हरियाणा में दलित उत्पीड़न के खि़लाफ़ संयुक्त प्रदर्शन!
बिगुल संवाददाता
हरियाणा के कैथल ज़िले के गाँव में 1 मई को हुई दलित उत्पीड़न की घटना के विरोध में तथा न्याय की माँग को लेकर अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच, नौजवान भारत सभा, जन संघर्ष मंच हरियाणा व अन्य जन संगठन व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कैथल लघु सचिवालय पर संयुक्त प्रदर्शन किया। ज्ञात हो कि 1 मई को बालू गाँव में मौजूदा सरपंच व उसके गुण्डा तत्वों द्वारा दलित नौजवानों पर हमला कर दिया गया। इसके पीछे की वजह यह थी कि उन नौजवानों ने सरपंच के दसवीं के दस्तावेज़ों को लेकर एक आरटीआई डाली थी। इस बात को लेकर गाँव के सरपंच ने उन्हें डराने-धमकाने के लिए जातिगत गोलबन्दी करके उन पर हमला बोल दिया, जिसमें कई नौजवान बुरी तरह घायल हो गये तथा दलित बस्ती में तोड़-फोड़ भी की गयी। इस पूरी घटना पर पुलिस ने बेशर्मी से दबंगों का पक्ष लेते हुए एससी/एसटी एक्ट के तहत कोई कार्रवाई नहीं की है। यहाँ तक एफ़आईआर लिखने में काफ़ी आनाकानी की और एफ़आईआर में कमज़ोर धाराएँ लगाकर आरोपियों को बचाने की पूरी कोशिश की है। इस पूरी घटना में कैथल पुलिस प्रशासन का सवर्णवादी रवैया साफ़ उजागर हो रहा है। संयुक्त प्रदर्शन में डीसी संजय जून को ज्ञापन सौंपा गया।
ज्ञापन में ये तीन मुख्य माँगें रखी गयीं: 1) इस घटना के दोषियों – बालू गाँव के सरपंच व अन्य नामजद लोगों को जल्द से जल्द गिरफ़्तार किया जाये, 2) इस मामले के जाँच अधिकारी डीसीपी सतीश गौतम को हटाकर ये केस किसी दूसरे अधिकारी को सौंपा जाये, 3) इस घटना में घायल हुए लोगों को मुआवज़ा दिया जाये।
अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच के अजय ने बताया कि हरियाणा में चाहे हुड्डा सरकार हो या खट्टर सरकार, दलित उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार जारी हैं। मिर्चपुर, गोहाना से लेकर भगाणा और अब कैथल, कुरुक्षेत्र और करनाल में बर्बर दलित उत्पीड़न की घटनाएँ भाजपा सरकार की ”सामाजिक समरसता” की नौटंकी का पर्दाफ़ाश कर देती हैं। मौजूदा घटना की शुरुआत तब हुई जब गाँव के कुछ दलित युवकों द्वारा मौजूदा सरपंच के दसवीं के प्रमाण-पत्र को जाँचने के लिए आरटीआई लगायी गयी थी। लेकिन सरपंच पक्ष के लोगों ने आरटीआई का जवाब क़ानूनी तरीक़े से न देकर दलित युवकों को डराने-धमकाने की कोशिश की।
1 मई को सरपंच व दबंग जाति के कुछ लोगों ने दलित बस्ती में दलित युवकों को जातिसूचक गालियाँ व जान से मारने की धमकी दी। इसके बाद शुरू हुई हिंसा में दलित बस्ती पर दबंग जाति के लोगों ने भयंकर हमला कर दिया। जिसमें दो दलित युवक गम्भीर रूप से घायल हो गये व आधे दर्जन लोगों को भी चोटें आयीं। घटना के बाद पाँच दलित परिवार भय के कारण गाँव छोड़ चुके हैं। बच्चों का स्कूल जाना बन्द है, साथ ही दलित आबादी के लिए कुछ डेरी व किरयाना स्टोर ने सामान देना भी बन्द कर दिया है।
पुलिस-प्रशासन के ग़ैर-जि़म्मेदाराना रवैये के कारण दलित परिवार असुरक्षा के मौहाल में हैं। दूसरी तरफ़ कुछ दबंग जाति के बदमाश कि़स्म के लोग इस मुद्दे को जातिगत रूप देना चाहते थे, ताकि दलित युवकों को सबक़ सिखाया जा सके और दलित परिवारों के हक़-अधिकारों की आव़ाज को दबाया जा सके। सरपंच का पद एक जनप्रतिनिधि का पद है, इसलिए क़ानूनन जनता के प्रति उसकी जवाबदेही बनती है। ऐसे मुद्दे पर सभी गाँववासियों को चाहे वे किसी भी जाति-धर्म के हाे, सोचना चाहिए यदि पंचायत में पारदर्शिता और जवाबदेही नहीं होगी तो हमारा जनप्रतिनिधियों को चुनने का क्या मक़सद है? अगर हम सही मायने में गाँव या देश से जाति-व्यवस्था के ज़हर को बाहर निकालना चाहते हैं तो हमें न्याय और इन्साफ़ के पक्ष में खड़ा होना होगा।
साथ ही हर जाति के ग़रीबों के खि़लाफ़ जारी भयंकर लूट-खसोट की इस व्यवस्था के खि़लाफ़ लड़ते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ग़रीबों में भी सबसे असुरक्षित व कमज़ोर दलित जाति के मेहनकतकश हैं, इसीलिए वे आर्थिक लूट के अलावा सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक अपराधों का भी निशाना सबसे ज़्यादा बनते हैं। पिछले तीन दशकों में जितने भी दलित-विरोधी अत्याचार हुए हैं, ज़रा उनके आँकड़े उठाकर देखें कि उनमें पीड़ित दलित कौन हैं? क्या वे नेता और नौकरशाहों के वर्ग से आते हैं? क्या वे मालिकों या ठेकेदारों के वर्ग से आते हैं? नहीं! लगभग 99 प्रतिशत मामलों में ग़रीब मेहनतकश दलित ही ऐसे काण्ड का निशाना बनते हैं। साथ ही ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाला आमतौर पर धनी व खाते-पीते किसानों व शहरी नवधनाढ्यों का वर्ग है जिन्हें सत्ता व तमाम चुनावी पार्टियों का संरक्षण प्राप्त है। इससे क्या नतीजा निकलता है? यह कि इन दलित-विरोधी अपराधों के खि़लाफ़ मुख्य तौर पर ग़रीब दलित मेहनतकश व अन्य जातियों के मेहनतकश एकजुट होकर ही लड़ सकते हैं। निश्चित तौर पर, ग़ैर-दलित जातियों के मेहनतकश-मज़दूरों व ग़रीब आबादी में मौजूद जातिगत भेदभाव व पूर्वाग्रहों के विरुद्ध लगातार कठोर संघर्ष चलाये बिना एकजुटता स्थापित करना नामुमकिन है।
मज़दूर बिगुल, मई 2017
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