दिल्ली में बेरोज़गारी के गम्भीर हालात बयान करते आँकड़े
सिमरन
दिल्ली भारत की राजधानी है और देश में बेरोज़गारी की भीषणता का अन्दाज़ा दिल्ली जैसे महानगर में बेरोज़गारों की हालत को देखकर लगाया जा सकता है। दिल्ली में देश के अलग-अलग राज्यों से नौजवान-मज़दूर एक बेहतर ज़िन्दगी और रोज़गार की तलाश में आते हैं। लेकिन न तो उनका बेहतर ज़िन्दगी का ख़्वाब पूरा होता है और न ही उन्हें रोज़गार मिलता है। छोटा-मोटा काम करके या 14-14 घण्टे की शिफ़्ट में फ़ैक्टरियों में काम कर, रेड़ी-खोमचा लगा किसी तरह वो अपना जीवनयापन करते हैं। बेरोज़गारी कितनी बड़ी समस्या है, इसका अन्दाज़ा लगाने के लिए वैसे तो किसी आँकड़ें की ज़रूरत नहीं है, एक बार अपने आस-पास नज़र दौड़ाने से ही पता चल जाता है कि छोटे से छोटे काम या नौकरी के लिए लाखों लोग लाइनों में लगे हैं।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) 1972-73 से अखिल भारतीय आधार पर विभिन्न क्षेत्रों से रोज़गार और बेरोज़गारी के आँकड़े जमा कर रहा है। एनएसएसओ के ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक़ जून 2012 में दिल्ली में बेरोज़गारों की संख्या क़रीब 2.66 लाख थी, जो बढ़कर 2013 में 9.13 लाख तक पहुँची। 2014 में दिल्ली में 10.47 लाख व्यक्ति बेरोज़गार थे जो संख्या 2015 आते-आते 12.21 लाख का आँकड़ा पार कर गयी। और नये आँकड़ों का इन्तज़ार करने का भी कोई फ़ायदा नहीं है, क्योंकि मोदी सरकार बेरोज़गारी तो दूर नहीं कर सकती इसीलिए इस साल से सरकार बेरोज़गारी के आँकड़ों को सार्वजानिक करने से इंकार कर रही है। संघ द्वारा चलयी जा रही इस सरकार को लगता है कि यदि जनता को बेरोज़गारी के आँकड़े न बताये जाये तो उन्हें लगेगा कि बेरोज़गारी है ही नहीं!
दिल्ली सांख्यिकीय हैण्डबुक 2016 में छपे आँकड़ों के मुताबिक़ 2015 में दिल्ली में रोज़गार कार्यालयों में 10.83 लाख से ज़्यादा बेरोज़गारों ने पंजीकरण करवाया। पंजीकृत बेरोज़गारों में से 26% से ज़्यादा स्नातक अथवा इससे भी ज़्यादा उच्च शिक्षा प्राप्त थे और क़रीब 74% मेट्रिक या हायर सेकण्डरी तक शिक्षित थे। 2005 में पंजीकृत बेरोज़गारों की संख्या 5.56 लाख थी यानी कि 10 सालों के भीतर बेरोज़गारों की संख्या क़रीब-क़रीब दुगनी हो गयी है। 2015 में जहाँ 56,576 बेरोज़गार ऐसे थे जिनके पास डिप्लोमा थे जबकि 2013 में यह आँकड़ा 44,934 था। 2011 की जनगणना के हिसाब से 2011 की कुल आबादी के केवल 31.61% के पास 183 दिन या उससे ज़्यादा का काम था। इस आँकड़े से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आरज़ी तौर पर अनियमित रूप से काम करने वाले लोगों की संख्या कितनी बड़ी है। जिनके पास पक्के रोज़गार का कोई ज़रिया नहीं है। और जो जैसे-तैसे कर अपना गुज़ारा चला रहे हैं। दिल्ली सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2011 में कामकाजी आबादी का 3.25% हिस्सा घरेलू औद्योगिक श्रमिक थे। यानी कि ऐसे लोग जो स्वरोज़गार के ज़रिये या पीस रेट पर अपने ही घर में कुछ न कुछ काम कर अपना गुज़ारा चलाते हैं। लेकिन सबसे बड़ा हिस्सा मज़दूरों का था जो कि औद्योगिक और तृतीय क्षेत्र की गतिविधियों में संलग्न थे।
एक तथ्य जो इन सब आँकड़ों की पहुँच से बाहर है और जिसको जोड़ते ही ये आँकड़े और भी गम्भीर हो जाते हैं, वो है इन सरकारी सर्वेक्षणों की सीमा। इन सर्वेक्षणों में दिल्ली के 29 औद्योगिक क्षेत्रों की फ़ैक्टरियों, ग़रीब बस्तियों और सड़क पर अपनी ज़िन्दगी बिता रहे बेरोज़गारों और बेघरों को नहीं गिना जाता। वज़ीरपुर, बवाना, बादली, नरेला, ओखला, पटपड़गंज, गाँधी विहार आदि जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में बहुतेरी फ़ैक्टरियाँ ऐसी हैं जो फ़ैक्टरीज़ एक्ट के अन्तर्गत पंजीकृत भी नहीं हैं। और पंजीकरण न होने के कारण ऐसे सरकारी सर्वेक्षण वहाँ के मज़दूरों और बेरोज़गारों तक पहुँच भी नहीं पाते। ठेके पर काम करने वाली बड़ी आबादी अर्ध-बेरोज़गारों की भी होती है, जिनके पास कुछ महीने काम होता है और कुछ महीने वो एक फ़ैक्टरी से दूसरी फ़ैक्टरी तक चप्पल फटकारते हुए घूमते हैं, कभी-कभार मिलने वाला कोई छोटा-मोटा काम करके गुज़ारा करते हैं, और बहुतेरे तो भीख या दूसरों की दया पर जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं। अर्ध-बेरोज़गारों के अलावा ठेका प्रथा की मार झेल रहे ऐसे भी श्रमिक हैं जो सालों से एक ही फ़ैक्टरी में काम कर रहे हैं, लेकिन उसके बावजूद उन्हें नियमित नहीं किया गया है। ऐसे में छँटनी की तलवार हमेशा उनके िसर पर लटकती रहती है। और बेरोज़गारों की सड़कों पर घूमती फ़ौज को मद्देनज़र रखते हुए फ़ैक्टरी मालिकों के लिए बेरोज़गारों का शोषण करना और भी आसान हो जाता है। ऐसे में इन आँकड़ों से उभरी बेरोज़गारी की तस्वीर बहुत हद तक अधूरी ही रहती है। मोदी सरकार ने 2014 के चुनाव से पहले यह वादा किया था कि वो हर साल 2 करोड़ रोज़गार पैदा करेगी। लेकिन सत्ता में आने के बाद वही मोदी आज देश की ग़रीब और बेरोज़गार आबादी से पकौड़े तलने को कह रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल ने भी चुनाव से पहले दिल्ली की जनता से 5 साल में 8 लाख नौकरियाँ पैदा करने और 55,000 रिक्त सरकारी पदों को भरने का चुनावी वादा किया था। लेकिन हक़ीक़त यह है कि 15-16 फ़रवरी 2018 को दिल्ली सरकार द्वारा आयोजित रोज़गार मेले में बेरोज़गारों के अनुपात में न के बराबर नौकरियों के अवसर पेश किये गये। प्राइवेट कम्पनियों को बुलाकर बस अपनी छवि जनता के सामने चमकाने के लिए यह तमाशा किया गया था। वैसे इस तमाशे के बादशाह तो भाजपा सरकार के मुखिया है, जिन्होंने ‘मेक इन इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’, ‘स्टार्टअप इण्डिया’ जैसे जुमलों का ख़ूब बड़ा गुब्बारा फुलाया और उसकी हवा निकल जाने पर मेहनतकश अवाम को पकौड़े तलने की हिदायत दी। इस लेख में प्रस्तुत किये गये आँकड़े बेरोज़गार मज़दूरों और नौकरी की तलाश में भटकते पढ़े-लिखे नौजवानों की ज़िन्दगी की तकलीफ़ों, उन्हें क़दम-क़दम पर मिलने वाले अपमान और दर्द को नहीं बयान कर सकते। लेकिन अगर कोई दिल्ली के मज़दूर इलाक़ों में और नौजवानों की रिहाइश के इलाक़ों में जाये तो सूनी आँखों और टूटे मन व शरीर वाले लाखों नौजवान उसे दिखायी दे जायेंगे।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2018
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