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न्यायिक व्यवस्था का संकट और फ़ासिस्ट आतंक राज
सत्तारूढ़ फ़ासिस्टों की आलमारी में छिपे कंकालों की खड़खड़ाहट तेज़ होती जा रही है
कविता कृष्णपल्लवी
नये साल के दूसरे ही शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अचानक प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र को लिखा एक पत्र जारी किया जिसमें उन्होंने कई गम्भीर आरोप लगाये थे। पत्र में इन न्यायमूर्तियों ने न्यायपालिका की संस्था को कमज़ोर करने का आरोप लगाते हुए कई सवाल उठाये थे। उनमें प्रमुख आरोप यह था कि काफ़ी समय से व्यापक प्रभाव डालने वाले महत्वपूर्ण मुक़दमे उनके जैसे वरिष्ठ जजों को दरकिनार करके कुछ ख़ास जजों की बेंच को ही दिये जा रहे हैं। हालाँकि पत्र में सीधे इसका ज़िक्र नहीं था लेकिन पत्रकारों के पूछने पर जजों ने इस बात पर हामी भरी कि इनमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के मामले की सुनवाई कर रहे सीबीआई के विशेष जज ब्रजमोहन लोया की सन्दिग्ध मौत से जुड़ा मामला भी था।
इसके दो दिन बाद ही मुम्बई की एक बड़ी लॉ फ़र्म की ओर से जज लोया के कमउम्र बेटे की प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करायी गयी जिसमें डरे-सहमे बेटे ने कहा कि उसको अपने पिता की मौत पर कोई शक़ नहीं है और उसकी जाँच की कोई ज़रूरत नहीं है। हालाँकि दो वर्ष पहले इसी बेटे ने पत्र लिखकर जाँच की माँग की थी। कुछ ही सप्ताह पहले जज लोया के पिता और बहन ने भी उनकी हत्या की आशंका जताते हुए जाँच की माँग उठायी थी। कोई भी समझ सकता था कि जज लोया के परिवार को डरा-धमका कर यह प्रेस कांफ्रेंस करायी गयी है। वे कॉरपोरेट मंत्रालय के ऊँचे अधिकारी रहे बी.के. बंसल के हश्र से भी परिचित रहे ही होंगे जिनके पूरे परिवार ने ही आत्महत्या कर ली थी। बंसल के सुसाइड नोट में भी अमित शाह का नाम आया था लेकिन हुआ कुछ नहीं।
जैसा कि पिछले साढ़े तीन साल का चलन है, मोदी सरकार के सरपरस्त कॉरपोरेट घरानों का ज़रख़रीद मीडिया इन घटनाओं से उठे असली सवालों को छिपाने के लिए तरह-तरह का फ़र्ज़ी शोर मचाने और बातों को घुमाने-फिराने में जुट गया। भाजपा आईटी सेल के चाकरों और भक्तों की मण्डली ने सोशल मीडिया पर भी झूठ-फ़रेब और कुतर्कों का धूल-गर्दा उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद लोगों के बीच यह बात चली गयी है कि कुछ तो गड़बड़ है। न्याय का मन्दिर, लोकतंत्र का तीसरा खम्भा, जनता की आख़िरी उम्मीद आदि-आदि कहे जाने वाली न्यायपालिका में उपजे इतने गम्भीर संकट के बाद भी जनता इसे लेकर सड़कों पर क्यों नहीं उतर आयी, यह एक अलग सवाल है।
अभी यह सब चल ही रहा था कि 15 जनवरी को अचानक ‘’हिन्दू हृदय सम्राट’’, विश्व हिन्दू परिषद के अन्तरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया अहमदाबाद में पहले लापता हो गये और फिर एक पार्क में बेहोशी की हालत में पाये गये। मुसलमानों के ख़िलाफ़ आग उगलते भाषण देने वाले तोगड़िया जी ने अगले दिन प्रेस के सामने टसुए बहाते हुए रो-रोकर बताया कि उनको फ़र्ज़ी एन्काउण्टर में मारने की साज़िश की जा रही है। गुजरात में इशरत जहाँ से लेकर दर्जनों लोगों की एन्काउण्टर में हुई हत्याओं पर जश्न मनाने वाले इस रोतड़िये का डरना स्वाभाविक था क्योंकि ऊपर बैठे ‘एन्काउण्टर किंग’ के दिशानिर्देशन में चलने वाली फ़र्ज़ी मुठभेड़ों की पूरी मशीनरी से यह अच्छी तरह वाकिफ़ है। काम निकलने के बाद सड़क किनारे फेंक दिये गये आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, यशवन्त सिन्हा, अरुण शौरी आदि हों या निपटा दिये गये गुजरात के गृहमंत्री हरेन पाण्ड्या हों, या फिर जान बचाने की गुहार लगा रहा तोगड़िया हो – इनके हश्र में कुछ भी हैरानी की बात नहीं है। यह फ़ासिस्टों के ख़ून में है। इनके आराध्यदेव हिटलर ने सिर्फ कम्युनिस्टों और यहूदी अल्पसंख्यकों के ही सामूहिक हत्याकाण्ड नहीं कराये थे, बल्कि अपने कई विश्वस्त सहयोगियों और अतीत के मददगारों को भी ठिकाने लगाया था।
दरअसल पूँजीवादी व्यवस्था के गहरे संकट के समाधान के तौर पर लायी गयी मोदी की फ़ासिस्ट सत्ता ख़ुद संकट में फँसी हुई है। चुनाव के समय किये गये लम्बे-चौड़े दावे और वायदे पूरे करने की दूर-दूर तककोई सम्भावना नहीं है। उल्टे बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, छँटनी और सरकारी तथा कॉरपोरेट लूट-खसोट से तबाह जनता की बेचैनी बढ़ती जा रही है जिसको काबू में रखने और ध्यान बहकाने के लिए उन्हें नयी-नयी नौटंकियाँ करनी पड़ रही हैं, नफ़रत फैलाने के नये-नये हथकण्डे अपनाने पड़ रहे हैं। ‘’महान नेता’’ के ‘’अजेय नेतृत्व’’ का आभामण्डल कमज़ोर पड़ने के साथ ही फ़ासिस्टों की जमातों के बीच से भी कोई न कोई फुदककर कुछ सवाल उठा दे रहा है। आने वाले दिनों में यह सब और बढ़ सकता है। कभी सत्ता के ढाँचे के भीतर से ही कोई नौकरशाह, तो कभी कोई जज, और कभी ख़ुद सत्तारूढ़ फ़ासिस्ट पार्टी के भीतर से विद्रोह करके कुछ व्यक्ति फासिस्ट सत्ता के अत्याचार-अनाचार और कुछ नीतियों पर सवाल उठा सकते हैं। लेकिन इस पर ज़रूरत से ज़्यादा ख़ुश होना घातक है। इससे बस इतना होगा कि सत्ता-तंत्र की कलई खोलने में कुछ मदद मिलेगी।
सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा मुख्य न्यायाधीश की सरकारपरस्ती के खिलाफ विद्रोह करना सिर्फ इतना ही बताता है कि व्यवस्था का संकट अत्यन्त गहरा है और इसके कारण उसके अन्दरूनी अन्तरविरोध फूट-रिसकर बाहर आने लगे हैं। किसी प्रभावी जनान्दोलन के अभाव में सत्ता के शीर्ष पर बैठा फ़ासिस्ट गिरोह इस संकट को भी किसी-न-किसी तरह ‘मैनेज’ कर लेगा और फिर सबकुछ पहले की तरह चलने लगेगा। कोई भी बुर्जुआ संसदीय पार्टी आज बुर्जुआ जनवाद को भी बचाने के लिए सड़कों पर उतरने की कुव्वत नहीं रखती। संसदीय वामपंथियों की हालत भी इनसे कुछ बेहतर नहीं। जनवाद-रक्षा के लिए बने बौद्धिक मंचों की समय-समय पर होने वाली प्रतीकात्मक कार्रवाइयों से फासिस्टों को खुजली भी नहीं होती।
न्यायिक व्यवस्था में उपजा हालिया संकट
इस बात को भूलने की ज़रूरत नहीं है कि अपने शुद्धतम रूप में भी यह न्यायपालिका पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करती है। ग़रीबों, मेहनतकशों और आम नागरिकों के अधिकारों पर ख़ासकर पिछले तीन दशकों में हुए हमलों में न्यायपालिका की न केवल सहमति, बल्कि भागीदारी रही है। लेकिन इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए पूँजीवादी तंत्र के मानकों और नियम-क़ायदों की विश्वसनीयता को एक हद तक बचाये रखना भी न्यायपालिका की ज़िम्मेदारी होती है। जब कोई खेल के नियमों से ज़्यादा ही छूट लेने लगता है तब ‘’न्यायिक सक्रियता’’ किसी न किसी रूप में दिखायी देती है। वरना निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में फैले भयंकर भ्रष्टाचार के बारे में कौन नहीं जानता! जजों के नाम लेकर तथ्यों सहित कितनी ही बार आरोप लगाये गये हैं लेकिन कभी कोई जाँच नहीं हुई।
न्यायपालिका पर सरकारी प्रभाव और उसमें भ्रष्टाचार पहले भी रहा है। फ़र्क सिर्फ़ यह पड़ा है कि व्यवस्था की बढ़ती पतनशीलता के साथ-साथ वह और भी नंगा होता गया है। मोदी सरकार के दौरान चुनाव आयोग से लेकर तमाम सरकारी संस्थाओं को जिस तरह सत्त का चम्पू बनाया गया है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट भी कैसे बचा रह सकता था। ज़ाहिर है, जब सत्ता को अपनी मर्ज़ी से काम कराने हों तो बदले में उन्हें भी मनमानी करने की छूट देनी पड़ेगी। और प्रधान जज साहब तो वैसे भी काफ़ी खेले खाये हुए हैं। उत्तर प्रदेश के प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट के फ़र्ज़ी मेडिकल कॉलेज से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में जस्टिस दीपक मिश्र नियमों को ताक पर धरकर बार-बार ख़ुद ही सुनवाई कर रहे थे और कॉलेज को बचा रहे थे। वकील प्रशांत भूषण ने जब अदालत में सवाल उठाया कि जस्टिस दीपक मिश्र ख़ुद इस मामले में पार्टी हैं तो वे कैसे इसकी सुनवाई कर सकते हैं। इस पर दीपक मिश्रा ने कहा कि अदालत की अवमानना का केस कर देंगे। हालाँकि प्रशान्त भूषण के ललकारने पर भी उन्होंने ऐसा किया नहीं और अपने चमचे वकीलों से अदालत में शोर-शराबा कराते रहे।
मोदी के सत्ता में आने के कुछ ही महीने बाद पूर्व मुख्य न्यायाधीश पलानीस्वामी सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बना दिया गया था। यह नयी परिपाटी यूँ ही नहीं शुरू हुई थी, ये उनका ईनाम था। सदाशिवम सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच में थे जिसने सोहराबुद्दीन शेख फ़र्ज़ी एन्काउण्टर मामले में अमित शाह के ख़िलाफ़ दूसरी एफ़आईआर को रद्द कर दिया था। 9 अगस्त, 2016 को अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल ने फाँसी लगा ली थी। पुल एक कांग्रेसी नेता थे, जो 2015 में कांग्रेस के ही नबाम तुकी की सरकार के खिलाफ बगावत करके मुख्यमंत्री बने थे। करीब साढ़े चार महीने बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा तुकी की सरकार की बर्ख़ास्तगी को असंवैधानिक करार दे दिया गया था। पुल ने 13 जुलाई 2016 को कोर्ट का फैसला आने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया और महीने भर के भीतर आत्महत्या कर ली। एक दिन पहले उन्होंने 60 पेज का सुसाइड नोट लिखा था जिसमें संवैधानिक पदों पर बैठे विभिन्न लोगों पर गम्भीर आरोप लगाये हैं। । इस नोट में यह आरोप भी है कि 2016 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला उनके पक्ष में मोड़ने के लिए कुछ दलालों ने उनसे करोड़ों की राशि की माँग की थी। उसमें प्रधान जज साहब के भाई आदित्य मिश्रा का नाम लिया गया था।
सहारा और बिड़ला घरानों के कुछ दफ़्तरों पर छापेमारी के दौरान ज़ब्त कुछ दस्तावेज़ों में यह बात आयी थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नकद पैसे दिये गये हैं। संसद में यह मामला उठा, अख़बारों में ख़बरें छपीं, लेकिन कोई जाँच तक नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये सबूत पर्याप्त नहीं हैं। फ़र्ज़ी एन्काउण्टर से जुड़े अमित शाह के मामले की सुनवाई कर रहे सीबीआई के विशेष जज ब्रजमोहन लोया की मौत के कुछ समय बाद अमित शाह को बरी कर दिया गया। सीबीआई ने इस फ़ैसले के विरुद्ध अपील भी नहीं की। मामला दबा रहा। कुछ साल बाद जज लोया के परिवार वालों ने हिम्मत की और उनकी मौत से जुड़े तमाम सन्दिग्ध तथ्य सामने रखते हुए बयान दिये। ‘कारवां’ पत्रिका में इस पर विस्तृत ख़बर छपी लेकिन सरकार और सीबीआई ने कुछ नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की जाँच के लिए दाखिल जनहित याचिका को कोर्ट नंबर 10 में भेजा गया था जिसके प्रमुख न्यायमूर्ति अरुण मिश्र हैं जो शीर्ष अदालत के 25 जजों में वरिष्ठता के लिहाज़ से 10वें नम्बर पर आते हैं। यह भी कहा जा रहा था कि भाजपा के एक करीबी पत्रकार की ओर से यह जनहित याचिका इसीलिए लगायी गयी थी ताकि अपने मनमुआफ़िक जज की अदालत में भेजकर उसे ख़ारिज करा दिया जाये और फिर इस मसले को हमेशा के लिए ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाये। फ़िलहाल, चार जजों के सवाल उठाने के बाद जस्टिस अरुण मिश्र ने ख़ुद को उस केस से अलग कर लिया है।
इससे पहले कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस कर्णन ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर उन 20 जजों के नाम बताये थे जिनपर कर्णन ने भ्रष्टाचार और पैसों की हेराफेरी का आरोप लगाया था। लेकिन उसकी जाँच होने के बजाय कर्णन को ही गिरफ़्तार करके उनका मुँह बन्द कर दिया गया। जस्टिस मार्कण्डेय काटज़ू कई वर्षों से ऊँची अदालतों में भ्रष्टाचार की बात उठाते आये हैं मगर जाँच कौन करेगा? पूर्व न्याय मंत्री शान्ति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के 16 भ्रष्ट जजों के नाम उदाहरणों के साथ जारी किये थे, मगर नतीजा ढाक के तीन पात।
इस समय जो संकट पैदा हुआ है उसके केन्द्र में जो मामला है वह सीधे अमित शाह और उनके ज़रिए उनके आक़ा नरेन्द्र मोदी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में सत्ता तंत्र एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देगा इसे निपटाने में। असन्तुष्ट जजों की कुछ बातें सुन ली जायेंगी, कुछ ऊपरी ‘’सुधार’’ कर दिये जायेंगे और धीरे-धीरे सब फिर पटरी पर आ जायेगा। कुछ लोग चार जजों को जबरन क्रान्तिकारी बनाये दे रहे हैं, या इस संकट को फ़ासिस्टों के अन्त की शुरुआत घोषित किये दे रहे हैं, उन्हें अन्त में निराशा ही हाथ लगेगी। आने वाले दिन फ़ासिस्ट गुण्डों से भीषण लड़ाई के दिन होने वाले हैं। कोई भी ख़ुशफ़हमी पालना घातक होगा और अपने सामने मौजूद असली कठिन कार्यभारों से बचने का बहाना साबित होगा।
दरअसल, ऐसे सारे विभ्रमों की जड़ सामाजिक–आर्थिक विश्लेषण का अभाव और इतिहास से कोई सबक़ नहीं लेने की आदत है। आज का फ़ासीवाद बुर्जुआ व्यवस्था के एक ऐसे असाध्य व्यवस्थागत संकट की उपज है, जहां से वापस बुर्जुआ जनवाद के “बेहतर दिनों” की ओर लौटना मुमकिन ही नहीं है। इसीलिए बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा या उसकी कोई भी पार्टी आज फ़ासीवाद के विरुद्ध प्रभावी ढंग से संघर्ष नहीं कर सकती। मेहनतकशों के विभिन्न जुझारू संगठनों–मंचों–आन्दोलनों का संयुक्त मोर्चा ही फ़ासिस्टों से सड़कों पर मुक़ाबला कर सकता है। इस मोर्चे के साथ मध्यवर्ग के रैडिकल हिस्से को भी जोड़ा जा सकता है किसी हद तक। यह भूलना नहीं होगा कि फ़ासीवाद मध्यवर्ग का ज़मीनी स्तर से संगठित एक धुर–प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है, और मेहनतकश वर्गों का एक जुझारू क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन ज़मीनी स्तर से खड़ा करके ही इसे शिकस्त दी जा सकती है।
मज़दूर वर्ग और सभी मेहनतकशों को महज़ आर्थिक संघर्षों के गोल-गोल दायरे में घूमने से बाहर लाना होगा, उन्हें क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षा देनी होगी और राजनीतिक माँगों के लिए लड़ने हेतु संगठित करना होगा, ज़मीनी स्तर पर उनकी संस्थाएँ (सोवियत, कम्यून, सिटी कौंसिल, फैक्ट्री कौंसिल जैसी) संगठित करनी होंगी और फिर फ़ासिस्टों का मुकाबला करने के लिए ‘फै़क्ट्री-100’ जैसे मज़दूरों के जुझारू दस्ते बनाने होंगे, जैसाकि कम्युनिस्ट नेतृत्व में जर्मनी के मज़दूरों ने किया था। धर्म और जाति की राजनीति और फ़ासीवाद के विरुद्ध सघन प्रचार एवं शिक्षा का अभियान चलाना होगा। इसी लाइन पर मध्य वर्ग के छात्रों-युवाओं को भी संगठित करना होगा। फ़ासीवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चे में सभी मज़दूर वर्गीय संगठनों-मंचों-आन्दोलनों को साथ लाने की कोशिश करनी होगी। आज के समय में ऐसे किसी मोर्चे में किसी भी बुर्जुआ पार्टी के शामिल होने की कोई सम्भावना नहीं है। बुर्जुआ संसदवाद के विरुद्ध मज़दूरों में सतत प्रचार करते हुए रणकौशल के तौर पर संसद का इस्तेमाल भी वांछनीय है। पर मुख्य फै़सला संसद में नहीं, सड़कों पर संघर्ष में होगा। आज फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष की एक कड़ी है, न कि इसका उद्देश्य किसी किस्म के बुर्जुआ जनवाद की स्थापना है। व्यवस्थागत संकट से ग्रस्त आज के पूँजीवादी समाज में फ़ासीवाद एक प्रभावी और वर्चस्वकारी शक्ति के रूप में अपनी मौजूदगी बनाये रखेगा। यदि फ़ासिस्ट पार्टी सत्ता में न भी रहे तो भी समाज में फ़ासिस्टों का उत्पात जारी रहेगा। जो अन्य बुर्जुआ पार्टियाँ चुनाव जीतकर सत्ता में आयेंगी, वे भी फ़ासिस्टों की आर्थिक नीतियों को ही कुछ हेर-फेर के साथ जारी रखेंगी और निरंकुश दमन के रस्ते पर ही चलेंगी। पूँजीपति वर्ग ज़ंजीर में बँधे शिकारी कुत्ते की तरह फ़ासीवाद के इस्तेमाल का विकल्प अपने हाथों में सुरक्षित रखेगा। इसलिए आज फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष को निर्णायक बनाने का मतलब है पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष को उसके फै़सलाकुन अंजाम की दिशा में आगे बढ़ाना।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2018
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Kripya aage se apne samachar, lekh ityadi prakashnarth mujhe bhijwate rahiega. Dhanyawad
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