घातक तथा व्यापक प्रभाव डालने वाले समाचार
दिनेश बैस
हाल ही में आये दो साधारण से समाचार, भविष्य में अपने निहितार्थ में व्यापक तथा घातक प्रभाव डालने वाले हो सकते हैं—
एक अपुष्ट सा समाचार आया कि यू पी विजय से उन्मादित भाजपा कार्यकर्ता, घर-घर जाकर झँडे लगायेंगे। ’मेरा घर, भाजपा का घर’ के नाम पर। देश में कोई ऐसा बंधन नहीं है कि कौन अपने घर पर कौन सा झँडा लगाये। बस, वह झंडा प्रतिबंधित नहीं होना चाहिये। ऐसा भी नहीं है कि कोई अपने घर पर कोई झंडा लगाये ही। काश कि यह आया गया सा समाचार ही हो। परंतु जिस दौर में यह तय करने की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ रही हो कि क्या खाना है, क्या पहनना है, किसके साथ घूमना है, किसके साथ बैठना है, उस दौर में ऐसे समाचार आशंकित करते हैं। सिहरन पैदा करते हैं कि घरों पर पार्टी के झंडे लगाना, कहीं लोगों को चिन्हित करने का षड्यंत्र न बन जाये। उनका झंडा लगाने के प्रति असहमति, कहीं आपकी मुसीबत न बन जाये। चिन्हित करने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, सम्भवतः इस पर चर्चा करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये।
कुछ ऐसे ही आशंकित करने वाला एक समाचार और आया— ’अमर उजाला’ के एक समाचार के अनुसार, रविवार, 14 मई को, लखनऊ में, उत्तर प्रदेश के अनिर्वाचित मुख्य मंत्री योगी, आदित्यनाथ ने प्रश्न किया है कि बहुसंख्यकों को गाली देने वाले मानवतावादी कैसे हो सकते हैं। वे महाराज सुहेलदेव हिंदू विजयोत्सव को सम्बोधित कर रहे थे। समाचार बताता है कि वे इतना ही नहीं बोले अपितु आर एस एस की पूरी तरह पक्षधरता करते हुये यह भी कहा कि आर एस एस निष्पक्ष भाव से मलिन बस्तियों में काम करके राष्ट्रीयता का भाव पैदा करता है तो उसे साम्प्रदायिक कहा जाता है। मगर जिन्होंने तुष्टिकरण की नीति से समाज को बांटने का काम किया, जो बहुसंख्यक तथा महापुरुषों को गालियां देते हैं, वे खुद को मानवतावादी कहते हैं। एक चुनौती की तरह उन्होंने कहा कि कौन साम्प्रदायिक है, कौन मानवतावादी है, इस पर एक बार खुल कर बहस हो जानी चाहिये।
यू पी में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने तथा के मुख्य मंत्री बनने के बावज़ूद इस तरह की बातें नहीं हों तो आश्चर्य होगा। लेकिन अब यह भी हुआ है, कि कभी मुश्किल की घड़ियों में, संघ को सांस्कृतिक संगठन घोषित कर, राजनीति से सुरक्षित दूरी बनाये रखने वाला संगठन, अब प्रत्यक्ष रूप से राजनीति संचालित कर रहा है। वह भी सत्ता की राजनीति। देश-भक्ति, देशद्रोह के उसने अपने पैमाने गढ़ लिये हैं। राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद के नाम पर उसकी दृष्टि संकीर्ण से संकीर्णतम होती जा रही है। ऐसे में फतवों की तरह उसके बयान आ रहे हैं। प्रतिरोध का कोई भी स्वर उसे सुहा नहीं रहा है। सत्ता पक्ष के चुने हुये जनप्रतिनिधियों की ओर से, पुलिस पर जिस प्रकार के हमले हुये हैं, वे गवाही देते हैं कि मनमानी करने की उसकी राह में आने वाली किसी भी संवैधानिक संस्था को वह विशेष महत्व नहीं दे रहा है। सामान्यतः तो उस ओर से उपेक्षा भाव ही है। किसी भी तरह की अराजकता से उसे कोई गुरेज नहीं है। और, यह सब हो रहा है सुशाषन तथा राष्ट्रवाद के नाम पर। इस माहौल में बड़ी मुसीबत यह भी है कि अपने सुव्यवस्थित कुप्रचार तंत्र के माध्यम से, बहुसंख्यक सवर्ण तथा बड़ी हद तक पिछड़ों और दलितों के दिमाग़ में भी वह यह बैठाने में सफल हुआ है कि उसका रास्ता सही है। अकारण नहीं है कि कुछ भी ठीक न चलने के बावजूद यह वर्ग कहीं असंतोष महसूस नहीं कर रहा है। बल्कि इस ओर ध्यान दिलाने पर इस वर्ग की ओर से सलाह आती है कि पिछले शाषनों में जो कुछ हुआ है, उसे ठीक करने में समय लगेगा। लॉ एण्ड ऑर्डर की व्यवस्था की ही बात करें तो उत्तर प्रदेश का चुनाव गुंडा-राज समाप्त करने के नारे के साथ लड़ा गया था। शायद ही कहीं से लग रहा हो कि बदले निज़ाम में भी साधारण से लेकर जघन्यतम अपराधों तक में कोई कमी आयी हो। लेकिन इस वर्ग में कतई बेचैनी प्रतीत नहीं होती है। कोई प्रश्न खड़े करने की मानसिकता में नहीं होता है। जो सवाल उठाते हैं, उन पर तोहमत और जड़ दी जाती है।
अधिक चिंता यह नहीं होनी चाहिये कि सत्ता कैसे लोगों द्वारा संचालित हो रही है। वह भी लगभग विपक्षहीन वातावरण में, चिंता यह होनी चाहिये कि कम से कम बहुसंख्यक समुदाय या तो सत्ता की इस शैली का चरित्र समझ नहीं रहा है या उसे यह शैली स्वीकार्य है। असहिष्णु शाषन शैली, उसकी पसंद बनती जा रही है। अल्प संख्यक समुदायों को तो छोड़ दीजिये, बहुसंख्यक समुदाय के भी दलितों, पिछड़ों, स्त्रियों पर हमले उसे विचलित नहीं कर रहे हैं। इस आलेख को लिखते-लिखते एन डी टी वी से फ्लैश हो रहा है कि झारखंड के पूर्व सिंह भूम में, बच्चा चुराने के संदेह में, भीड़ ने, तीन लोगों को पीट-पीट कर मार डाला। पुलिस के हस्तक्षेप करने पर उस पर भी हमला हुआ। पूर्व में ऐसी घटना पड़ौस के सराय केला में घट चुकी है। वहाँ तीन पशु व्यापारी भीड़ द्वारा मार दिये गये थे।
सत्ता-समर्थक वर्ग ऐसी घटनाओं से विचलित नहीं हो रहा है। इनके पक्ष में तर्क गढ़ने बैठ जाता है। रोटी-कपड़ा-मकान-शिक्षा- स्वास्थ्य-रोजगार जैसे मुद्दे उसके लिये गौड़ हो चुके हैं। इन पर वह चर्चा ही नहीं करना चाहता है। वह भी तब, जब वह खुद इन अभावों से जूझ रहा है। कम से कम रोजगार जैसे मुद्दे को तो वह आरक्षण के पाले में गेंद डाल कर मुक्त हो लेता है। वह यह नहीं समझना चाहता है कि आरक्षण केवल सरकारी नौकरियों मे प्रभावी है। सरकारी नौकरियों के बड़े श्रोत निरंतर विनिवेश का शिकार होकर निजी क्षेत्र में जा रहे हैं। और, निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा श्रोत, आई टी सेक्टर, रोजगार देने के बजाये प्रति वर्ष दो लाख नौकरियां कम करने पर आमादा है।
ऐसे माहौल में योगी धर्म निरपेक्षता-मानवता-दलित-महिला-अल्पसंख्यक जैसे मुद्दों पर बहस करवाना चाहते हैं तो किससे। प्रगतिशील, वाम, नास्तिकों की जो अवधारणा इन मुद्दों को लेकर है, उससे तो वे पहले ही असहमत ही नहीं, कुपित भी हैं। तो स्पष्ट है कि उनकी मंशा इन मुद्दों को अपने ही वर्ग द्वारा मनमाफिक परिभाषित करवाने की ही होगी। चाहत यह होगी कि देश उनके द्वारा गढ़ी परिभाषा स्वीकर करे। यह सोचना भ्रामक होगा कि इस की अवधारणा योगी अलग से लेकर आये होंगे। भूलना यह नहीं चाहिये कि संघ के असंख्य अदृश्य मुँह हैं।
ऐसे में वे क्या करें जो आदमी से आदमी के बीच विभाजन के विरुध्द जूझ रहे हैं। उनका तो मिशन ही सामाजिक सम्मान तथा समानता है। यह वर्ग बहुत बड़ा है। बहुत जुझारू है। अकेला नहीं है। जहाँ भी अन्याय है, अपमान है, असमानता है, वहाँ जूझ रहा है। लेकिन विभक्त है। उसकी अपनी समझ है। अपने अहं हैं। जबकि ऐसा होना नहीं चाहिये। कुछ ऐसी ही स्थितोयों के लिये शायद दुष्यंत कुमार लिखते हैं— ’बाढ़ की सम्भावनायें सामने हैं, और नदी किनारे घर बसे हैं।’
मज़दूर बिगुल, जून 2017
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