देश में चल रही भूमण्डलीकरण की काली आंधी के बीच
चुनावी मौसम में सरकार खुशनुमा बयार बहाने में जुटी
सम्पादक मण्डल
लखनऊ। अब यह लगभग तय हो चुका है कि देश में लोकतंत्र का अगला महास्वांग (लोकसभा चुनाव) अप्रैल महीने में होने जा रहा है। इसलिए इस स्वांग में पार्ट अदा करने वाली सभी पार्टियां अपनी–अपनी पटकथा तैयार करने में जोर–शोर से जुट गयी हैं। तरह–तरह के चमकीले–भड़कीले मुखौटे तैयार किये जा रहे हैं, मतदाताओं को लुभाने–रिझाने के लिये नये–नये जुमले उछाले जा रहे हैं। चुनाव जीतने की गरज से इस बार भारतीय जनता पार्टी के उस्ताद दिमागों ने अंग्रेजी के एक जुमले को इधर खूब उछाला है–फील गुड फैक्टर। जब तबियत हरी–हरी सी महसूस होती है, मन को भला–भला सा लगता है तो इसे अंग्रेजी में कहते हैं ‘फील गुड’–यानी एक खुशनुमा अहसास। वाजपेयी–आडवाणी समेत केन्द्र सरकार के सभी बोलक्कड़ मंत्री और भाजपा के सभी मीडिया रागी नेता इन दिनों देश की जनता को यही खुशनुमा अहसास दिलाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। हमारी गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये विज्ञापनों में फूंककर हमें यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जा रही है कि वाजपेयी के शासनकाल में एक नये भारत का उदय हो रहा है। तरह–तरह के आंकड़े और नज़ीरें देकर साबित किया जा रहा है कि भाजपा गठबंधन सरकार के पिछले पांच सालों में चहुं ओर सुख–समृद्धि और शांति की खुशनुमा बयार बह रही है।
खुशनुमा बयार नहीं काली आंधी
देश की अर्थव्यवस्था की सेहत भली–चंगी दिखाने वाले जिन चमत्कारी आंकड़ों की गवाही देकर जनता के भीतर खुशनुमा अहसास उड़ेले जा रहे हैं उसके फर्जीवाड़े को उजागर करने के लिए पूंजीवादी अर्थशास्त्र की बारीकियों में जाने की जरूरत नहीं। कोई भी दुरुस्त दिमाग वाला औसत समझ का आदमी आसानी से यह महसूस कर सकता है कि देश मे भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और खुलेपन के नाम पर कोई खुशनुमा बयार नहीं वरन आम जनता की ज़िन्दगी को तबाह–बर्बाद करने वाली काली आंधी चल रही है।
आम जनता की तबाही–बर्बादी का आलम यह है कि एक इंसान बस जिंदा रहने के लिए अपनी बच्ची को सिर्फ दस रुपये में बेच देता हैं। फ़कत ज़िंदा रहने की कोशिश में लोग आम की जहरीली गुठलियां या जहरीली घास खाकर जिंदगी गंवा दे रहे हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता हो जब गरीबी-बेकारी से तंग आकर पूरे परिवार द्वारा आत्महत्या करने की खबरें सुर्खियां न बनती हों। लेकिन वाजपेयी–आडवाणी एण्ड कम्पनी कह रही है कि फील गुड। गांवों में गरीब किसान पूंजी की मार से जगह–जमीन से उजड़ते जा रहे हैं, रोजी–रोटी की तलाश में भागकर औद्योगिक नगरों में आ रहे हैं मगर यहां भी निजीकरण–छंटनी– तालाबंदी के कोड़े बरस रहे हैं। जिन्हें काम मिल भी गया तो सुबह से शाम तक हड्डियां गलाने–खपाने के बाद सिर्फ उतना ही मिल पा रहा है जितने में बस सांस चलती रह सके। जो पुराने परमानेण्ट मजदूर हैं उनकी भी छुट्टी करने का सिलसिला तेजी से चालू है जिससे अधिक से अधिक काम ठेके पर करवाये जा सकें। कानूनों में फेरबदल कर देशी–विदेशी पूंजीपतियों के हाथ खुले किये जा रहे हैं। लेकिन भाजपा वाले कह रहे हैं फील गुड।
दरअसल पिछले विधानसभा चुनावों में जो कामयाबी मिली है उससे भाजपा वालों की तबियत में जो हराभरापन आया है और केन्द्र सरकार अपने आका देशी–विदेशी पूंजीपतियों और धनिकों की जमातों को करों में राहत और तरह–तरह की जो रियायतें दे रही है उससे यह समूची बिरादरी अच्छा–अच्छा सा महसूस कर रही है। यही अहसास वे जनता को भी महसूस कराना चाहते हैं जिससे भाजपा की झोली वोटों से भर जाये।
अब उन आंकड़ों और दावों की असलियत भी जान ली जाये जिनके बूते वाजपेयी–आडवाणी एण्ड कम्पनी ‘फील गुड फैक्टर’ की शेखी बघार रही है। विदेशी मुद्रा भण्डार 100 अरब डालर का आंकड़ा पार करने, शेयर बाजार में उछाल और जसवन्त सिंह के मिनी बजट की असलियत क्या हैं?
विदेशी मुद्रा भण्डार की असलियत
विदेशी मुद्रा भण्डार 100 अरब डालर के रिकार्ड स्तर पर पहुंचने का खूब ढोल बजाया जा रहा है। इसकी असलियत यह है कि अंतरराष्ट्रीय वित्त बाजार में ब्याज दरों में भारी कमी के चलते अनिवासी भारतीय भारत के बैंकों में पैसे जमा कर रहे हैं क्योंकि यहां ब्याज दरें तुलनात्मक रूप से ऊंची हैं। इस विशाल राशि के इकट्ठा होने में भी सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र से ज्यादा उन भारतीय कामगारों का हाथ है जो विदेशों में अपनी कमाई को भारत के बैंकों में जमा कर रहे हैं। इस सच्चाई पर भी चर्चा नहीं की जा रही कि इस विदेशी मुद्रा भण्डार का अच्छा–खासा हिस्सा अमेरिका के सरकारी बांडों (प्रतिभूतियों) की खरीद में लगाया जा रहा है जिसका बमुश्किल एक प्रतिशत प्रतिफल ही वापस मिल पाता है। दूसरी सच्चाई यह है कि भारत जैसे देशों के फाजिल विदेशी मुद्रा भण्डार से अमेरिका अपने सरकारी बजट घाटे और व्यापार घाटे की भरपाई करता है जो उसके दुनिया पर दादागिरी जमाने और इराक जैसे युद्धों के खर्चों का बोझ उठाने के काम आता है। एक और सच्चाई पर पर्दा डाल दिया जाता है कि कुल 112 अरब डालर की विदेशी देनदारियां भी चढ़ी हुई हैं। सबसे अहम बात तो यह है कि सरकार इस विशाल विदेशी मुद्रा भण्डार को स्वास्थ्य, शिक्षा औैर जनता के लिए अन्य सुविधाएं बढ़ाने के लिए निवेश करने नहीं जा रही। कोई आश्चर्य नहीं कि यह पैसा शेयर मार्केट में लगे और शेयर मार्केट का फूलता गुब्बारा और फूलते हुए फील गुड फैक्टर की खुशफहमी को बढ़ाने का ही काम करे।
शेयर बाजार में आयी उछाल का राज
जनता को फील गुड कराने के लिए मुम्बई स्टाक एक्सचेंज का सूचकांक 6000 की संख्या पार कर जाने का भी खूब ढिंढोरा पीटा जा रहा है। इस उछाल की असलियत यह है कि विदेशी संस्थागत निवेशक फटाफट मुनाफा कमाने की फिराक में भारत की कंपनियों के शेयर धड़ाधड़ खरीद रहे हैं। शेयर बाजार के तेजड़ियों का यह खेल है जो शेयर धारकों की कागजी सम्पत्ति खरीदकर या बेचकर सम्पत्ति भुना रहे हैं। कौन नहीं जानता कि इस राशि का कोई उपयोग उत्पादन, रोजगार या निर्यात बढ़ाने में नहीं होता। शेयर मार्केट के इस उतार–चढ़ाव के दौरान विदेशी सटोरिये लाखों–करोड़ों रुपये देश से बाहर ले जाते हैं। ये मारीशस के रास्ते भारत आकर भारी मुनाफा कमाते हैं और सरकार को एक धेला टैक्स भी नहीं चुकाते। इन जमातों के लिए ही अगर सरकार फील गुट फैक्टर की बात कर रही है तो वह सौ फीसदी सच कह रही है।
शेयर बाजार की इस ताजा उछाल का एक और भी कारण है। इसे जानबूझकर ओझल किया जा रहा है। सरकार ने पिछले साल बजट में एक मार्च 2003 से 29 फरवरी 2004 तक शेयरों की खरीद में आयकर से छूट दी थी। इस भारी उछाल के बावजूद अंदर की हालत यह है कि प्राइमरी शेयर बाजार से पूंजी जुटाने का साहस कोई कंपनी नहीं कर पा रही है। पिछले साल केवल 15 कंपनियों ने ही हिम्मत जुटायी और मिले भी केवल 2000 करोड़ रुपये। शेयर बाजार का समूचा कारोबार भी केवल उंगलियों पर गिने जा सकने वाली कंपनियों के कारोबार तक सिमटा हुआ है। फिर भी फील गुड फैक्टर का नगाड़ा बज रहा है। शायद तब बजता रहे जब कि चढ़ती शेयर कीमतों का फूलता गुब्बारा पंक्चर न हो जाये और शेयर कीमतें औंधे मुंह गिरकर बाजार में सन्निपात न पैदा कर दें। तब तक सारे विदेशी निवेशक अपनी पूंजी निकालकर रफू चक्कर हो जायेंगे जैसा पहले कई बार हो चुका है।
मिनी बजट का विराट सच
चुनावी लाभ के मद्देनजर वित्तमंत्री जसवन्त सिंह ने जो मिनी बजट पेश किया उससे देश की मेहनतकश जनता को रत्ती भर राहत भी नहीं नसीब होने वाली। उल्टे मध्य वर्ग और उच्च वर्ग को लुभाने के लिए जो राहतें दी गयी हैं उसकी भरपाई के लिए आम गरीब आबादी को चुनावों के बाद फिर से निचोड़ा जायेगा।
मिनी बजट में वित्त मंत्री महोदय ने गैर कृषि उत्पादों पर सीमा शुल्क की अधिकतम दरों में पांच प्रतिशत कटौती (25 से घटाकर 20 प्रतिशत) कर दी है और विशेष अतिरिक्त शुल्क को पूरी तरह खत्म कर दिया है। सेल फोन, कंप्यूटर और डी. वी. डी. जैसे उत्पादों पर शुल्कों में कटौती से जाहिर है समाज के नौदौलतिये और अन्य सभी धनी तबके ही खुश होंगे। साथ ही विदेशी कंपनियां मालामाल होंगी और देशी निर्यातक भी गिल्ल होंगे। शुल्कों में यह कटौती विश्व व्यापार संगठनों की शर्तों का पालन करना भी है।
एक मोटे अनुमान के अनुसार शुल्कों में इस कटौती से सरकारी खजाने को लगभग 11 हजार करोड़ रुपये का चूना लगेगा। यह उद्योगपतियों– व्यापारियों को दी गयी एक प्रकार की परोक्ष सब्सिडी भी है। आयात शुल्कों में इस कमी से राजस्व में जो कमी आयेगी उसकी भरपायी करने के लिए और विदेशी कर्ज लिया जायेगा। इसका नतीजा यह होगा कि जन सुविधाओं में और कटौती होगी तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों का निजीकरण और तेज रफ्तार से होगा।
मिनी बजट में कृषि क्षेत्र, ढांचागत विस्तार और लघु उद्योगों के लिए 50,000 करोड़ रुपये मुहैया कराने का होहल्ला मचाकर भी जनता को खुशनुमा अहसास कराया जा रहा है। अपने इन कदमों से गदगद वित्तमंत्री महोदय दूसरी हरित क्रांति के मंसूबे बांध रहे हैं। इस ढपोरशंखी राग की असलियत यह है कि यह राशि भी सरकार सीधे अपने खजाने से देने के बजाय ब्याज दरों में कटौती करके कर्ज मुहैया करायेगी। यह निजीकरण को ही बढ़ावा देना है। किसानों के नाम पर मुनाफा कमाने वाले फार्मर–पूंजीवादी भूस्वामी ही इससे फायदा उठायेंगे।
सरकार की अमीरपरस्ती इस सच्चाई से भी बखूबी उजागर हो जाती है कि महंगे मकानों और कारों के लिये सस्ती दरों पर कर्जे उपलब्ध कराये जाते हैं जबकि किसानों को भारी सूद पर कर्ज दिया जाता है और भी सभी किसानों को एक ही दर पर चाहे वह मुनाफा कमाने वाला किसान हो या छोटी जोत या छोटी पूंजी वाला किसान, जो एक बार अगर बैंक–साहूकार के कर्ज के चक्कर में पड़ गया तो उसकी आने वाली कई पीढ़ियां कर्जो का सूद भरते–भरते मर जायेंगी पर सूद नहीं खत्म होगा, मूल बचा रहेगा सो अलग से। आम आदमी की बचत पर कीमतों में बढ़ोत्तरी बराबर ब्याज भी नहीं मिलता और कर्ज न जमा करने पर चौखट भी उखाड़ कर नीलाम कर दिया जाता है जबकि उद्योगपति सरकारी बैंकों के हजारों करोड़ रुपये दबाये बैठे है और सरकार उनका बाल भी बांका नहीं कर पा रही है। उल्टे समय–समय पर इनके कर्जे माफ करती रहती है।
राष्ट्रीय आय में बढ़ोत्तरी के दावे की पोल
सरकार यह दावा कर रही है कि पिछली छमाही में राष्ट्रीय आय (सकल घरेलू उत्पाद, जी डी पी) में 8.4 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। यह फील गुड फैक्टर है। लेकिन पूंजीवादी अर्थशास्त्र की आंकड़ों की जालसाजी से वाकिफ हर व्यक्ति जानता है कि राष्ट्रीय आय में बढ़ोत्तरी से आम जनता की स्थिति बेहतर नहीं हो जाती। दरअसल यह उत्पादन बढ़त भी न केवल चंद हाथों में केन्द्रित है वरन ऐसी सेवाओं और वस्तुओं के रूप में हुई है जिनका इस्तेमाल आम जनता नहीं करती। केवल मुट्ठीभर ऊपरी अमीर तबका ही इनका इस्तेमाल करने की कूवत रखता है। व्यापार, होटल व्यवसाय, रेस्तरां और वित्तीय क्षेत्र में हुई बढ़त राष्ट्रीय आय का हिस्सा बनती है। यह बढ़त न उपभोग का स्तर बढ़ाती है न ही कोई उत्पादक निवेश होता है और न ही अतिरिक्त रोजगार इससे पैदा होता है। यह रोजगार घटाऊ उत्पादन बढ़त भी सिर्फ कुछेक प्रदेशों तक ही सीमित है। राष्ट्रीय आय में बढ़ोत्तरी संबंधी आंकड़ों के फर्जीवाड़े को एक पूंजीवादी अर्थशास्त्री ने ही इन शब्दों में बयान किया : ‘‘राष्ट्रीय आय में बढ़त को विकास और जनकल्याण का सूचक मानना एक लाश का बोझ ढोने जैसा है।’’
राष्ट्रीय आय में बढ़ोत्तरी की असलियत तब बिल्कुल उजागर हो जाती है जब हम देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग पर एक नजर डालते हैं। देश में इस समय प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग का स्तर प्रति वर्ष मात्र 132 किग्रा. रह गया है। यह स्तर दूसरे महायुद्ध के दिनों में और यहां तक कि बंगाल के अकाल के समय से भी नीचे है। देश में नयी आर्थिक नीतियां लागू करने से पहले 1990–91 में यह 246 किग्रा. था, यानी 114 किग्रा. की भारी कमी। फिर भी जनता से कहा जा रहा है फील गुड। हालत यह है कि लगभग 32 करोड़ लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हैं जबकि 6 करोड़ टन अनाज खुले में सड़ रहा है। यह प्रचुरता के बीच भुखमरी की वही विभीषिका है जो पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की विशेषता है। और इस पूंजीवादी व्यवस्था को चलाने वालों की हृदयहीनता की नजीर देखिये कि जब खाद्यान्नों के निर्यात की मांग में कमी आ गयी तो यह प्रस्ताव आया कि एफ. सी. आई. के गोदामों को खाली करने के लिए फाजिल अनाज को समुद्र में फेंक दिया जाये।
राष्ट्रीय आय में इस बढ़ोत्तरी से जनता को मिलने वाली सुविधाओं में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होती, इसे स्वास्थ्य और शिक्षा पर सरकारी खर्च की मात्रा से भी समझा जा सकता है। सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए कुल राष्ट्रीय आय का केवल एक प्रतिशत और शिक्षा पर सिर्फ 4.1 प्रतिशत खर्च करती है। पांच साल की उम्र तक के हर 1000 बच्चों में से 93 बच्चे हर साल मर जाते हैं। देश में इस समय कुल उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं में मात्र 18 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में है और बाकी 82 प्रतिशत निजी क्षेत्र में। राष्ट्रीय आय में बढ़ोत्तरी की हकीकत यही है।
दूसरी ‘हरित क्रांति’ की पोल
वित्तमंत्री जसवन्त सिंह ने अपने चुनावी मिनी बजट में कृषि क्षेत्र के लिए पचास हजार करोड़ रुपये का पैकेज घोषित कर यह डंका बजाया है कि इससे देश में दूसरी हरित क्रांति के द्वार खुल जायेंगे। कृषि क्षेत्र के लिए उपलब्ध करायी गयी रकम की असलियत की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं कि किस तरह यह कर्ज के रूप में किसानों को मिलेगा और वह भी इसका फायदा केवल मुनाफा कमाने वाले किसान ही उठा पायेंगे। अगर कृषि क्षेत्र में कुल सरकारी निवेश की बात करें तो वित्तमंत्री के दावे का खोखलापन एकदम उजागर हो जाता है। पिछले दस वर्षों में कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश जी डी. पी के 1.6 प्रतिशत से घटकर 1.3 प्रतिशत रह गया हैं। सरकार ग्रामीण विकास पर 1980 के दशक में जी डी. पी का 14.6 प्रतिशत खर्च करती थी। बहरहाल, जो अब साठ प्रतिशत नीचे गिर गया है। इसका सीधा असर ग्रामीण रोजगार पर पड़ा है 10–15 साल पहले एक अनुमान लगाया गया था कि अगर कृषि उत्पादों में वृद्धि दर 10 प्रतिशत हो तो रोजगार वृद्धि दर 7 प्रतिशत होगी। फिलहाल कृषि उत्पादों में वृद्धि दर एक प्रतिशत से नीचे गिर गयी है नतीजतन रोजगार में बढ़ोत्तरी की दर शून्य प्रतिशत से नीचे चली गयी है। कृषि क्षेत्र में अनुसन्धान पर सरकारी खर्चो में जारी कटौती से किसानों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बीजों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है।
जहां तक कृषि क्षेत्र में ढांचागत विकास के लिए धन आवंटित करने का सवाल है तो यह देशी–विदेशी पूंजीपतियों के लिए बाजार फैलाने की गरज से किया जा रहा है, किसानों और ग्रामीण क्षेत्र की हित चिन्ता इसमें कहीं से भी नहीं है। इस समूचे ढकोसले को ही जसवन्त सिंह दूसरी ‘हरित क्रांति’ कह रहे हैं। इस ‘क्रांति’ का नतीजा होगा– छोटे–मझोले किसानों की और तबाही, किसानों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर और अधिक निर्भरता। इससे भी अहम बात यह कि जैसे–जैसे देश का कृषि क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय बाजार के साथ अधिकाधिक जुड़ता जा रहा है वैसे–वैसे एक अभूतपूर्व खाद्यान्न संकट की ओर देश खिसकता जा रहा है। कई कृषि वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री इसकी चेतावनी दे चुके हैं।
देश की अर्थव्यवस्था और आम जनता की जिंदगी के हालात ये हैं और वाजपेयी–आडवाणी मण्डली देश में खुशनुमा बयार बहने की डींग हांक रही है। घपले–घोटालों, भ्रष्टाचार के कारनामों की चर्चा करना यहां बेमानी है। इस बदबू को भी इत्र की खुशबू समझकर सूंघने के लिए कहा जा सकता है। दरअसल यह चुनावी मौसम की बयार है। हर चुनाव के मौसम में संघ परिवार के ‘बौद्धिक’ मौके की नजाकत को ताड़ते हुए तरह–तरह की बयार बहाते रहते हैं। 1996 के चुनावों में भाजपा ने नारा दिया, ‘अयोध्या को राम, महंगाई को लगाम, नारी को सम्मान, नौजवान को काम, यही है भाजपा का पैगाम।’ 1998 में यह ‘राम–रोटी–इंसाफ’ में बदल गया और अगले चुनावों में ‘भय–भूख–भ्रष्टाचार’ का नारा उछाला गया। इस बार ‘फील गुड फैक्टर’ की खुशनुमा बयार बहायी जा रही है। भाजपा को पूरी उम्मीद रही है कि इस बयार के झकोरे उसे दुबारा कुर्सी तक पहुंचा देंगे। इसलिए वाजपेयी–आडवाणी ने फिर से रामधुन भी छेड़ दी है। वाजपेयी राममन्दिर के लिए पांच साल की और मोहलत मांग रहे हैं। दरअसल, जब तक चुनाव नतीजे नहीं आ जाते तब तक भाजपाइयों को खुशफहमी की बयार में झूमने से कौन रोक सकता है। लेकिन देश का आम मेहनतकश अवाम अपने अनुभवों से दिन–ब–दिन और अच्छी तरह समझता जा रहा है कि उसकी जिंदगी में सुख–समृद्धि–शांति तो केवल तभी आयेगी जब सत्ता उसके हाथों में होगी यानी उत्पादन, राजकाज और समाज के समूचे ढांचे पर मेहनतकश अवाम का नियंत्रण। देशी–विदेशी पूंजी की लूट और जनता की तबाही का सिलसिला केवल तभी खत्म किया जा सकेगा।
बिगुल, फरवरी 2004
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