कोई फ़ैक्टरी, कारख़ाना या कोई छोटी-बड़ी कम्पनी हो, जीवन बदहाली और नर्क जैसा ही है 

सन्दीप, ग़ाजि़याबाद

मेरा नाम संदीप है और मैं डोमिनोस पिज़्ज़ा रेस्टोरेण्ट में काम करता था। मैं वहाँ पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय का काम करता था। इण्टरव्यू के वक़्त हमें यह बताया गया था कि हम सब एक फै़मिली (परिवार) की तरह हैं। पर यह ऐसा परिवार है जिसमें सबसे ऊपर के सदस्य (मैनेजर) हैं और वे नीचे के सदस्यों से गाली बककर बात करते थे। इस बात पर अगर कोई सवाल उठाता या मना करता तो कहते कि परिवार में बड़ों से जुबान नहीं लड़ाते हैं। मैनेजर हमसे अपने निजी काम कराते थे। मना करने पर कहते कि सैलरी तो हम से ही लोगे। नौकरी चले जाने के डर से हम लोगों को उनकी बात माननी ही पड़ती थी।

जहाँ पर पिज़्ज़ा और डिब्बे तैयार करने की जगह थी, वहाँ पर हवा की आवाजाही की जगह तक नहीं थी। उसकी वजह से शुरू में उल्टी होने की अवस्था बनी रहती थी, पर बाद में धीरे-धीरे आदत सी हो गयी।

हमें यह भी बताया जाता था कि ‘कस्टमर’ मेहमान की तरह होता है। अगर वह बदतमीज़ी से बात करे और गाली भी बके तो सुन लेना, कुछ बोलना मत। माफ़ी भी हमें ही माँगनी होती थी क्योंकि अगर उसने शिकायत कर दी तो हमें नौकरी से भी निकाला जा सकता था। इसका सामना भी ज़्यादातर हमें ही करना होता था क्योंकि अन्त में पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय को ही पिज़्ज़ा पहुँचाना होता है।

मेरी नौकरी का समय शाम 7 से रात 11 बजे (4 घण्टे) तक था जिसमें मुझे 46 रुपये प्रति घण्टा के हिसाब से तनख्वाह दी जाती थी। मुझे हमेशा पूरा कैश हैण्ड ओवर करने और सभी काम निपटाने में 12 बज जाते थे और कभी-कभी तो 12:30 भी हो जाते थे जिसका मुझे कोई पैसा नहीं दिया जाता था।

 जब कोई फ़ैस्टिवल (त्यौहार) होता है तो उस दौरान हमसे कहा जाता था कि जो ज़्यादा डिलीवरी करेगा, उसे 100 या 150 रुपये मिलेंगे। इस कॉम्पीटिशन में सभी लोगों से अत्यधिक काम लिया जाता था और फिर बाद में पैसे देने में भी काफ़ी झिकाते थे। पैसे ऐसे देते थे जैसे एहसान कर रहे हों।

मतलब यहाँ भी हर तरह से लाठी और भैंस रुपये-पैसे वालों की ही है, मेहनत-मशक्कत करने वालों के लिए चाहे कोई फ़ैक्टरी, कारख़ाना या कोई छोटी-बड़ी कम्पनी हो, जीवन बदहाली और नर्क जैसा ही है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2017


 

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