मेहनतकश जन-जीवन पर पूँजी के चतुर्दिक हमलों के बीच गुज़रा एक और साल
मेहनतकशों की जुझारू एकता से ही किया जा सकता है इन हमलों का प्रतिकार
सम्पादक मण्डल
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का एक और साल समापन की ओर अग्रसर है। इस सदी के तमाम सालों की तरह इस साल भी पूरी दुनिया की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की जि़न्दगी पर छाया पूँजी का कुहरा छँटने की बजाय और गहरा होता गया। जैसा कि अन्देशा था, इस साल फ़ासीवाद के दानव ने हमारे देश में अपने पैर अभूतपूर्व रूप से पसारे। ढाई साल पहले जनता को लोक-लुभावने वायदों के छलावे में फँसाकर सत्ता में पहुँची मोदी सरकार ने उन वायदों को पूरा करने में अपने फिसड्डीपन को छिपाने के लिए साल की शुरुआत से ही संघ परिवार की गुण्डा वाहिनियों की मदद से पूरे देश में सुनियोजित ढंग से अन्धराष्ट्रवादी उन्माद फैलाया। साथ ही संघ परिवार का फ़ासिस्ट गिरोह इस साल साम्प्रदायिक व जातिगत विद्वेष को बढ़ावा देने की अपनी पुरानी रणनीति को नयी ऊँचाइयों पर ले गया। जब ये कुत्सित रणनीतियाँ भी सरकार के निकम्मेपन को छिपाने में कारगर नहीं साबित हुईं तो साल के अन्त में काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक करने के नाम पर मेहनतकश जन-जीवन पर ही सर्जिकल स्ट्राइक कर डाली जिससे आम लोग अभी तक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। भारत ही नहीं दुनिया के विभिन्न हिस्सों में धुर-दक्षिणपन्थी व फ़ासिस्ट रुझान वाली ताक़तों ने अपना वीभत्स सिर उठाया और 2007 से जारी विश्व व्यापी मन्दी से निजात न मिलता देख पश्चिम के विकसित मुल्कों में नस्लवाद, रंगभेद, प्रवासी-विरोधी प्रवृत्तियाँ अपने चरम पर दिखीं। साल के अन्त तक आते-आते विश्व पूँजीवाद के सिरमौर अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में ट्रम्प जैसे फ़ासिस्ट और लम्पट धनपशु की जीत के बाद अब इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं बची है कि पूँजीवाद ने आज मनुष्यता को उस अन्धी गली में पहुँचा दिया है जहाँ वह उन्माद, नफ़रत कि़स्म-कि़स्म के प्रतिक्रियावादी विचारों और मूल्यों के अतिरिक्त और कुछ भी देने में नितान्त अक्षम है।
अन्धराष्ट्रवाद और नक़ली देशभक्ति का जुनून
लोगों की जि़न्दगी में बेहतरी ला पाने में अपनी विफलता को छिपाने के लिए पूँजीपति वर्ग अक्सर ही अन्धराष्ट्रवाद का उन्माद फैलाता है ताकि लोगों का ध्यान रोज़ी-रोटी के बुनियादी मसलों से हटाया जा सके। मोदी सरकार व संघ परिवार ने यह पूरा साल अन्धराष्ट्रवादी उन्माद फैलाने की नयी-नयी तिकड़मों को आज़माने में बिताया। साल की शुरुआत में दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में कुछ छात्रों द्वारा अफ़ज़ल गुरु की याद में आयोजित किये गये एक कार्यक्रम को बहाना बनाकर संघ परिवार की वानर सेना ने पूरे देश में सुनियोजित ढंग से अन्धराष्ट्रवाद का जुनून फैलाया ताकि आम लोग सरकार की नाकामियों को भूल जायें और उसकी जनविरोधी नीतियों पर कोई सवाल न उठा पायें। सरकार की नीतियों और संघ की ज़हरीली विचारधारा पर सवाल उठाने वाले हर व्यक्ति को देशद्रोही क़रार दिया जाने लगा। यह एक विचित्र विडम्बना है कि देश की आज़ादी की लड़ाई के समय जिस विचारधारा का ग़द्दारी, मुख़बिरी और माफ़ीनामों का शर्मनाक इतिहास रहा उससे जुड़े नफ़रत के सौदागरों ने देशभक्ति का प्रमाणपत्र बाँटने का ठेका अपने हाथ में ले लिया है।
अन्धराष्ट्रवादी जूनून को और हवा देने के मक़सद से मोदी सरकार ने इस साल पाकिस्तान पर तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक करने का स्वांग रचा और सेना की एक सामान्य कार्रवाई को मीडिया के ज़रिये बढ़ा-चढ़ाकर बताकर अपनी वाहवाही लूटने का हास्यास्पद प्रयास किया। कश्मीर में भी जन बग़ावत की असलियत छिपाने के लिए सरकार ने अन्धराष्ट्रवाद का ही सहारा लिया। यह बात दीगर है कि कश्मीर में सेना के बर्बर कृत्यों को अन्धराष्ट्रवाद के गुबार में छिपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद कश्मीर घाटी में भारतीय राज्य के िख़लाफ़ उमड़ा जनसैलाब सुर्खियों में छाया रहा। पहले हन्दवाड़ा की शर्मनाक घटना और फिर बुरहान वानी की हत्या के बाद कश्मीर घाटी में जनविद्रोह जिस भयानक रूप में उमड़ा उससे स्पष्ट था कि जाड़ों में बर्फ़बारी भले ही उसकी ज्वाला को थोड़ी देर के लिए शान्त कर दे, लेकिन भविष्य में वह फिर-फिर उमड़ेगा और भारत के हुक़्मरानों की नींद हराम करता रहेगा। कश्मीर के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ में भी भारतीय राज्य की बर्बरता अपने वीभत्सतम रूप में दिखी। फ़र्ज़ी मुठभेड़ों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा और खनिज सम्पदा को देशी-विदेश पूँजीपतियों को सौंपने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए भारतीय राज्यसत्ता छत्तीसगढ़ की आदिवासी जनता की जि़न्दगी को तार-तार करती रही। छत्तीसगढ़ में भारतीय राज्य के बर्बर कृत्यों की भनक देश की आम आबादी तक न पहुँचने पाये, इसके लिए वहाँ काम कर रहे जनपक्षधर पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अकादमीशियनों को भाँति-भाँति की तिकड़मों के ज़रिये प्रताडि़त किया गया ताकि वे उस इलाक़़े से चले जायें।
बढ़ती जातीय नफ़रत और दलितों पर हमले
अन्धराष्ट्रवादी जुनून भड़काने के अतिरिक्त संघ परिवार के ब्राह्मणवादी फ़ासिस्ट गिरोह ने इस साल दलितों पर ताबड़तोड़ हमले किये। हैदराबाद सेण्ट्रल यूनिवर्सिटी में प्रशासन और संघ के छात्र संगठन एबीवीपी की मिलीभगत से दलित छात्रों के साथ की गयी ज़्यादतियों से तंग आकर एक दलित छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा। रोहित की आत्महत्या के बाद दलित उत्पीड़न का मुद्दा राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर भी छाया रहा और उससे मोदी सरकार की किरकिरी भी हुई। जेएनयू प्रकरण के बाद अन्धराष्ट्रवाद की हवा में संघ परिवार ने दलित-उत्पीड़न के मुद्दे को भी दबाना चाहा। लेकिन साल के मध्य में गुजरात के ऊना में कुछ दलित युवकों को संघ परिवार द्वारा प्रायोजित गोरक्षा गिरोह के गुण्डों ने बर्बरता से पीटने की घटना के बाद दलित उत्पीड़न के मुद्दे को लेकर एक बार फिर पूरे देश में जनाक्रोश देखने में आया। लेकिन ऊना के बाद महाराष्ट्र में भी दलितों पर बर्बर हमले बदस्तूर जारी रहे। दलितों पर होने वाले इन हमलों से एक बार फिर साबित हो गया कि बुर्जुआ चुनावी राजनीति की नौटंकी के ज़रिये दलित मुक्ति का ख़्वाब देख रहे लोग कितनी बड़ी ग़फ़लत में जी रहे हैं।
नोटबन्दी का नया पैंतरा : जनता की आँखों में धूल झोंककर पूँजीपति आकाओं का संकट दूर करने का खेल
अन्धराष्ट्रवादी जुनून और साम्प्रदायिक व जातिगत नफ़रत की आग भड़काने के बावजूद जब मोदी सरकार का निकम्मापन छिपाये नहीं छिप रहा था तो ग़रीबी, महँगाई, बेरोज़़गारी से त्रस्त आम जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए साल के आखि़र में मोदी सरकार ने नोटबन्दी के नाम पर नया पैंतरा फेंका। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नरेन्द्र मोदी द्वारा काले धन को वापस लाने और हर देशवासी के बैंक खाते में 15-15 लाख रुपये जमा करवाने का वायदा जनता को अच्छीा तरह से याद था। सत्ताा में आने के ढाई साल बाद भी काला धन वापस आना तो दूर, इस साल पनामा पेपर्स के सनसनीखेज खुलासे के बाद यह साफ़़ होता जा रहा था कि मोदी राज दरअसल धन्नाससेठों का राज है और काले धन के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान सत्ता पाने के लिए भाजपा द्वारा उछाला गया महज़ एक चुनावी जुमला था। मोदी सरकार की पूँजीपतियों के प्रति स्वाऐमीभक्ति उस समय जगज़ाहिर हो गयी जब उसने भारतीय बैंकों से 9000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ा लेकर हजम करने वाले अय्याश धनपशु विजय माल्यात को देश से फ़रार होने दिया। दूसरी ओर पूँजीपतियों द्वारा बैंकों से लिए क़र्ज़ बढ़ते गये और बैंकेों के नॉन परफार्मिंग एसेट्स (ऐसे क़र्ज़ जिनकी अदायगी की संभावन बेहद कम है) कई लाख करोड़ तक पहुँच गये। ऐसी परिस्थिति में मोदी सरकार ने नोटबन्दी के फ़ैसले के ज़रिये जहाँ एक ओर काले धन के िख़लाफ़ जंग को लेकर जनता में अपनी खोती जा रही साख को वापस लाने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर इसी बहाने पूँजीपतियों द्वारा लिये गये क़र्ज़ों की अदायगी न होने से खस्ता हाल बैंकों को जनता की गाढ़ी कमायी के ज़रिये संजीवनी देने की कुटिल चाल चली। लेकिन नोटबन्दी का क़हर जिस तरह से मेहनत-मजूरी करके किसी तरह अपनी रोज़ी-रोटी चलाने वाली आम आबादी पर बरपा है और जनता के कष्टों के प्रति प्रधानमन्त्री सहित सरकार के तमाम नुमाइन्दों नेे जिस क़दर संवेदनशून्यता दिखायी है उससे यह दिन के उजाले की तरह साफ़़ हो जाता है कि यह सरकार ग़रीबों-मेहनतकशों की धुर-विरोधी है और पूँजीपतियों की चाकरी में यह अव्वल नम्बर पर है।
दुनियाभर में मन्दी की मार मेहनतकशों पर
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस साल पूँजी की मार दुनिया भर की मेहनतकश आबादी पर बदस्तूर जारी रही। 2007 से जारी विश्वव्यापी महामन्दी के भंवरजाल से निकलने के आसार इस साल भी नहीं नज़र आये। उल्टेे दुनिया की तथाकथित उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ भी मन्दी की चपेट में आती दिखीं। अमेरिका और यूरोप के विकसित मुल्कों की मेहनतकश जनता भी बेरोज़़गारी, महँगाई, सार्वजनिक सुविधाओं में कटौती और बढ़ती आर्थिक असमानता से त्रस्त दिखी। हालाँकि किसी क्रान्तिकारी ताक़त की ग़ैर-मौजूदगी में संकट की इस विकट परिस्थिति का लाभ धुर-दक्षिणपन्थी ताक़तें ले उड़ीं।
पश्चिमी देशों में बढ़ती नव-फासीवादी ताक़तें
पश्चिम का उदारवादी तबक़ा ब्रेक्जि़ट (ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर जाना) और अमेरिका में ट्रम्प की जीत के बाद से सदमे में है। इस साल घटित ये दोनों परिघटनाएँ निश्चित रूप से साम्राज्यवाद के इतिहास में बेहद अहम हैं और इनके दूरगामी परिणाम होने निश्चित हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये दोनों परिघटनाएँ पश्चिम के विकसित देशों में बढ़ते नस्लवाद, प्रवासी-विरोध और प्रतिक्रियावादी विचारों की पैठ का संकेत देती हैं, लेकिन मज़दूर वर्ग के नज़रिये से इनको देखने पर हम पाते हैं कि दरअसल वे आर्थिक संकट से जूझ रही मेहनतकश जनता के गुस्से की अभिव्यक्ति हैं। आर्थिक संकट के दौर में अमूमन ऐसा होता है कि किसी क्रान्तिकारी ताक़त की ग़ैर-मौजूदगी या कमज़ोर उपस्थिति की वजह से संकट की परिस्थिति का लाभ दक्षिणपन्थी राजनीति को मिलता है जो लोकलुभावन नारों और जुमलों के ज़रिये जनता के बीच अपनी पैठ बना लेती है। ज़ाहिर है कि ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने के बाद भी वहाँ की मेहनतकश जनता की परेशानियाँ किसी भी रूप में कम नहीं होने वाली हैं। अमेरिका में भी मेहनतकश तबक़े के जिस हिस्से ने ट्रम्प की जुमलेबाज़ी में फँसकर उसको वोट दिया था उसका भी मोहभंग होना बस समय की बात है। ऐसे में अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप में क्रान्तिकारी ताक़तों का यह दायित्व बनता है कि वे जनता के बीच संकट का मज़दूर वर्गीय नज़रिया लेकर जायें और उसे यह बतायें कि पूँजीवाद के रहते उन्हें बदहाली ही नसीब होने वाली है और यह कि दुनिया के हर हिस्सेे में मज़दूर वर्ग की मुक्ति का रास्ता मज़दूर इंक़लाब से ही होकर जाता है।
साम्राज्यवादी लुटेरों के बीच तीखी होती होड़ और जनता पर पड़ती इसकी मार
इस साल दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के तीखे होने के स्पष्ट प्रमाण मिले। सीरिया में युद्ध की महाविभीषिका अभी भी जारी है जिसमें अब तक लगभग साढ़े चार लाख लोग मौत के घाट उतारे जा चुके हैं और 1 करोड़ से भी अधिक लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा है। 2011 से जारी इस युद्ध में सीरिया के क़रीब 48 लाख लोग तुर्की, मिस्र, जॉर्डन, लेबनॉन और इराक़ में पलायन करने को मजबूर हुए हैं और क़रीब 66 लाख लोग सीरिया के भीतर ही दूसरी जगहों पर पलायित हुए हैं। क़रीब 10 लाख सीरियाइयों ने यूरोप में पनाह माँगी है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि इस युद्ध में रूस और चीन के असद की ओर से कूद पड़ना साम्राज्यवादी जगत में एक नयी धुरी के मज़बूत होने का जीता-जागता सबूत है।
सीरिया युद्ध के अतिरिक्त अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के तीखा होने के प्रमाण और भी क्षेत्रों में देखने को मिले। इसी साल अमेरिका व नाटो ने 31000 सैनिकों और 105 विमानों व 12 युद्धक विमानों के साथ रूसी सीमा के समीप अब तक का सबसे बड़ा युद्धाभ्यास किया। उधर चीन ने दक्षिण चीन सागर में विवादित द्वीपों सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र संघ के एक ट्राइब्यूनल फ़ैसले को खुले आम धता बताते हुए एक साम्राज्यवादी राष्ट्र के रूप में अपनी उपस्थिति जगज़ाहिर की है। इसके अतिरिक्त फि़लीपीन्स के नव निर्वाचित राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते की अमेरिका से दूरी और चीन से क़रीबी से भी एशिया प्रशान्त में अमेरिका के वर्चस्व वाले पुराने साम्राज्यवादी समीकरण में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। एक साम्राज्यवादी देश के रूप में चीन के तेज़ी से उभार के संकेत तीन विकास बैंकों – एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेण्ट बैंक, यूरोपियन बैंक फ़ॉर रीकंस्ट्रक्शन एण्ड डेवलपमेण्ट तथा ब्रिक्स के न्यू डेवलपमेण्ट बैंक – में चीन के बढ़ते दबदबे में भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं। चीन सिल्क रोड पहल के तहत समूचे यूरेशियाई क्षेत्र में अपना दबदबा बढ़ाना चाहता है। उत्तरी अफ़्रीका, मध्य एशिया और तुर्की में चीन पहले ही पूँजी का निर्यात करता रहा है, उसकी आगामी योजना पूर्वी यूरोप और पूर्व सोवियत संघ के गणराज्यों के साथ व्यापारिक सम्बन्धों को नयी ऊँचाइयों पर ले जाने की है। स्पष्ट है कि आने वाले वर्षों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और तीखी होने वाली है जिसका दंश दुनिया भर की मेहनतकश आबादी को ही झेलना पड़ेगा।
अमेरिका के नेतृत्व में बरसों से चलाया जा रहा आतंक के िख़लाफ़ युद्ध दुनिया भर में आतंकवाद की जड़ें और मज़बूत कर रहा है। इस साल भी ब्रसेल्स, पेरिस, ढाका सहित दुनिया के कई हिस्सों में भीषण आतंकी कार्रवाइयाँ अंजाम दी गयीं। अमेरिका द्वारा खड़ा किया गया इस्लाम स्टेट का भस्मासुर अपनी वीभत्सता के पुराने कीर्तिमान तोड़ता पाया गया।
जनता का प्रतिरोध जारी है!
दुनिया के अलग-अलग हिस्सोंे में आम मेहनतकश आबादी के जीवन पर पूँजी के चतुर्दिक हमलों के प्रतिकार के भी कुछ शानदार उदाहरण इस साल देखने को मिले जिनसे इस अन्धकारमय दौर में भी भविष्य के लिए उम्मीदें बँधती हैं। भारत की बात करें तो इस साल बेंगलूरू के टेक्सटाइल उद्योग की महिला मज़दूरों ने मोदी सरकार की ईपीएफ़ सम्बन्धी मज़दूर विरोधी नीति के विरोध में ज़बरदस्त जुझारूपन का परिचय देते हुए समूचे बेंगलूरू शहर को ठप कर दिया। बेंगलूरू की महिला टेक्सटाइल मज़दूरों के जुझारू संघर्ष को देखते हुए केन्द्र सरकार बचाव की मुद्रा में आ गयी। इसी तरह से राजस्थान के टप्पूखेड़ा में होण्डा कम्पनी द्वारा 3000 मज़दूरों के निकाले जाने के बाद शुरू हुआ होण्डा मज़दूरों का जुझारू संघर्ष भी प्रेरणादायी रहा। 8 महीने लम्बे संघर्ष के बाद होण्डा मज़दूरों ने 19 सितम्बर से दिल्ली के जन्तर मन्तर पर अपना खूँटा गाड़ा और विषम परिस्थितियों के बावजूद 52 दिन तक डटे रहे। दुनिया के अनेक हिस्सों में भी मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के जुझारू संघर्ष देखने को मिले। अमेरिका में काले लोगों पर जारी लगातार हमलों के िख़लाफ़ ‘ब्लैक लाइव्स मैटर्स’ नामक एक लड़ाकू संघर्ष शुरू हुआ जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भागीदारी की। साल के अन्त में उत्तरी डकोता प्रान्त के कैनन बॉल क़स्बे की आदिवासी आबादी ने एक दैत्याकार कम्पनी द्वारा बनाये जा रहे गैस व तेल पाइपलाइन के प्रोज़ेक्ट को अपने जुझारू संघर्ष के ज़रिये रोकने पर मजबूर कर दिया। इसके अतिरिक्त यूरोप के विभिन्न देशों में भी आम जनता तमाम मसलों पर सड़कों पर उतरी। ख़बरों के अनुसार चीन में भी हड़तालों की संख्या में ज़बरदस्त वृद्धि हुई। ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे पूँजीवादी व्यवस्था का संकट और गहराता जायेगा, जनता के जुझारू संघर्ष पूरी दुनिया में फैलेंगे। ऐसे में क्रान्तिकारी ताक़तों के सामने चुनौती यह है कि आने वाले दिनों में जनता के स्वत:स्फूर्त संघर्षों को एक कड़ी में पिरोकर व्यवस्था परिवर्तन की दूरगामी लड़ाई से जोड़ा जाये।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2016
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