राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देश के स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान की असलियत
नारायण आनन्द खराडे
(लेखक मराठी मज़दूर अख़बार ‘कामगार बिगुल’ के सम्पादक हैं)
मराठी से अनुवाद – सत्या
आजकल सभी देशवासियों को देशप्रेम का अर्थ समझाने की जि़म्मेदारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके अनुषंगी संगठनों ने अपने सिर पर ले रखी है। यही कारण है कि भारत माता, हिन्दू राष्ट्र, सनातन धर्म, प्राचीन संस्कृति जैसी संघ की पसन्दीदा अवधारणाओं ने अब अंगारे से जंगल की आग का रूप ले लिया है। संघ की इन अवधारणाओं का विरोध करने या संघ पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने वालों को संघ देशद्रोही ठहरा रहा है। यह सच है कि देशभक्ति व देशद्रोह का प्रमाणपत्र बाँटने का हक़ संघ को किसी ने नहीं दिया है पर फिर भी संघ के बोलने को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसका कारण है कि संघ 90 वर्षों के इतिहास वाला, देशभर में 51335 शाखाओं वाला व लगभग 60 लाख स्वयंसेवकों वाला संगठन है। इतना ही नहीं बल्कि पिछले 5 वर्षों में संघ की दैनिक शाखाओं में 29 प्रतिशत, साप्ताहिक शाखाओं में 61 प्रतिशत व मासिक शाखाओं में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी भी हुई है। इसके साथ ही वर्तमान प्रधानमन्त्री भी संघ के सच्चे स्वयंसेवक हैं व उन्हें ख़ुद इसका अभिमान भी है। इसलिए देशभक्ति के बारे में संघ के विचारों को अनदेखा करने का साहस सम्भव नहीं है। उल्टा संघ की देशभक्ति व देशप्रेम पर सांगोपांग चर्चा करना आज समाज के लिए पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी बन गया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में नागपुर में हुई। तब से 15 अगस्त 1947 तक यानी 22 सालों तक भारत पर अंग्रेज़ों का राज्य था। इस काल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे बड़े संगठन से लेकर देश के अलग-अलग भागों में सक्रिय अनेक छोटे संगठन अंग्रेज़ों से देश को स्वतन्त्र कराने के लिए अपने-अपने तरीक़ों से प्रयास कर रहे थे। ऐसे समय में संघ क्या कर रहा था? ये समझना संघ की देशभक्ति को समझने के लिए सबसे उपयुक्त रहेगा। संक्षेप में कहना हो तो, एक संगठन के रूप में संघ ने अंग्रेज़ों के विरूद्ध कुछ भी नहीं किया। उल्टा उस समय देश के लिए दिल में कुछ करने का जज़्बा लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी करने वाले लोगों को ऐसा करने से हतोत्साहित करना व देश के लिए बलिदान करने वाले देशभक्तों के त्याग का अपमान संघ ने सुनियोजित तरीक़े से अनथक किया। आज संघ देशभक्ति की कितनी ही बातें कर ले पर उनका ये काला इतिहास उनकी ख़ुद की पुस्तकों में दर्ज हो चुका है। बेशक अपनी इस मक्कार भूमिका के लिए संघ ने कभी शर्म महसूस नहीं की, ये भी सत्य है। देश के स्वतन्त्र होने के बाद स्वतन्त्रता आन्दोलन से दूर रहने के संघ के कृत्य का समर्थन संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) ने निम्न शब्दों में किया – “1942 के समय भी अनेक लोगों के मन में आन्दोलन के विचार थे। पर तब भी संघ के नियमित कार्यक्रम चलते रहे। संघ ने सीधे तौर पर कुछ भी न करने का संकल्प लिया था फिर भी संघ के स्वयंसेवकों के मन में खलबली मची थी। संघ सिर्फ़ निठल्ले लोगों का संगठन है, उनके बोलने का कोई अर्थ नहीं है, ऐसा सिर्फ़ बाहर के लोग ही नहीं बल्कि संघ के स्वयंसेवक भी बोलने लग गये थे व नाराज़ हो गये थे। इसके बावजुद संघ ने अपनी अवस्थिती छोड़ी नहीं।”1 संघ के परमपूज्य गोलवलकर गुरुजी के ये शब्द संघ की देशभक्ति का सबूत है।
स्वतन्त्रता संग्राम व संघ की चर्चा करते हुए एक सावधानी बरतनी पड़ेगी। संगठन व एक व्यक्ति के रूप में स्वयंसेवक के बारे में अलग-अलग विचार करना भी ज़रूरी है। किसी भी संगठन का अपने सदस्यों पर पूरा नियन्त्रण नहीं हो सकता है। संगठन में अलग-अलग मुद्दों पर मतभेद व विरोधी अवस्थितियों का निर्माण होता है। आज्ञापालन के लिए प्रसिद्ध संघ भी इसका अपवाद नहीं है। ऐसे समय में क्या भूमिका ली जायेगी, इसका निर्णय किसी संगठन के सिद्धान्त व लक्षय से तय होता है। जनवादी मूल्यों व तार्किकता में भरोसा करने वाला संगठन मतदान, बहस, तर्क आदि के द्वारा अपना पक्ष तय करता है। पर संघ में ऐसे “फ़ालतु” मूल्यों की जगह नहीं है। संघ एक झण्डा, एक नेता, एक विचारधारा, इस सिद्धान्त से अपनी अवस्थिती बताता है। मतभेद रखने वालों व ख़ुद तर्क करने की इच्छा पालने वालों को दूर होना पड़ता है। संघ सच्चे अर्थों में समाज के एक छोटे से वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करता है। यही कारण है कि व्यापक जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए असली उद्देश्यों को छुपाकर संघ के उद्देश्यों के बारे में एक भ्रामक तस्वीर प्रचारित करना संघ की ज़रूरत है। इसके लिए संघ ने जो सबसे प्रभावी शस्त्र तैयार किया है वो है संघ की भावनाओं को सहारा देती अलंकारिक भाषा। भोले भाले लोगों को संघ से जोड़ने का काम इस मायावी अस्त्र ने साल-दर-साल प्रभावी तरीक़े से किया है। इसी कारण सामान्य स्वयंसेवक व संघ के नेतृत्व के बीच समय-समय पर टकराव पैदा होता है। यूँ तो तमाम अन्य संगठनों में भी इस तरह का टकराव पैदा होता है। स्वतन्त्रता संग्राम के बारे में संघ की अवस्थिति पर भी ऐसे ही टकराव पैदा होने के अनेक उदाहरण हैं। इसलिए जहाँ भी संघ के स्वयंसेवक के व्यक्तिगत तौर पर स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी करने के उदाहरण मिलते हैं उस वक़्त संघ की सांगठनिक अवस्थिति क्या थी, इसकी पड़ताल करना ज़रूरी है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक डा. केशव बळिराम हेडगेवार ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से की थी। 1920 में असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन पर केस दर्ज हुआ व एक साल के सश्रम कारावास की सज़ा मिली। सत्याग्राहियों का मानना था कि साम्राज्यवादी सत्ता का विरोध करना केवल अधिकार ही नहीं बल्कि एक कर्तव्य है इसलिए उन्होंने ये प्रतिज्ञा ली थी कि वो अपना बचाव नहीं करेंगे। पर डॉ. हेडगेवार ने अपना बचाव किया। “अपना बचाव न कर खटमल की तरह कुचला जाना मुझे गवारा नहीं है। अपना पक्ष रखकर हमें दुश्मन की कुचेष्टाओं को दुनिया के सामने लाना चाहिए”2, यही देशसेवा है, यह तर्क उन्होंने अपने समर्थन में दिया। देशसेवा करते हुए जेल तो क्या, काला पानी जाना पड़े या फाँसी पर भी चढ़ना पड़े, तो हमें तैयार रहना चाहिए, ऐसी हुंकार भी उन्होंंने भरी। पर सज़ा पूरी कर लौटने के बाद उन्होंने इस बात की पूरी सावधानी बरती कि उन्हें काला पानी या फाँसी न हो। वो कांग्रेस से दूर हो गये क्योंकि उन्हें येे मंजूर नहीं था कि ये देश यहाँ रहने वाले सभी जाति-धर्म के लोगों का है। डॉ. हेडगेवार की जीवनी लिखने वालेे ना. ह. पालकर के अनुसार “हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों का ये देश है, इस धारणा पर से उनका विश्वास पूरी तरह उठ चुका था। उनके मन में ये स्पष्ट विश्वास घर कर गया था कि हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयता है।” इसीलिए उन्होंंने 1925 में संघ की स्थापना की। इस संगठन के द्वारा नौजवानों को साम्राज्यवाद विरोध की बजाय मुसलमान विरोध करने व कट्टर हिन्दुत्ववाद की तरफ़ लाने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। स्वतन्त्रता संग्राम में शामिल होने को उत्साही नौजवानों को हेडगेवार क्या बोलते थे, ये उनकी उपरोक्त जीवनी में दिये वर्णन से स्पष्ट हो जाता है। इस जीवनी के लेखक ना. ह. पालकर ख़ुद हेडगेवार के साथी व एक संघ प्रचारक थे। इसके साथ ही इस जीवनी की प्रस्तावना संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी ने लिखी है। इसलिए ये आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है कि संघ के विरोधी कुत्साप्रचार कर रहे हैं। पालकर लिखते हैं – “अगर नौजवान के मन में सत्याग्रह में भाग लेने की इच्छा जगती थी तो डॉक्टर उससे सवाल करते थे – सत्याग्रह के बाद जेेल जाना पड़ेगा, तैयारी है क्या? हाँ, नौजवान का दृढ़ उत्तर होता था। कितने दिन का संकल्प करके निकले हो? नौजवान की तरफ़ से छह महीने जैसा कुछ उत्तर आता। उसके बाद डॉक्टर बोलते, अगर छह महीने की जगह दो साल की सज़ा हो गयी तो? इस सवाल का नौजवान तुरन्त जवाब देता कि वो भी काट लेंगे। इतनी तत्परता दिखाने पर डॉक्टर उससे बोलते, आपको सज़ा हो गयी है, ऐसा समझकर ये समय संघ कार्यालय को क्यों नहीं देते?” मतलब स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेना संघ का काम नहीं था। हेडगेवार के ऐसे उपदेशों को हमेशा कामयाबी नहीं मिलती थी। कुछ लोग अपने विचार बदल लेेते थे पर बहुत सारे सत्याग्रह में भाग लेते थे। उनके बारे में डॉ. हेडगेवार के क्या विचार थे, इसका उत्तर भी पालकर ने दिया है। “हमने देश के लिए कुछ किया है, इसका प्रदर्शन जनता के सामने करने की इच्छा रखने वाले नौजवान अधिक देखकर उन्हें (डॉ. हेडगेवार को) दुख होता था.” 3
नमक सत्याग्रह शुरू होते ही संघ पर भी इस आन्दोलन में भागीदारी करने का दबाव बनना स्वाभाविक था। ऐसे समय में पत्र जारी कर डॉ. हेडगेवार ने संघ की अवस्थिति निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट की। “जारी आन्दोलन में संघ ने एक संगठन के तौर पर भागीदारी करना अभी तय नहीं किया है। व्यक्तिगत तौर पर अगर कोई भागीदारी करना चाहता है तो अपने संघचालक की अनुमति से शामिल हो सकता है। उसे वहाँ भी इस तरीक़े से काम करना चाहिए कि उससे संघ का हितसाधन हो।”2 संघ की मक्कार भूमिका का ये उत्तम उदाहरण है। स्वतन्त्रता आन्दोलन का खुला विरोध करना संघ के लिए राजनीतिक रूप से आत्मघाती होता, इसलिए संघ ने ऐसा तो नहीं किया पर स्वयंसेवकों को आज़ादी की लड़ाई से दूर रखने का काम उसने पूरी चालाकी व ताक़त से किया।
राष्ट्रगौरव की डींगें हाँकने व स्वतन्त्रता आन्दोलन से दूर फटकने की नीतियों के कारण संघ पूरी तरह नंगा हो रहा था। स्वयंसेवकों के व्यक्तिगत तौर पर भाग लेने के बावजुद संघ की एक संगठन के रूप में स्वतन्त्रता संग्राम विरोधी अवस्थिति क़दम-क़दम पर दिख रही थी। इसलिए संघ की आलोचना भी हो रही थी। ऐसे समय में संघ द्वारा दिखायी गयी अव्वल दर्जे की निर्लज्जता भागानगर सत्याग्रह व उसमें संघ की भूमिका के बारे में डॉ. हेडगेवार के स्पष्टीकरण में साफ़ दिख रही थी। अख़बारों के माध्यम से संघ की आलोचना करने वालों में एक श्री गो. गो. अधिकारी थे। वैसे तो संघ ऐसी आलोचनाओं का कोई जवाब न देने का धूर्त तरीक़ा अपनाता था पर उस समय परिस्थितियों के नाजु़क होने के कारण हेडगेवार को उत्तर देना पड़ा। इस जवाब में हेडगेवार बोलते हैं – “नित्य कार्य व नैमित्तिक (यदाकदा) कार्य के बीच का अन्तर अगर उन्होंने (श्री गो. गो. अधिकारी) अपने विवेक से समझा होता तो वो संघ के विरूद्ध ज़हर नहीं छोड़ते। ऐसा लगता है कि श्री अधिकारी भूल गये हैं कि भागानगर सत्याग्रह ख़त्म होने के बाद भी राष्ट्रमुक्ति का काम बचा रहेगा। राष्ट्र को मुक्त कराने के लिए किये जाने वाले आख़िरी प्रहार का समय आने से पहले की तैयारी राष्ट्रमुक्ति का नित्य कार्य है व भागानगर आन्दोलन जैसे आन्दोलन राष्ट्रमुक्ति के नैमित्तिक कार्य हैं। हमारी सारी ताक़त व विशेषज्ञता नित्य संस्था के नैमित्तिक कार्यों में इस तरह नहीं बहायी जा सकती कि उससे नित्य कार्यों में व्यवधान उत्पन्न हो।”2 ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन करना संघ की नज़र में ऐसा ही एक तुच्छ नैमित्तिक कार्य था। ऐसे नैमित्तिक कार्य में अपनी ताक़त ख़र्च करने के लिए संघ तैयार नहीं था। स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी के प्रति संघ की अनिच्छा कितनी दृढ़ थी, इसका एक दूसरा सबूत ‘क्रान्तदर्शी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार’ नामक पुस्तक में मिलता है। इस पुस्तक के लेखक डॉ. हेडगेवार के कामों की महानता का बखान करते हुए लिखते हैं – “जिस समय स्वतन्त्रता के लिए चल रहे विभिन्न आन्दोलनों के अतिरिक्त भी छोटे-मोटे सामाजिक कार्य हाथ में लेकर विभिन्न संस्थाएँ काम कर रही थी उस समय भी डॉक्टरजी ने ऐसा कोई भी अभीष्ट कार्य आँखों के सामने न रख परिस्थिति निरपेक्ष देशव्यापी संगठन खड़ा करने का बुनियादी काम हाथ में लिया। डॉक्टर कहते थे – ‘संघ को केवल हिन्दू संगठन ही अपना लक्षय रखना चाहिए’। संघ केवल संगठित करेगा व इसके अतिरिक्त कुछ नहीं करेगा।”2 संघ असलियत में क्या कर रहा था? इस संगठन का उद्देश्य क्या था? स्वतन्त्रता आन्दोलन व अन्य सामाजिक कार्यों को जिन नित्य कार्यों से प्रेम के कारण संघ वर्जित मानता था, वो नित्य कार्य असल में क्या थे व उनका उद्देश्य क्या था? वास्तव में, क्या संघ कोई भी नैमित्तिक कार्य नहीं कर रहा था? इन सवालों के जवाब के लिए डॉ. हेडगेवार की जीवनी में नागपुर दंगा प्रकरण पढ़ने योग्य है। हिन्दू धर्मनिष्ठ स्वयंसेवकों ने इन दंगों में मुस्लिमों को कैसे मारा, मस्जिद कैसे जलायी, इन पराक्रमों का वर्णन लेखक ने गर्व के साथ किया है। संघ के नित्य कार्यों का स्वरूप व संगठन का उद्देश्य वहाँ स्पष्ट हो जाता है।
संघ का हथियार प्रेम सर्वज्ञात है। हथियारों का उत्पादन, भण्डारण व प्रशिक्षण इसको संघ की स्थापना से ही महत्व दिया जाता रहा है। संघ के स्वयंसेवकों को विभिन्न हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता है। ये हथियार कभी अंग्रेज़ों के विरूद्ध इस्तेमाल हुए क्या? नागपुर दंगों में स्वयंसेवकों ने दूर से ही जलते बाणों की वर्षा कर मस्जिद जलायी.3 धनुर्विद्या में इतनी पारंगता स्वयंसेवकों को मिली थी पर अंग्रेज़ों की कचहरी या पुलिस स्टेशन की दिशा में कभी एक भी जलता बाण इन रामसेवकों के धनुष से छूटा नहीं। इस हथियार भण्डार का एक बड़ा हिस्सा डॉ. हेडगेवार ने क्यों नष्ट किया, इसकी कहानी भी संघ की अंग्रेज़ परस्ती और कायरता पर अच्छे-से प्रकाश डालती है। संघ के पहले सरकार्यवाह बालाजी हुद्दार को जनवरी 1931 में बालाघाट सरकारी हथियार लूट में पकड़ा गया। (यही बालाजी हुद्दार बाद में स्पेन के गृहयुद्ध में लड़े व वहाँ से वापस आने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया के सदस्य बने) बेशक इस लूट को संघ ने अंजाम नहीं दिया था। ये घटना डॉ. हेडगेवार के लिए बड़ा आघात थी। ना.ह. पालकर के शब्दों में – “सरसंघचालक के बाद संगठन में जिसका स्थान है, उस पर इस तरह के आरोप लगने का मतलब अंग्रेज़ों की आँख में चुभ रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आपदा थी। इसीलिए हेडगेवार ने हथियारों को 1931 में नष्ट करवा दिया।”3 संघ अंग्रेज़ों की आँख में चुभ रहा था, ऐसा यहाँ ना. ह. पालकर बोलते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है? ये सच है कि कुछ स्वंयसेवकों के व्यक्तिगत स्तर पर सत्याग्रह में भाग लेने व पूरे देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन के उफान पर होने के कारण संघ पर अंग्रेज़ों की नज़र थी। ऐसे समय में डॉ. हेडगेवार ने स्वयंसेवकों के मन में ये बिठाने व अंग्रेज़ों को इसका आश्वासन देने का सतत व ज़ोरदार प्रयास किया कि अंग्रेज़ों का विरोध हमारा लक्षय नहीं है। यही कारण था कि संघ पर प्रतिबन्ध लगाने की ज़रूरत अंग्रेज़ों को कभी महसूस नहीं हुई। मुसलमानों को देश का दुश्मन बताकर उनके विरूद्ध तो हथियार इस्तेमाल किये जायें पर स्वयंसेवक अंग्रेज़ों के विरूद्ध हथियार इस्तेमाल कर ग़ैरज़रूरी आफ़त मोल न लें, इस बारे में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार कितने सावधान थे, ये हुद्दार के उदाहरण से दिख जाता है। ‘गेहूँ के साथ घुन्न भी पिसता है’ कहावत को चरितार्थ करते हुए जब किसी भी प्रकार की ब्रिटिश-विरोधी गतिविधि में शामिल न होने के बावजुद संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तब भी डॉ. हेडगेवार को पूरा विश्वास था कि संघ पर प्रतिबन्ध नहीं लगेगा। यह विश्वास यूँ ही नहीं था। अंग्रेज़ों ने संघ का स्वरूप पूरी तरह पहचान लिया था। इसीलिए संघ की स्वामीभक्ति पर अंग्रेज़ों को पूरा विश्वास था। संघ के बारे में अंग्रेज़ों के दस्तावेज़ों में आगे की जानकारी मिलती है। उन दस्तावेज़ों में लिखा है कि भविष्य में संघ भारत में वही भूमिका अदा करेगा जो जर्मनी में नाजी कर रहे हैं व इटली में फासीवादी।
देश की रक्षा से एलर्जी संघ की पहली प्रार्थना से भी प्रतिबिम्बित होती है। संघ की पहली प्रार्थना में एक मराठी व एक हिन्दी श्लोक था। इसमें से हिन्दी का श्लोक आर्यसमाज की एक प्रार्थना में कुछ बदलाव कर लिया गया था। आर्यसमाज की मूल प्रार्थना थी :
हे प्रभो, आनन्ददाता ग्यान हमको दीजिये
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये
लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बने
ब्रह्मचारी देशरक्षक वीर व्रतधारी बने
इसमें बदलाव कर संघ ने नीचे दी गयी प्रार्थना स्वीकार की।
हे गुरो, श्रीरामदूता शील हमको दीजिये
शीघ्र सारे सद्गुणों से पूर्ण हिन्दू कीजिये
लीजिये हमको शरण में रामपन्थी हम बने
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रतधारी बने…3
इसमें किया गया बदलाव देखने योग्य है। पूर्ण हिन्दू बनाने की राम से की गयी प्रार्थना, रामपन्थी बनने की इच्छा तो है ही, पर देशरक्षक होने के बारे में संघ की विरक्ति इतनी ज़्यादा थी व धर्म के सामने देश का स्थान इतना दोयम था कि मूल प्रार्थना की अन्तिम लाइन में से देशरक्षक शब्द निकालकर धर्मरक्षक शब्द डालना संघ का नेतृत्व भूला नहीं।
स्वतन्त्रता की लड़ाई में योगदान देने वाले सभी देशभक्तों से आज संघ अपना सम्बन्ध जोड़ रहा है। झूठा इतिहास फैलाया जा रहा है। देश के लिए लड़ते-लड़ते अपनी जान न्यौछावर करने वाले देशभक्तों के बारे में संघ द्वारा अपने लेखन व व्याख्यानों से व्यक्त किया गया मत संघ की स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी की भूमिका से एकदम सुसम्बन्ध है। स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन करते हुए दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी बोलते हैं – “अंग्रेज़ों के प्रति गुस्से के कारण बहुतों ने अद्भुत साहस दिखाया है। हम भी वैसा ही करें, ये विचार हमारे मन में भी कभी आ सकता है। पर एक व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसा करने से देशहित पूरे हो रहे हैं? बलिदान से उस विचारधारा को बढ़ावा नहीं मिलता जिससे समाज अपना सबकुछ राष्ट्र के नाम क़ुर्बान करने के बारे में प्रेरित होता है। अब तक के अनुभव से तो यह कहा जा सकता है कि दिल में इस तरह की आग लेकर जीना एक आम आदमी के लिए असह्य है।”1 देशभक्तों का रास्ता सामान्य जनता को असह्य लगता है, सिर्फ़ इतना ही संघ का आरोप नहीं था, बल्कि इन देशभक्तों का अधिक से अधिक अपमान करना संघ ने अपना कर्तव्य समझा था, ऐसा उनके विचारों से दिखता है। “डॉ हेडगेवार क्रान्तदर्शी युगपुरुष” नामक पुस्तक के लेखक वि.ना. नेने हेडगेवार का देशभक्तों के बारे में मत स्पष्ट करते हुए लिखते हैं – “ब्रिटिश-विरोधी भावना ही उस आन्दोलन की मुख्य प्रेरणा थी। राष्ट्र की स्वतन्त्रता के बारे में, स्वराज्य के बारे में रचनात्मक दृष्टि या धारणा वहाँ कहीं नहीं मिलती। … सत्याग्रह करने वाले बहुत लोगों को छोटी-मोटी सजाएँ होती थीं। इस तरह सत्याग्रह कर जेल जाकर आये लोगों को ऐसा लगता था कि हमने देशभक्ति का एक विशेष कार्य किया है। हम लोग अन्य लोगों से श्रेष्ठ हैं, अगुवा हैं, दूसरों को हमारी जयजयकार करनी चाहिए, अनुयायी होकर हमारी गिरती बात को भी झेलें, ऐसी भावना उनमें बल मारने लगी। देशभक्ति का एक ऐसा निराला वर्ग तैयार होने लगा।”2 संघ का आग्रह था कि नौजवानों को भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे देश के लिए प्राण देने वाले देशभक्तों को आदर्श के रूप में नहीं देखना चाहिए। स्वयंसेवकों को इस बाबत आगाह करते हुए गोलवलकर बोलते हैं – “हमारी भारतीय संस्कृति को छोड़कर अन्य सभी संस्कृतियों में ऐसे बलिदानों की पूजा की जाती है व उनको आदर्श माना जाता है और ऐसे बलिदान करने वालों को राष्ट्रनायक के रूप में स्वीकार किया जाता है। परन्तु हमने हमारी भारतीय संस्कृति में ऐसे बलिदानों को सर्वोच्च आदर्श नहीं माना गया है।”1 इन देशभक्तों को आदर्श मत मानो, इतना कहकर ही गोलवलकर नहीं थमते हैं बल्कि इससे भी आगे वो बोलते हैं – “यह साफ़़ है कि जो जीवन में असफल होते हैं उनमें निश्चित तौर पर कुछ गम्भीर खामियाँ होती हैं। जो ख़ुद हारा हुआ है वह किस प्रकार दूसरों को रौशनी दे सकता है और सफलता की राह पर ले जा सकता है? हवा के हल्के-से झोंके से काँपने वाली ज्योति हमारा मार्ग कैसे प्रकाशित कर सकती है?”1 संघ की नज़र में शहीद होने वाले देशभक्त असफल नायक हैं व अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगकर जेल से छूटने वाले व बाद में किसी प्रकार की ब्रिटिश-विरोधी कार्रवाई न करने वाले सावरकर स्वातन्त्र्यवीर है। देश की आज़ादी के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा देने वाले महान देशभक्तों का ऐसा अपमान साम्राज्यवादी अंग्रेज़ों ने भी कभी नहीं किया था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज देशभक्ति व देशप्रेम का ठेकेदार बना हुआ है। जनता को अँधेरे में रखने के लिए व असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए देशभक्ति का अफ़ीम की गोली की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। धनपशुओं व पूँजीपतियों की चाकरी करने के काम को बेहतर तरीक़े से करने के लिए संघ ने देशभक्ति को एक बाज़ारू माल बना दिया है। पतंजलि का सामान ख़रीदने वाला ही असली देशभक्त, बाबा रामदेव की ये घोषणा इस बाज़ारू देशप्रेम का घृणित आविष्कार हम पहले ही देख चुके हैं। विभिन्न पूँजीवादी प्रसार माध्यमों के द्वारा किये जा रहे लुभावने प्रचार के पीछे छुपे ज़हरीले सत्य को पहचानने के लिए, जनता को ग़रीबी की ओर ढकेलने वाली व जनता के बीच फूट डालने वाली संघी राजनीति को उखाड़ फेंकने के लिए संघ का इतिहास जनता के सामने आना बहुत ज़रूरी है। आज संघ देशप्रेम की कितनी ही बातें कर ले पर उनका सच्चा काला इतिहास संघ के ही साहित्य में सुरक्षित रखा हुआ है। हाफ़ पैण्ट छोड़कर फुल पैण्ट पहनने पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नंगापन छुपेगा नहीं।
सन्दर्भ :
1. श्रीगुरुजी समग्र दर्शन खंड 3
2. डाॅ. हेडगेवार : क्रान्तदर्शी युगपुरुष – वि. वा. नेने
3. डाॅ. हेडगेवार – ना. ह. पालकर
(सभी पुस्तकों के प्रकाशक: भारतीय विचार साधना प्रकाशन)
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2016
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