँ कार्यरत मज़दूरों के अलावा भारी ट्रैफि़क भी था। कंक्रीट की बीम के नीचे एक बस, कई जीप, कार तथा ऑटो और दो पहिया वाहन घण्टों दबे रहे।

प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में भारी असन्तोष के दबाव में सरकार ने इस आपराधिक कृत्य की रिपोर्ट  तो लिखवाई लेकिन ”अज्ञात ठेकेदार” के नाम से। जबकि सभी जानते हैं कि ठेके में मंत्री नितिन गडकरी की फ़र्म ‘गडकरी सन्स’ भी शामिल थी।

वस्तुतः इन घटनाओं की आम वजह सरकार, अफ़सरों और ठेकेदार की लूट की हवस है। तमाम सूत्रों से पता चला कि सेतु निगम ने इस पुल का काम मन्त्रियों के क़रीबियों को बाँटा जिस पर 14% कमीशन लिया गया। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि सेतु निगम (यही संस्था इस पुल का निर्माण कर रही है) के प्रबन्ध निदेशक राजन मित्तल का इस हादसे के बाद बयान आया कि पुल आँधी की वजह से गिरा। यह वही व्यक्ति है जिस पर पहले भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं, और इसके खि़लाफ़ जाँच के आदेश भी हुए हैं। लेकिन भाजपा सरकार ने न सिर्फ़ इस आदमी को सेतु निगम का अध्यक्ष बनाया, बल्कि इसे उत्तर प्रदेश निर्माण निगम का अतिरिक्त भार भी सौंप दिया। इतना ही नहीं, हादसे के बाद गिरे हुए कंक्रीट के बीम को उठाने के लिए सेतु निगम ने कम्प्रेशर क्रेन तक उपलब्ध नहीं करवायी, जिस वजह से बचाव का काम बहुत देर से शुरू हो पाया और इसी वजह से कई जानें जो बच सकती थी, वे नहीं बचायी जा सकीं।

इस घटना की दूसरी वजह 2019 के लिए भाजपा द्वारा की जा रही चुनावी तैयारी के दबाव में तमाम साइटों पर की जाने वाली जल्दबाज़ी व लापरवाहियाँ हैं। सेतु निगम के एक अधिकारी ने सार्वजनिक बयान दिया कि निर्धारित समय पर काम पूरा करने का दबाव है।

इलाहाबाद में भी चार फ़्लाईओवर बनाये जा रहे हैं, जहाँ पर सुरक्षा मानकों पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऊपर से केन्द्र और राज्य में बैठी भाजपा सरकार भी दबाव बना रही है कि किसी भी हालत में ब्रिज निर्माण के काम को साल के अन्त तक पूरा कर लिया जाये, ताकि कुम्भ मेले में आये लोगों को इलाहाबाद की चकाचौंध दिखाकर 2019 के आम चुनाव के लिए वोट बैंक तैयार किया जा सके। लेकिन अभी निर्माणस्थल को देखकर यही लगता है कि कम से कम डेढ़-दो साल ज़रूर लगेगा। अब अगर काम की गति बहुत अधिक बढ़ाई जायेगी तो ग़लतियाँ तो होंगी ही और इसकी भरपाई इन जगहों पर कम करने वाले मज़दूर और आम जनता अपनी ज़िन्दगी खोकर पूरा करेगी।

नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया के सेफ़्टी मैन्युअल में इस बात का साफ़ तौर पर जि़क्र है कि जहाँ कहीं भी इस तरह के निर्माण-कार्य होते हैं, वहाँ ट्रैफि़क के लिए डाइवर्ट रूट का इन्तज़ाम किया जाता है और आस-पास बैरीकेडिंग की जाती है और ट्रैफि़क को पूरी तरह से रोक दिया जाता है। और अगर दिन में ट्रैफि़क को नहीं रोका जा सकता है, तो निर्माण-कार्य रात के समय कराया जाना चाहिए। निर्माण-स्थल पर मज़दूरों, कारीगरों, इंजीनियर और अफ़सरों के अलावा किसी को जाने की इज़ाज़त नहीं होती है, लेकिन बनारस में मामला ठीक इसके उलट था, कंस्ट्रक्शन के समय भी वहाँ पर ट्रैफि़क नहीं रोका गया था और सुरक्षा का भी कोई इन्तज़ाम नहीं था।

भाजपाइयों के लग्गू-भग्गू व संघी भक्तों के अलावा बिकाऊ मीडिया और नेता बेशर्मी भरे बयान दे रहे हैं। उदाहरण के लिए दैनिक जागरण अख़बार ने एक ख़बर छापी थी, जिसमें इस घटना के लिए ग्रहों को ज़िम्मेदार ठहराया था और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर ने इस घटना की वजह विश्वनाथ मन्दिर कोरिडोर में टूटे विनायक मन्दिरों का श्राप बताया। दूसरी तरफ मोदी और योगी कर्नाटक में विधायकों के ख़रीद-फ़रोख्त में इतने व्यस्त हैं कि घड़ियाली आँसू बहाने का भी समय नहीं निकाल पा रहे हैं।

गर्डर गिरने की घटनाएँ अब आम होती चली जा रही हैं। कुछ दिन पहले इलाहाबाद के रामबाग़ के इलाक़े में निर्माणाधीन पुल में इस्तेमाल लोहे की गर्डर गिर गयी लेकिन उसमें किसी के हताहत होने की कोई ख़बर नहीं थी। 2016 में ऐसी ही घटना पश्चिम बंगाल में हुई थी, जिसमें 27 लोगों की मौत हो गयी थी और सैकड़ों घायल हो गये थे। 2012 में उत्तराखण्ड में ब्रिज गर्डर गिरने से 12 लोगों की जान चली गयी थी। 2016 में ठीक ऐसी ही एक घटना लखनऊ में हुई जिसमें निर्माणाधीन ब्रिज के कॉलम की शटरिंग गिरने से दर्जनों मज़दूर घायल हो गये थे। अकेले उत्तर प्रदेश में पिछले 10 वर्षों के दौरान ऐसी 5 घटनाएँ हो चुकी हैं और हर घटना के बाद नेता-मन्त्री और नौकरशाह गला फाड़के चिल्लाते हैं कि इस घटना से सबक़ लिया जायेगा और आगे ऐसी घटनाओं पर रोक लगायी जाएगी, लेकिन ये सारी बातें हर बार लफ़्फ़ाज़ी ही साबित होती हैं। “सावधानी हटी, दुर्घटना घटी” जैसी तमाम बातें तो हर जगह लिखी मिल जायेंगी, लेकिन इसका पालन कहीं नहीं होता है। निर्माणस्थल पर काम करने वाले मज़दूरों के लिए न्यूनतम सुरक्षा का इन्तज़ाम तक नहीं होता है, जिसकी वजह से आये दिन मज़दूरों के साथ दुर्घटनाएँ होती रहती हैं लेकिन ये कभी ख़बर नहीं बन पाती हैं।

ब्रिज गर्डर के गिरने की दो-तीन वजहें हो सकती हैं। इसको समझने से पहले थोडा-सा ब्रिज इंजीनियरिंग को समझना होगा। बीम (गर्डर) दो तरह के होते हैं, पहला जो ब्रिज के लम्बाई की दिशा में होता है, जिसे लोंगीट्युडीनल गर्डर भी कहते हैं और दूसरा चौड़ाई की दिशा में होता है, जिसे क्रॉस गर्डर भी कहते हैं। गर्डर के ऊपरी हिस्से का भार ज़्यादा होता है, जिसके कारण इसका गुरुत्वाकर्षण केन्द्र बीच में न होकर थोड़ा-सा ऊपर होता है। कंक्रीट दबाव में मज़बूत होता है, लेकिन खिंचाव को नहीं झेल पाता था, इसीलिए गर्डर को किसी पिलर पर टिकाने से पहले प्री-स्ट्रेसिंग की जाती है। यह एक तकनीकी प्रक्रिया होती है जिससे गर्डर खिंचाव में भी मज़बूत हो जाता है और यह सुरक्षा की दृष्टि से भी ज़रूरी होता है, लेकिन इस प्रक्रिया में बीम का काण्टेक्ट एरिया कम हो जाता है, जिससे गर्डर के गिरने की सम्भावना बढ़ जाती है। इससे बचने के लिए गर्डर को तब तक अस्थाई रूप से बाँधके रखते हैं, जब तक कि उसे मज़बूत स्थाई सहारा न मिल जाये या फिर काम पूरा न हो जाये। लेकिन बनारस की घटना में काम को जल्दी से जल्दी पूरा करने के चक्कर में और पैसों को बचाने के लिए फ्रे़म वर्क को गर्डर लगने के 7 दिन के अन्दर ही हटा लिया गया, जिसका ख़ामियाज़ा बेक़सूर लोगों को अपनी ज़िन्दगी गवाँ कर चुकाना पड़ा।

बनारस की घटना में हुआ यह कि पिल्लर्स पर पाँच सीधे बीम डाले गये, इन बीम को सपोर्ट देने वाले क्रॉस बीम के लिए सरिया का स्ट्रक्चर तो बनाया गया, लेकिन उसको कंक्रीट से भरने का काम 3 महीने से लटकाये रखा गया था। सुरक्षा की दृष्टि से देखे तो दोनों प्रकार के बीम को एक साथ रखना चाहिए। पिलर के जिस हिस्से पर ब्रिज गर्डर को रखा जाता है, उसे बेअरिंग कहा जाता है। पूरे ब्रिज पर लगने वाले लोड का सारा हिस्सा सबसे पहले बेअरिंग पर आता है। इसलिए इस हिस्से को थोडा-सा ऊँचा उठाकर ज़्यादा सरिया भर देते हैं। बेअरिंग को बनाने में अपेक्षाकृत ज़्यादा ख़र्च आता है और पैसा बचाने के लिए लगने वाले सरिया की गुणवत्ता को हल्का कर दिया जाता है। गर्डर के गिरने के तरीक़े को देखकर ही यह बात साफ़-साफ़ समझ में आ रही है कि ब्रिज का बेअरिंग फेल हो गया था और इसकी वजह थी – निर्माण में वर्षों से बरसात-खुली धूप में रखे सरिया और अन्य लौह सामग्रियों का इस्तेमाल किया जाना, जिनका संक्षरण हो गया था।

हर बार की तरह इस बार भी कुछ कर्मचारियों और अधिकारियों के सिर पर ठीकरा फोड़कर इस मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा होने से साफ़ बचा लिया जायेगा। वास्तव में मुनाफ़े पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था में इन घटनाओं से छुटकारा पाने और मानवता को केन्द्र में रखकर योजनाबद्ध तरीक़े से निर्माण और विकास की उम्मीद भी करना मूर्खता ही साबित होगी। इसके लिए समाजवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की ज़रूरत है, ये सभी घटनाएँ हमें बार-बार पूँजीवादी व्यवस्था की तबाही और समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के लिए क्रान्ति की ज़रूरत का एहसास करती हैं। आम लोगों की हत्यारी इस पूँजीवादी व्यवस्था को ही ढहाना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2018


 

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