सुधार के नाम पर मेडिकल शिक्षा को बर्बाद करने की तैयारी
डॉ. नवमीत
मार्च 2016 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मन्त्रालय द्वारा गठित संसदीय समिति ने देश में मेडिकल एजुकेशन की लगातार ख़राब होती दशा पर रिपोर्ट सौंपी थी। रिपोर्ट में मुख्यतः ज़ोर मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इण्डिया (एमसीआई) यानी भारतीय चिकित्सा परिषद और इसकी कार्यप्रणाली पर दिया गया है। किसी भी देश में मेडिकल शिक्षा को लागू करने और इसकी गुणवत्ता को देखने के लिए विशेष प्रावधान होता है। हमारे देश में यह काम एमसीआई करती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में मेडिकल एजुकेशन का ढाँचा ख़राब हो चुका है और इसके लिए एमसीआई का मौजूदा संविधान जि़म्मेदार है। जिस समय यह रिपोर्ट तैयार हो रही थी उसी समय सरकार ने नीति आयोग की देखरेख में भारतीय चिकित्सा परिषद एक्ट 1956 की समीक्षा के लिए एक तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया। 7 अगस्त तक इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली। कमेटी ने सुझाव दिया कि पुराने एमसीआई एक्ट को निरस्त कर दिया जाये और एक राष्ट्रीय मेडिकल आयोग का गठन किया जाये। कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अच्छी मेडिकल एजुकेशन का होना बहुत ज़रूरी है। अच्छी मेडिकल एजुकेशन के लिए एक लचीला और कार्यशील फ्रे़मवर्क होना ज़रूरी है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि एमसीआई एक्ट इसी चीज़ को ध्यान में रखकर बनाया गया था लेकिन यह समय के साथ नहीं चल पा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार पूरे ही ढाँचे में इतने नुक्स हैं कि इससे मेडिकल एजुकेशन और स्वास्थ्य सेवाएँ दोनों ही बुरी तरह से प्रभावित हो रही हैं। नीति आयोग की इस कमेटी के सुझाव मुख्यतः संसदीय स्टैण्डिंंग कमेटी और रणजीत रॉय चौधरी एक्सपर्ट कमेटी (जुलाई 2015) की रिपोर्टों पर आधारित हैं। कमेटी ने एक रेगुलेटरी स्ट्रक्चर यानी नियामक संरचना के निर्माण का सुझाव दिया है और साथ में यह भी कि एक नये एक्ट के ज़रिये राष्ट्रीय मेडिकल आयोग का गठन किया जाये। संसदीय समिति ने भी केन्द्र सरकार को व्यापक सुधारों का सुझाव दिया था। संसदीय समिति ने कहा था कि एमसीआई पर और ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। एमसीआई के मौजूदा ढाँचे और कार्यप्रणाली के चलते देश की जनता को स्वास्थ्य सेवाएँ अच्छे तरीक़े से नहीं मिल पा रही हैं। इसलिए सरकार को मेडिकल शिक्षा में मौजूद बुराइयों को दूर करने और मेडिकल एजुकेशन के स्तर को अन्तर्राष्ट्रीय मानकों तक उठाने के लिए इसके पूरे ढाँचे में रेडिकल सुधार करने होंगे। नीति आयोग की इस कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट के मई 2016 में आये फ़ैसले का हवाला दिया था जिसमे कोर्ट ने रणजीत रॉय कमेटी के सुझावों पर अमल करने का आदेश दिया था।
बहरहाल प्रस्तावित ढाँचे के अनुसार मेडिकल एजुकेशन का राष्ट्रीय एजेंडा तय करने हेतु एक मेडिकल एडवाइजरी कौंसिल की स्थापना की जानी है जिसमें राज्यों और संघीय क्षेत्रों का भी प्रतिनिधित्व होगा। राष्टीय मेडिकल आयोग एक नीति निर्धारक बॉडी की तरह काम करेगी जिसके सदस्यों और अध्यक्ष का मनोनयन केन्द्र सरकार करेगी। इस तरह इसमें मुख्य शक्ति केन्द्र सरकार के पास रहेगी। साथ ही यह स्नातक चिकित्सा शिक्षा, परा स्नातक चिकित्सा शिक्षा, मेडिकल संस्थानों की मान्यता और आँकलन और इस पेशे की प्रैक्टिस के विनियमन के लिए चार अलग अलग स्वायत्त बोर्डों के गठन का भी प्रावधान करता है।
नीति आयोग की कमेटी का कहना है कि एमसीआई का मौजूदा स्वरूप शिक्षा प्रदाताओं के लिए एक बाधा बन गया है जबकि इसने मेडिकल एजुकेशन की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं किया है। यहाँ शिक्षा प्रदाताओं से मतलब प्राइवेट सेक्टर और कॉर्पोरेट के खिलाडियों से है जो मेडिकल शिक्षा को मुनाफ़े के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं या करना चाहते हैं। एमसीआई का मौजूदा ढाँचा संस्थानों के पहले से तय मानकों की बुनियाद पर होने वाले निरिक्षण पर आधारित है और यह मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता की बजाय इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज़्यादा फोकस करता है। नीति आयोग की कमेटी के अनुसार पहले से मानक तय करने की कोई ज़रूरत नहीं है, सिर्फ़ मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाना चाहिए। ठीक है कि मेडिकल शिक्षा समेत किसी भी क्षेत्र की शिक्षा की गुणवत्ता बेहद ज़रूरी चीज़ है लेकिन यहाँ नीति आयोग इंफ्रास्ट्रक्चर और मानकों के साथ शिक्षा की गुणवत्ता के अन्तर्सम्बन्धों को समझने में नाकाम रहा है या फिर जानबूझ कर इसको किनारे किया जा रहा है। बिना इंफ्रास्ट्रक्चर को ध्यान में रखे हुए और बिना मानक तय किये शिक्षा में गुणवत्ता किस प्रकार आएगी इसका कोई जवाब सरकार या नीति आयोग नहीं दे पा रहे हैं। इसके अलावा नीति आयोग कह रहा है कि मानकों पर खरा नहीं उतरने पर किसी संस्थान की मान्यता रद्द करने की ज़रूरत नहीं है। हालाँकि इससे पहले एमसीआई कुछ हद तक कुछ मेडिकल कॉलेजों की मान्यता मानकों पर खरा न उतरने के चलते रद्द करती आ रही थी। इसके पीछे नीति आयोग की कमेटी का तर्क है कि इससे एमसीआई को संस्थानों के ऊपर आवश्यकता से अधिक और नाजायज़ शक्तियाँ मिलती हैं जिनका इस्तेमाल भ्रष्टाचार के लिए किया जाता है। इसलिए कमेटी की सिफ़ारिश है कि संस्थानों (जिनमें मुख्यतः प्राइवेट संस्थान ही होते हैं) की मान्यता रद्द करने की बजाय रेटिंग सिस्टम लागू किया जाये। इसके अनुसार अच्छे मानकों वाले संस्थान को उच्च रेटिंग दी जाये और बुरे मानकों वाले संस्थान को नीचे वाली रेटिंग। कमेटी की सिफ़ारिश है कि निरिक्षण की बजाय शिकायत निवारण तन्त्र का निर्माण किया जाये और संस्थानों को ये सभी कमियाँ दूर करने का पूरा मौक़ा दिया जाये। जब बहुत बार मौक़ा मिलने पर भी संस्थान मानकों पर खरा नहीं उतरता तो उसकी मान्यता रद्द करने के बारे में सोचा जाये।
असल में नीति आयोग कमेटी की ये सभी सिफ़ारिशें पूरी तरह से बीजेपी की नीतियों से मेल खाती हैं। श्रम क़ानूनों में “सुधार” के नाम पर भी बीजेपी सरकार ने उनको खोखला बना दिया था। एक सुधार जो सरकार ने किया था वह यह था कि अब उद्योग नियमों के पालन का स्वप्रमाणपत्र दे सकेंगे, मतलब अपनी मर्जी से ख़ुद को सर्टिफिकेट। ऐसा ही कुछ सरकार मेडिकल शिक्षा में रेटिंग सिस्टम लागू करके करने जा रही है। एक अधिकारी का कहना है कि उद्योगों की तरह ही मेडिकल शिक्षा में इंस्पेक्टर राज चालू है जो विकास में बाधक है, इसलिए इसको ख़त्म करके कॉलेज मालिकों को छूट दी जानी चाहिए ताकि “विकास” का मार्ग प्रशस्त हो सके। नियमों को ख़त्म करने के लिए एक अन्य तर्क जो नीति आयोग दे रहा है वह यह है कि ज़्यादा कड़े नियम टेबल के नीचे से पैसे के लेनदेन की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। इसको रोकने के लिए नियमों में ढील देने की ज़रूरत है। संसदीय समिति ने भी कैपिटेशन फ़ीस का मुद्दा उठाया था और कहा था कि बहुत जगहों पर तो यह बहुत ज़्यादा है। ऐसा लगभग डेढ़ दशक से चल रहा है जबकि मेडिकल शिक्षा एक बिज़नस बनना शुरू हुआ था। इसको रोकने की बजाय नीति आयोग की कमेटी का कहना है कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की फ़ीस पर कोई नियन्त्रण न रखा जाये। इसका जो कारण कमेटी ने बताया है वह काफ़ी हास्यास्पद है। कमेटी का कहना है कि फ़ीस पर नियन्त्रण रखने से अन्दर खाते पैसे के लेनदेन को बढ़ावा मिलेगा, दूसरा ऐसा करने से प्राइवेट सेक्टर इस क्षेत्र में निवेश करने से कतरायेगा जिसकी वजह से देश में मेडिकल शिक्षा के प्रसार पर रोक लग जायेगी। इसलिए कैपिटेशन फ़ीस जैसी बुराइयों का बहुत बड़ा कारण फ़ीस पर नियन्त्रण ही है।
इसलिए कमेटी का कहना है कि प्राइवेट कॉलेजों की केवल कुछ सीटों की फ़ीस पर ही नियन्त्रण रखा जाये और बाक़ी को उनकी मर्जी पर छोड़ दिया जाये। इससे फ़ायदा यह होगा कि अमीरों से ज़्यादा पैसे लेकर ग़रीब छात्रों की कम फ़ीस की पूर्ति की जा सकेगी। अभी तक नियमों में ही सही (असल में ऐसा होता नहीं है), मेडिकल शिक्षा को एक नॉन प्रॉफिट व्यवसाय के रूप में ही मान्यता दी जाती है लेकिन कमेटी का कहना है कि ऐसा करने से इस क्षेत्र में निवेश कम हो रहा है जिसकी वजह से प्राइवेट शिक्षा प्रदाताओं की कमी हो रही है। दूसरा इसकी वजह से प्राइवेट संस्थान टेबल के नीचे से भ्रष्ट तरीक़े से मुनाफ़ा बना रहे हैं। इसलिए इन तमाम मौजूदा और आने वाले निजी संस्थानों को मुनाफ़ा कमाने की क़ानूनी छूट दे दी जाये।
अब होना तो यह चाहिए था कि सरकार पूरी शिक्षा प्रणाली सहित मेडिकल शिक्षा को भी अपने हाथ में ले और सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था करे। हर जि़ले में मेडिकल कॉलेज खोले जिसमें सही तरीक़े से परीक्षा के आधार पर चयन हो। इस तरह से देश की स्वास्थ्य सेवाओं में भी उल्लेखनीय सुधार होता। लेकिन यह करने की बजाय कमेटी का कहना है कि जि़लों में पहले से मौजूद सरकारी अस्पतालों को प्राइवेट सेक्टर के लिए खोल दिया जाये ताकि जनता के पास से रही सही सुविधाएँ भी छीन ली जायें। इसके अलावा अभी तक एमसीआई की सदस्यता के लिए चुनाव होते थे और केवल एक तिहाई सदस्यों का ही मनोनयन सरकार द्वारा किया जाता था। अब प्रस्ताव है कि चुनावों को बन्द कर दिया जाये और अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों को केन्द्र सरकार ही मनोनीत करे। हालाँकि चुनाव से भी कोई बहुत ईमानदार व्यक्ति नहीं चुने जाते थे, लेकिन अब तो सरकार केवल “अपने” लोगों को मनोनीत करेगी और इनमें से भी सिर्फ़ एक डॉक्टर होगा, बाक़ी ब्यूरोक्रेट्स होंगे।
देखने में लग सकता है और सरकार का भी कहना है कि ये सभी सिफ़ारिशें बहुत रेडिकल हैं व इनसे मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार ख़त्म हो जायेगा और शिक्षा की गुणवत्ता में भी सुधार होगा। साथ में स्वास्थ्य सेवाओं में भी बढ़ावा मिलेगा। लेकिन यह असल में मेडिकल एजुकेशन और स्वास्थ्य सेवाओं को यह पूरी तरह से पूँजीपतियों के हाथ में सौंप देने की साजिश है। साफ़ तौर पर दिख रहा है कि सरकार को न तो भ्रष्टचार से कोई मतलब है, न ही मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता से और न ही स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार से। सरकार को मतलब है तो बस प्राइवेट और कॉर्पोरेट सेक्टर को मुनाफ़ा पहुँचाने से। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार किसी भी देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद का पाँच प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर लगाना चाहिए लेकिन भारत दो प्रतिशत से भी कम लगाता है, बल्कि बीते वित्त वर्ष में तो सिर्फ़ 1.58 प्रतिशत ही लगाया था और इसमें सरकारी मेडिकल कॉलेजों पर लगाया गया पैसा भी शामिल है। ऐसे में एक तरफ़ तो सरकार विजय माल्या और तमाम पूँजीपतियों को लाखों करोड़ रुपये के लोन देती है, सब्सिडियाँ देती है जिनको लेकर या तो ये भाग जाते हैं या फिर इनका लोन माफ़ कर दिया जाता है। दूसरी तरफ़ जनता को स्वास्थ्य सेवाएँ ही उपलब्ध नहीं हैं। ऊपर से कोढ़ में खाज ये कि सरकार पहले से जर्जर हो चुके मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के पूरे सिस्टम को इन्हीं रक्तपिपासु पूँजीपतियों को सौंपने जा रही है ताकि ये लोग देश की जनता का और अधिक ख़ून निचोड़ कर अपनी मुनाफ़े की हवस शान्तकर सकें।
यह पूँजीवाद है तो जाहिर है इसमें पूँजीपतियों के मुनाफ़े का ही ध्यान रखा जायेगा। लेकिन अगर हम समाजवादी देशों का उदाहरण लें तो हमको ज़मीन आसमान का अन्तर नज़र आता है। चीन में क्रान्ति के बाद मेडिकल एजुकेशन की तरफ़ विशेष तौर पर ध्यान दिया गया और इसके आधार पर पूरे देश की मेहनतकश जनता के लिए स्वास्थ्य सेवाओं का तन्त्र क़ायम किया गया। सरकार की तरफ़ से नये मेडिकल कॉलेजों की स्थापना की गयी और तमाम मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों के स्वामित्व, फ़ण्डिंग और संचालन की जि़म्मेदारी ली गयी। प्राइवेट मेडिकल कॉलेज तो क्या प्राइवेट मेडिकल प्रैक्टिस तक का चलन बन्द हो गया। इनके परिणाम आश्चर्यजनक रहे थे। उदाहरण के तौर पर 1952 से 1982 तक, शिशु मृत्यु दर प्रति एक हज़ार पर 200 से घटकर 34 रह गयी थी और औसत आयु 35 से बढ़कर 68 वर्ष हो गयी थी। सिर्फ़ चीन ही नहीं बल्कि इससे पहले सोवियत संघ में और बाद में क्यूबा में भी मेडिकल एजुकेशन और स्वास्थ्य सेवाओं को क्रान्तिकारी तरीक़े से लागू किया गया और इनको सरकारी नियन्त्रण में रख कर विकसित किया गया जिसके आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिले थे। क्यूबा का स्वास्थ्य सेवाओं का ढाँचा तो आज भी पूरी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। वहाँ प्रति दस हज़ार की जनसंख्या पर क्यूबा में 67 डॉक्टर हैं जबकि भारत में यह अनुपात केवल 7 डॉक्टरों का है। उस पर भी सरकार पूरे ढाँचे को प्राइवेट हाथों में सौंपने की तैयारी कर रही है। ऐसे में सरकार की ईमानदारी और नीयत पर सवाल उठना लाजमी है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2017
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