मोदी की नोटबन्दी ने छीने लाखों मज़दूरों से रोज़गार
लखविन्दर
मोदी सरकार द्वारा पिछले वर्ष नवम्बर में घोषित की गयी नोटबन्दी से काले धन का कुछ भी नहीं बिगड़ा। न ही सरकार का ऐसा कोई इरादा ही था। काले धन और भ्रष्टाचार के ख़ात्मे की सभी बातें हवाई थीं। पिछले आठ महीनों में यह साबित हो चुका है। जब देश की साधारण जनता बैंकों के सामने लम्बी लाइनों में खड़ी कर दी गयी थी कोई भी काले धन का मालिक इन लाइनों में खड़ा नहीं दिखा। जब सैकड़ों लोग मुद्रा की कमी के कारण बीमारियों का इलाज न हो पाने, भोजन न ख़रीद पाने, आदि के कारण मर रहे थे, आत्महत्याएँ कर रहे थे उस समय काले धन का कोई मालिक नहीं मरा। किसी भ्रष्टाचारी ने आत्महत्या नहीं की। नोटबन्दी भारत के मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए किसी महामारी से कम नहीं थी। इसने जनता की ज़िन्दगी में इतनी बड़ी तबाही मचायी है, उसका पूरा लेखा-जोखा कर पाना सम्भव नहीं है। इस तबाही का एक पक्ष यह है कि देश के लाखों मज़दूरों को नोटबन्दी के कारण बड़े स्तर पर बेरोज़गारी-अर्धबेरोज़गारी का सामना करना पड़ा है। मोदी सरकार भले कितने भी झूठे दावे करती रहे, बिकाऊ मीडिया भले ही नोटबन्दी के झूठे फ़ायदे गिना-गिनाकर लोगों को गुमराह करने की कितनी भी कोशिशें क्यों न करे, लेकिन असल में सच्चाई यही है।
नोटबन्दी वाली, पिछले वर्ष की आखि़री तिमाही के बारे में जारी लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि मैन्युफ़ैक्चरिंग, ट्रांसपोर्ट, सूचना-तकनीक सहित विभिन्न क्षेत्रों में क़रीब दो लाख कच्चे-अस्थाई-दिहाड़ी-पार्ट टाइम मज़दूरों का रोज़गार छिना है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ये सरकारी आँकड़े पूँजीपतियों द्वारा लेबर ब्यूरो को उपलब्ध करवायी गयी जानकारी पर आधारित हैं। यह जानकारी उन कच्चे-अस्थाई-दिहाड़ी मज़दूरों के बारे में है जिनका रिकॉर्ड पूँजीपति रखते हैं। लेकिन वास्तव में काम पर रखे जाने वाले ज़्यादातर मज़दूरों का रिकॉर्ड ही नहीं रखा जाता। इसलिए उनकों काम से निकाले जाने का भी कोई रिकॉर्ड नहीं होता। इसलिए नोटबन्दी के दौरान छोटे-बड़े कारख़ानों और सभी कार्यस्थलों से सम्बन्धित मज़दूरों के रोज़गार छिनने की लेबर ब्यूरो द्वारा पेश तस्वीर समूची तस्वीर नहीं है। रोज़गार छिनने के वास्तविक आँकड़े तो इससे भी कहीं ज़्यादा भयानक होंगे।
ऐसा नहीं है कि नोटबन्दी ने ही बेरोज़गारी की समस्या पैदा की है। यह समस्या तो पहले से ही मौजूद है। बेरोज़गारी की समस्या पूँजीवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग है। इस व्यवस्था के रहते हुए समाज कभी भी इस समस्या से छुटकारा हासिल नहीं कर सकता। लेकिन इस व्यवस्था की सेवक राजनीतिक पार्टियाँ जनता को लुभाने के लिए इसी व्यवस्था के भीतर ही बेरोज़गारी को हल कर देने के झूठे वादे करती हैं। सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा ने भी लोगों को बड़े स्तर पर रोज़गार देने के वादे किये थे। नरेन्द्र मोदी ने तो प्रत्येक वर्ष दो करोड़ लोगों को रोज़गार देने का वादा कर दिया। लेकिने ये दो करोड़ रोज़गार तो क्या पैदा होने थे, नोटबन्दी द्वारा लाखों मज़दूरों का रोज़गार छीन लिया गया। इस तरह नोटबन्दी से बेरोज़गारी की समस्या और अधिक भयानक बन गयी। वैसे तो नोटबन्दी के दौरान यह साफ़ दिख ही रहा था कि मज़दूरों की नौकरियाँ छिन रही हैं। ख़ासकर दिहाड़ी पर काम करने वाले या कच्चे मज़दूरों के रोज़गार छिनना सबके सामने था। लेकिन मोदी सरकार द्वारा नोटबन्दी के नुक़सानों को बेशर्मी से झुठलाया जा रहा था। मोदी सरकार की पोल इसके श्रम मन्त्रालय के लेबर ब्यूरो द्वारा जारी इस रिपोर्ट ने ही खोल दी है।
अर्थव्यवस्था पहले ही मन्दी का शिकार थी। नोटबन्दी ने अर्थव्यवस्था को और अधिक मन्दी की ओर धकेल दिया। भाजपा ने विकास के, जनकल्याण, भ्रष्टाचार के ख़ात्मे के बड़े-बड़े दावे करते हुए केन्द्र में सरकार क़ायम की थी। नरेन्द्र मोदी को इस तरह से पेश किया गया जैसे वह सारी समस्याएँ छू-मन्तर कर देगा। अच्छे दिनों का सपना दिखा करके जनता को भरमाया गया। लेकिन ढाई वर्षों के दौरान मोदी सरकार ने बदनामी करवाने के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये थे। इसके सारे दावों की हवा निकल गयी। जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाने के लिए, भ्रष्टाचार, काले धन विरोधी हीरो के रूप में नरेन्द्र मोदी को पेश करने के लिए, भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ नक़ली लड़ाई को वास्तविक दिखाने के लिए नोटबन्दी का महाड्रामा रचा गया। सरकार को यह परवाह नहीं थी कि इससे ग़रीब मज़दूरों-मेहनतकशों की ज़िन्दगी में क्या तबाही मचने वाली है। इसमें कोई हैरान होने वाली बात भी नहीं है। लुटेरे हुक्मरान अपने हितों की पूर्ति के लिए जनता पर किसी भी तरह का क़हर बरपा सकते हैं।
पहले ही भयानक ग़रीबी की मार झेल रहे, बुनियादी ज़रुरतों की पूर्ति के लिए दिन-रात जूझने वाले मज़दूरों की ज़िन्दगी मुद्रा की कमी ने और भी मुश्किल कर दी थी। ऊपर से रोज़गार छिनने के चलते परििस्थतियाँ और भी भयानक बन गयी। यह नोटबन्दी स्त्री मज़दूरों के लिए अधिक मुश्किल समय लेकर आयी। नौकरी छिनने के बाद मर्द मज़दूरों के लिए लेबर चौराहों में जाकर खड़े होने जैसे विकल्प मौजूद थे, जिससे कुछ दिन ही सही पर कुछ कमाई तो की ही जा सकती है। लेकिन स्त्री मज़दूरों के लिए ऐसे रास्ते बन्द हैं।
नोटबन्दी के कारण भोजन, दवा-इलाज, शिक्षा, कमरों का किराया, ट्रांसपोर्ट जैसी बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करने के लिए ग़रीब मज़दूरों की मुश्किलें और बढ़ गयीं। नोटबन्दी के कारण हुई सैकड़ों मौतें ग़रीबों पर बरपे क़हर का ही एक पहलू है। जि़न्दा मज़दूर अपनी साँस कैसे चालू रखें, कैसे अपने दिन काटें, इस बारे में सोचना भी कितना दर्दनाक है। सोचिए, जिन्होंने यह क़हर झेला है उन्होंने कितना दर्द सहा होगा। लेकिन देश के हुक्मरान नोटबन्दी को बहादुरी का नाम देते हैं। इसे देश भक्ति कहते हैं।
नोटबन्दी को काले धन पर सर्जीकल स्ट्राइक कहकर प्रचारित किया गया है। जिस तरह मज़दूरों को रोज़गार गँवाने पड़े हैं, उससे साफ़ देखा जा सकता है कि इस सर्जीकल स्ट्राइक का असल निशाना ग़रीब मज़दूर-मेहनतकश बने हैं।
मज़दूर बिगुल, जून 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन