त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के नतीजे और संसदीय वाम का संकट
कविता कृष्णपल्लवी
त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में वहाँ तीन दशकों से सत्ता में विराजमान रही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की हार को लेकर बहुत से लोग सदमे में हैं। इनमें ज़्यादातर ऐसे लोग हैं जिन्हें संसदीय वाम से अब भी काफ़ी उम्मीदें हैं और जो लगातार यह दिवास्वप्न देखते रहते हैं कि संसदीय वाम की पार्टियाँ अब चेत जायेंगी, वे अपनी शीतनिद्रा से जाग जायेंगी और या तो स्वयं एकजुट होकर, या कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर, या ग़ैरकांग्रेसी बुर्जुआ दलों के साथ मोर्चा बनाकर हिन्दुत्ववादी फ़ासिज़्म की मोदी लहर को, कम से कम 2019 के लोकसभा चुनावों तक तो पीछे धकेल ही देंगी।
त्रिपुरा के चुनावी नतीजों के ठोस विश्लेषण से पहले, ऐसे तमाम लोगों से हम बार-बार कही गयी यह बात फिर से कहना चाहेंगे कि फ़ासिज़्म की वैचारिकी, उसके आर्थिक आधार, उसके उद्भव और प्रभुत्व के कारणों तथा इटली और जर्मनी में फ़ासिस्ट दौर के इतिहास के बारे में प्रचुर मार्क्सवादी साहित्य मौजूद है, उन्हें उसका अध्ययन ज़रूर करना चाहिए। फ़ासिज़्म की लहर को संसदीय चुनावों में हराकर पीछे नहीं धकेला जा सकता। सत्ता में न होते हुए भी यह अपना कहर जारी रखेगा, यह भारत में भी देखा जा चुका है। फ़ासिज़्म सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी वित्तीय पूँजी का प्रतिनिधि और पूँजीवाद के संकट का पूँजीवादी विमोचक होता है। उसकी बुनियादी चारित्रिक विशिष्टता यह होती है कि वह निम्न-बुर्जुआ वर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी आन्दोलन होता है जिसे तृणमूल स्तर से एक कैडर-आधारित ढाँचे वाला फ़ासिस्ट संगठन संगठित करता है। तृणमूल स्तर से, मज़दूर वर्ग, सभी मेहनतकश वर्गों और मध्य वर्ग के प्रगतिशील हिस्सों का एक रैडिकल सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके ही, और मज़दूरों की जुझारू लामबन्दी द्वारा ही इसे शिकस्त दी जा सकती है।
दूसरी बात, बीसवीं शताब्दी के मुकाबले आज की भिन्नता यह है कि नवउदारवाद और पूँजीवाद के व्यवस्थागत संकट के इस दौर में फ़ासिज़्म-विरोधी मोर्चे में बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा, यानी बुर्जुआ वर्ग की कोई भी पार्टी भागीदार नहीं बनेगी। भारत के संसदीय वाम का मूलतः वही ऐतिहासिक अपराध है जो 1920 और 1930 के दशकों में यूरोपीय सामाजिक जनवादी पार्टियों ने किया था। पिछले छह-सात दशकों से ये पार्टियाँ संसदीय चुनावों का ‘टैक्टिकल’ इस्तेमाल करने की जगह संसदीय राजनीति में डूबी रही हैं, मात्र आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ते हुए मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक संघर्षों को पूरी तरह छोड़ चुकी हैं। तृणमूल स्तर से विभिन्न जुझारू सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके आम जनता की वर्ग चेतना और वर्गीय एकजुटता को उन्नत करना तो इनके एजेण्डा पर कभी रहा ही नहीं। ऐसे में, नवउदारवाद के इस दौर में, संसदीय वामपन्थी पार्टियाँ यदि संसदीय राजनीति में भी हाशिये पर पहुँचती जा रही हैं तो इससे आश्चर्य और दुःख मिथ्या आशावाद के शिकार उन्हीं लोगों को होगा, जो मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-माओ के मार्क्सवाद और बर्नस्टीन-काउत्स्की-ख्रुश्चेव-देंग सियाओ-पिंग के छद्म मार्क्सवाद में कोई अन्तर करना ही नहीं जानते, यानी बकौल लेनिन, वे मार्क्सवाद का क-ख-ग भी नहीं जानते, क्योंकि वे मार्क्सवाद और संशोधनवाद में कोई अन्तर नहीं कर पाते।
विचार–विहीन भावुकता और आदर्शवाद का आलम यह है कि कुछ अच्छे–भले पढ़े–लिखे लोग यह प्रलाप तक करने लगे हैं कि जनता अगर माणिक सरकार जैसे सादगी और ग़रीबी में रहने वाले स्वच्छ छवि के व्यक्ति को किनारे हटाकर भाजपा को सत्ता में ला सकती है, तो यह जनता है ही इस लायक कि फ़ासिस्टों का कोप–कहर झेलकर इसकी क़ीमत चुकाये। अरे भलेमानसो, राजनीति में चीज़ें किसी पार्टी के नेता के सादे, भ्रष्टाचार-मुक्त जीवन से नहीं बल्कि व्यक्ति और पार्टी की विचारधारा, राजनीति और नीतियों से तय होती हैं। गाँधी और नेहरू काल के बहुतेरे कांग्रेसी नेता भी सादा जीवन बिताते थे। आपातकाल का समर्थन करने वाले भाकपा नेता इन्द्रजीत गुप्ता भी बेहद सादा जीवन बिताते थे। और पीछे चलें। प्रूधों, बाकुनिन और वाइटलिंग भी बेहद ग़रीबी का जीवन बिताते थे, और मार्तोव, मार्तीनोव जैसे तमाम मेन्शेविक नेता भी भ्रष्टाचारी या अमीरी में जीने वाले लोग नहीं थे। यह उनकी राजनीति से तय होता था कि वे क्रान्तिकारी थे या मज़दूर वर्ग के दुश्मन। यदि चीज़ें नेता के जीने के तरीक़े से ही तय हो जातीं तो तमाम राजनीति विज्ञान और राजनीतिक अर्थशास्त्र को जानने की ज़रूरत ही क्या थी! भावुकतावादी मार्क्सवादी लोग मार्क्सवाद तो कुछ पढ़ते नहीं, बस ‘कॉमन सेन्स लॉजिक’ करते रहते हैं। वे कहते हैं अपने को मार्क्सवादी, पर होते हैं तोल्स्तोयपन्थी।
दूसरी बात, चुनाव में अब भी मोदी को चुनने के लिए जनता को कोसने वाले लोग बुर्जुआ चुनावों से बहुत न्याय-निर्णय की उम्मीद रखते हैं, वे इन चुनावों में पूँजी की भूमिका और फ़ासिस्टों की घपलेबाजियों के रिकार्ड को भी नहीं जानते और इस बात को नहीं समझ पाते कि जनता को कोई सही नेतृत्व यदि सही राजनीतिक चेतना देकर मूल मुद्दों को सही ढंग से उसके सामने रेखांकित न करे, तो पूँजीवादी संकट के दौरों में वह सबसे आसानी से फ़ासिस्टों के लोकरंजक नारों और ‘फे़टिश’ और मिथ्या चेतना के प्रभाव में आ जाती है। कम से कम सामाजिक जनवादियों और संसदीय वामपन्थियों द्वारा दिये जाने वाले विकल्प तो फ़ासिस्टों के लोकरंजक नारों के सामने काफ़ी फीके लगते हैं, ख़ासकर तब जब जनता उन्हें लम्बे समय से देख और भुगत रही हो। वामपन्थी बुद्धिजीवियों की एक फि़तरत यह भी होती है कि वे हमेशा अपने को किनारे करके बात करते हैं, अपनी भूमिका की कभी कोई चर्चा नहीं करते और जनता को कोसने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ते। इन दुखी आत्माओं से क्या कहा जा सकता है सिवाय इसके कि हो सके तो उन्हें अपने लिए नयी जनता चुन लेनी चाहिए।
त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार और माणिक सरकार के बारे में बुर्जुआ मीडिया में जो ख़बरें आती थीं और सोशल मीडिया पर बीस साल से बिना किसी गम्भीर चुनौती के साफ़-सुथरी सरकार चला रहे माणिक सरकार के बारे में वामपन्थी लोग जो कुछ लिखते रहते थे, उसमें त्रिपुरा की ज़मीनी हकीक़त न के बराबर होती थी। इसीलिए वाम मोर्चे की इस क़दर बुरी पराजय से लोगों को काफ़ी सदमा लगा। त्रिपुरी समाज के अन्तर्विरोधों की ज़मीनी सच्चाइयों को जाने बिना वर्तमान चुनाव-परिणामों को ठीक से नहीं समझा जा सकता, पर उनकी चर्चा से पहले कुछ और ग़ौरतलब तथ्यों को हम सूत्रवत गिना देना चाहते हैं। पिछले लगभग तीन दशकों से उत्तर–पूर्व के सभी राज्यों में आरएसएस अपना सघन नेटवर्क फैलाकर काम कर रहा है। उत्तर–पूर्व की जनजातियों को हिन्दुत्व की पहचान से जोड़ना, जनजातियों के आपसी टकरावों को और केन्द्र से जारी उनके टकराव को ‘पहचान की राजनीति‘ का आधार देकर उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के संघर्ष को वर्ग–संघर्ष की राजनीति से दूर करना और उन्हें फ़ासिस्ट राजनीति के वैचारिक तौर पर क़रीब लाना – यह संघ की रणनीति रही है, जो, रैडिकल सशस्त्र संघर्षों के नेतृत्व के क्रमशः पतन और विघटन से पैदा हुए निराशापूर्ण स्पेस में स्थान बनाकर अब धीरे-धीरे रंग भी लाने लगी है। कांग्रेस के लम्बे शासन के दौरान इन इलाक़ों की आबादी जिस उपेक्षा और दमन का शिकार हुई, उसे भी संघ और भाजपा ने ख़ूब भुनाया। 2014 में केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के बाद भाजपा ने त्रिपुरा से वाम मोर्चे को उखाड़ फेंकने के प्रोजेक्ट पर विशेष तौर पर काम किया। संघ के स्वयंसेवकों के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर भाजपा कार्यकर्ताओं को वहाँ लगाया गया। माकपा नेतृत्व को यह पता था, लेकिन जैसा सभी संसदीय जड़वामनों के साथ होता है, सरकार चलाते-चलाते यह पार्टी कार्यकर्ता स्तर तक इतनी पलीद हो चुकी है कि इसका कैडर ढाँचा मात्र रस्मी, ढीला-पोला और काहिल होकर रह गया है। दूसरी ओर बुर्जुआ दायरे में भी माकपा ने नीतिगत पंगुता का परिचय दिया और त्रिपुरी जनजातियों के जिस असन्तोष और असुरक्षा का भाजपा लाभ उठा रही थी, उसके शमन के लिए कोई भी महत्वपूर्ण क़दम नहीं उठाया। इन्हें अपने आप पर कुछ ज़्यादा भरोसा भी था, जिसके चलते इन्हें यह उम्मीद ही नहीं थी कि वाम मोर्चा प्रचण्ड बहुमत से सीधे 16 सीटों पर आ जायेगा और 2 सीटों वाली भाजपा ‘इण्डीजेनस पीपुल्स फ्रण्ट ऑफ़ त्रिपुरा’ (आईपीएफ़टी) के साथ मोर्चा बनाकर 43 सीटें हासिल कर लेगी। कुछ लोगों को इस बात पर भी आश्चर्य है कि भाजपा और माकपा के बीच मात्र दशमलव 3 प्रतिशत वोट प्रतिशत के अन्तर पर सीटों में इतना अन्तर कैसे? भाजपा के अपने 43 प्रतिशत के साथ आईपीएफ़टी के 7.5 प्रतिशत को जोड़ दिया जाये और माकपा के 42 प्रतिशत के साथ अन्य वाम दलों के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाये तो भी दोनों के बीच अन्तर 6 प्रतिशत के आसपास है और जनजाति-बहुल इलाक़ों के अतिरिक्त पूरे राज्य में भी जनजाति आबादी जिस तरह बिखरी हुई है, यदि उसने एकजुट होकर भाजपा गठबन्धन को वोट दिया तो सीटों का इतना अन्तर हो सकता था। एक कारक यह भी था कि संघ कार्यकर्ताओं ने घर-घर तक पहुँच बनाकर बूथ-मैनेजमेण्ट बहुत कुशल ढंग से किया था, जबकि वाम मोर्चा ने इस मामले में भी काहिली दिखायी थी। फ़ासिस्टों के चाल-चेहरा-चरित्र को देखते हुए ईवीएम घपले का उनके द्वारा सहारा लेने से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इस ब्रह्मास्त्र का सेलेक्टिव इस्तेमाल वे कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे बड़े राज्यों के चुनावों में और 2019 के लोकसभा चुनावों में करेंगे, इसकी सम्भावना ज़्यादा है। त्रिपुरा में तो परिस्थितियाँ वैसे भी उनके पक्ष में थीं।
तो अब आइए, ज़रा उन परिस्थितियों पर एक सरसरी नज़र दौड़ा ली जाये।
1947 के पहले त्रिपुरा ब्रिटिश शासन के मातहत एक रियासत थी। 1949 में इसका भारत में विलय हो गया। इसका एक हिस्सा, टिप्पेरा जि़ला पूर्वी पाकिस्तान में शामिल हुआ। यूँ तो बंगाली आबादी त्रिपुरा में पहले से रहती थी, लेकिन विभाजन के समय तक बहुसंख्या स्थानीय जनजातियों की ही थी। विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर बंगाली शरणार्थी आबादी त्रिपुरा में आकर बसी और स्थानीय जनजाति आबादी अल्पमत में आ गयी। 1971 के बंगलादेश युद्ध के समय और उसके बाद भी बंगाली शरणार्थी आबादी त्रिपुरा में आती रही। आज स्थिति यह है कि त्रिपुरा की कुल आबादी में मात्र 30 प्रतिशत जनजातीय आबादी रह गयी है। इस स्थिति के चलते जनजातीय आबादी के भीतर असन्तोष और असुरक्षा-बोध की भावना 1950 के दशक से ही पनपने लगी थी। यहाँ यह भी बता देना ज़रूरी है कि 1947 के पहले ही त्रिपुरा में कम्युनिस्ट रुझान की कई क्षेत्रीय पार्टियाँ मौजूद थीं जो स्थानीय राजशाही के विरुद्ध आदिवासी आबादी को संगठित करती थीं। पर आज़ाद भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ने इस स्थिति का कोई फ़ायदा नहीं उठाया, क्योंकि तेलंगाना संघर्ष की पराजय के बाद पार्टी पूरी तरह से घुटने टेककर संसदमार्गी हो चुकी थी। देश विभाजन से त्रिपुरा का सबसे बड़ा नुक़सान हुआ – उसका शेष भारत से भू-राजनीतिक अलगाव। तीन ओर से वह बंगलादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) से घिरा था। सिर्फ़ उत्तर-पूर्व और पूर्व में असम और मेघालय की सीमाएँ इससे लगती हैं, जहाँ से दो राष्ट्रीय राजमार्ग इसे शेष देश से जोड़ते हैं। लुम्डिग (असम) से एक छोटी रेललाइन त्रिपुरा में जाती भी थी तो राजधानी अगरतला तक नहीं, बल्कि सिर्फ़ धर्मनगर तक। इससे इस राज्य की उपेक्षा का अनुमान लगाया जा सकता है कि 2008-09 में पहली बार अगरतला तक रेललाइन पहुँची और 2016 में उसे बड़ी लाइन किया गया। विभाजन के बाद कोलकाता से अगरतला की सड़क मार्ग से दूरी 350 किलोमीटर से बढ़कर 1700 किलोमीटर हो गयी थी। ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए था कि केन्द्र की सरकार त्रिपुरा के आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान देती, पर हुआ ठीक इसके उलटा। आज भी त्रिपुरा की स्थिति यह है कि वहाँ कोई भी बड़ा उद्योग नहीं है। सिर्फ़ ईंट-भट्ठे हैं, चाय के बाग़ान हैं, कुछ रबर प्लाण्टेशन हैं और थोडा बाँस पैदा किया जाता है। सिर्फ़ 27 प्रतिशत ही ज़मीन खेती लायक है, जिसमें से 91 प्रतिशत पर धान की खेती होती है और वह भी पिछड़ी कि़स्म की। शेष पर गन्ना, जूट, और दालों की फ़सल होती है। त्रिपुरा सरकार के आँकड़ों के हिसाब से, उपभोग वितरण के पैमाने से राज्य की 55 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करती है। विडम्बना यह है कि 94 प्रतिशत साक्षर आबादी के साथ त्रिपुरा साक्षरता के मामले में पूरे देश में पहला स्थान रखता है। ऐसे में बेरोज़गारी की समस्या की गम्भीरता को सहज ही समझा जा सकता है। स्थानीय जनजाति आबादी शिक्षा के मामले में पीछे नहीं है, लेकिन नौकरियों में वह बंगाली आबादी से काफ़ी पीछे है। जिस राज्य में कुल मिलाकर, वाम मोर्चा ने 30 वर्षों तक शासन किया हो, वहाँ की यह स्थिति ढेर सारे सवाल तो खड़े ही करती है। एक और जानकारी यह कि त्रिपुरा में राज्य कर्मचारियों का वेतन अभी तक चौथे वेतन आयोग की अनुशंसा के अनुरूप था, भाजपा ने सीधे सातवें वेतन आयोग को लागू करने का आश्वासन दिया, जिससे सरकारी कर्मचारी पूरी तरह भाजपा के पक्ष में आ गये। यह तथ्य भी वाम मोर्चे की अकर्मण्यता ही बताता है।
एक और तथ्य भी उल्लेखनीय है। आज़ादी के बाद से चले आ रहे कांग्रेसी राज और मूलत: उन्हीं नीतियों को लागू करते रहे वाम मोर्चे के तीन दशक के राज के फलस्वरूप त्रिपुरा में जो मध्य वर्ग उभरा है, उसकी ”विकास” की आकांक्षाएँ अब वाम मोर्चे के शासन में पूरी नहीं हो रही थीं। ऐसे में भाजपा के विकास के वादों से उसका आकर्षित होना लाज़िमी था। ऐसी ही स्थिति पहले बंगाल में देखी जा चुकी है।
त्रिपुरा 1972 तक केन्द्र शासित क्षेत्र था। जनवरी 1972 में उसे मणिपुर और मेघालय के साथ पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। राज्य बनने के पहले से ही स्थानीय जनजाति आबादी का अलगाव और असुरक्षा-बोध गम्भीर असन्तोष के रूप में सुलगने लगा था। त्रिपुरा का एकमात्र भूमि सुधार क़ानून ‘त्रिपुरा लैण्ड रेवेन्यू एण्ड लैण्ड रिफ़ॉर्म्स एक्ट 1960’ है, जिसके अनुसार आदिवासी आबादी की ज़मीन ग़ैर-आदिवासी नहीं ख़रीद सकता, लेकिन बड़े पैमाने पर इसका उल्लंघन होता रहा और बेनामी हस्तान्तरण होते रहे। एक बार 1978 में वाम मोर्चा सरकार ने कोशिश की थी कि आदिवासियों की ज़मीन उन्हें वापस मिले, लेकिन चुनावी राजनीति के चक्कर में बंगाली आबादी के दबाव में वह अपनी मुहिम को दूर तक न ले जा सकी। जनजातियों के भीतर राष्ट्रीय उत्पीड़न का अहसास करने वाली एक और घटना 1965 में बांगला भाषा को सरकारी कामकाज की भाषा बनाना थी। राज्य की आबादी की 30 प्रतिशत आदिवासी आबादी 19 जनजातियों में बँटी हुई है, जिनमें से अधिकांश कोकबरोक भाषा बोलते हैं। पहली बार 1979 में वाम मोर्चा की सरकार ने कोकबरोक भाषा को औपचारिक मान्यता दी, पर इससे व्यावहारिक स्तर पर कोई विशेष फ़र्क़ नहीं पडा। 1970 के दशक में आदिवासी और बंगाली आबादी के बीच टकरावों की शुरुआत हो चुकी थी। 1980 में ‘त्रिपुरा नेशनल वालण्टियर्स’ और ‘आमरा बंगाली’ नामक संगठनों के बीच के टकराव ने जातीय दंगे का रूप ले लिया, जिसमें 1800 लोग मारे गये। इस असन्तोष को नियन्त्रित करने के लिए ही 1982 में ‘त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वायत्त जि़ला परिषद’ की स्थापना हुई, जिसे 1985 में कुछ और अधिकार मिले। राज्य का 68 प्रतिशत क्षेत्र इन परिषदों के तहत आता है और इन्हें सीमित प्रशासकीय, विधायी और न्यायिक अधिकार मिले हुए हैं। इन्हें और अधिक स्वायत्तता और अधिकार देने की माँग लगातार उठती रही है। त्रिपुरा में ’77 तक कांग्रेस का शासन था, फिर ’78 से ’88 तक और 1993 से 2018 तक वाम मोर्चे का शासन रहा। विधान सभा की 60 में से एक तिहाई यानी 20 और लोकसभा की 2 में से एक सीट आदिवासी आबादी के लिए आरक्षित है, लेकिन आदिवासी आबादी की हमेशा यह शिकायत रही है कि सभी ग़ैर-आदिवासी पार्टियाँ कुछ ऐसे दब्बू और पिछलग्गू आदिवासी उम्मीदवार चुनती हैं, जिनकी कोई अपनी आवाज़ ही नहीं होती है। 1990 के दशक में एनएलएफ़टी और एटीटीएफ़ जैसे संगठनों ने सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत की। इन विद्रोही गुटों की सरगर्मियाँ जब शीर्ष पर थीं, तभी, यानी 16 फ़रवरी ’97 को राज्य में आफ़्सपा लगा। जून 2013 में इसे 30 पुलिस थानों तक सीमित कर दिया गया और मई 2015 में पूरी तरह हटा लिया गया।
त्रिपुरा की आदिवासी आबादी का असन्तोष लम्बे समय से एक उच्च बिन्दु पर पहुँचकर ठहरा हुआ है और पिछले दशक के सरकारी दमन के आगे निरुपायता के अहसास ने एक ऐसी प्रतिक्रिया की मानसिकता पैदा की है, जिसका फ़ायदा आज फ़ासिस्ट उठा रहे हैं। आदिवासी आबादी का आन्दोलन आज अलगाववादी नहीं है। उसका एक उग्र हिस्सा है जो त्विप्रालैण्ड नाम से अलग राज्य की माँग कर रहा है, इसकी नुमाइन्दगी ‘इण्डीजेनस पीपुल्स फ़्रण्ट ऑफ़ त्रिपुरा’ करता है, जिसने भाजपा से मोर्चा बनाकर इस चुनाव में 8 सीटें हासिल की है। दूसरा एक नरम हिस्सा है जो आदिवासी स्वायत्त जि़ला परिषदों की स्वायत्तता बढ़ाने की और उन्हें 100 प्रतिशत डायरेक्ट फ़ण्डिंग की माँग कर रहा है। इस धारा की नुमाइन्दगी ‘आईएनपीटी’ नामक संगठन मुख्यतः करता है। अब वाम मोर्चे की विफलता को आसानी से समझा जा सकता है। वाम मोर्चे ने सबसे लम्बे समय तक त्रिपुरा में शासन किया, लेकिन एक बुर्जुआ सुधारवादी पार्टी बुर्जुआ जनवादी दायरे में रहते हुए आर्थिक विकास और रोज़गार-सृजन के लिए जितना कुछ कर सकती थी, उसने उतना भी नहीं किया। भूमि सुधार को प्रभावी बनाकर आदिवासियों की ज़मीन की सुरक्षा के लिए कोई भी प्रभावी क़दम नहीं उठाये गये। स्वायत्त परिषदों के अधिकार और स्वायत्तता बढ़ाने की माँग को भी सिरे से ख़ारिज़ किया जाता रहा। कोकबरोक भाषा देखते-देखते मृतप्राय हो गयी। वाम मोर्चे ने भी अलगाववादी गुटों से निपटने के लिए ‘आफ़्सपा’ का ही सहारा लिया और उसे लम्बे समय तक बनाये रखा। आदिवासियों के बीच उसकी छवि एक बंगाली पार्टी की बन गयी। इस स्थिति का भाजपा ने भरपूर फ़ायदा उठाया। उसने बंगाली और आदिवासी आबादी में अलग-अलग ढंग से प्रचार किया। शहरी बंगाली मध्य वर्ग को उसने साम्प्रदायिकता, अन्धराष्ट्रवाद और विकास के लोकरंजक नारे पर अपने साथ खड़ा किया, जबकि आदिवासी आबादी की हताशा का पूरा लाभ उठाते हुए उसने उनके बीच पहचान की राजनीति को हवा दी और भरपूर तुष्टीकरण किया।
कुल मिलाकर कहें कि संसदीय वामपन्थियों की लम्बी अकर्मण्यता, यथास्थितिवाद और गलीज़ सामाजिक जनवादी राजनीति के कुकर्मों का ही यह फल है कि आज त्रिपुरा में फ़ासिस्टों को ऐसी सफलता मिली है। आप नीतियों की बात छोड़कर माणिक सरकार की सादगी पर लहालोट होते रहिए और वाम मोर्चे की असफलता पर छाती कूटते रहिए। जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो उसे इस दुर्गति को प्राप्त होना ही था। त्रिपुरा में लम्बे समय से कांग्रेस और भाजपा का अघोषित गँठजोड़ था। अब भाजपा को प्रभावी विकल्प बनते देख यदि अधिकांश कांग्रेसी उसी की नैया में सवार हो गये, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
बंगाल और पूरे देश की ही तरह त्रिपुरा में भी संसदीय वाम राजनीति की ही परिणतियाँ उजागर होकर सामने आयी हैं। यह बात एक बार फिर साफ़ हुई है कि क्रान्तिकारी वाम राजनीति के पुनरुत्थान के बिना और सभी मेहनतकश वर्गों का एक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खडा किये बिना, और सड़कों पर मोर्चा लेने की एक लम्बी तैयारी किये बिना फ़ासिस्टों को पीछे क़तई नहीं धकेला जा सकता।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2018
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