दाल की बढ़ती कीमतों की हक़ीक़त
श्वेता
इन दिनों जनता दाल की कीमतों में हुई बेतहाशा बढ़ोत्तरी से परेशान है। कहा जा रहा है कि यह बढ़ोत्तरी पिछले एक दशक में दाल की कीमतों में हुई वृद्धि में सबसे अधिक है। आम तौर पर बताया जाता है कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि का कारण या तो फसल की कम पैदावार या बाज़ार में माँग का अचानक से बढना होती है। हालाँकि इस मामले में सच्चाई इन बातों से कोसो दूर है।
यहाँ हम दाल की कीमतों में हुई हालिया बढ़ोत्तरी के कारणों को जानने की कोशिश करेंगे। कृषि पैदावार की तमाम फसलें आज सट्टा और वायदा कारोबारियों के कब्ज़े में पूरी तरह आ चुकी हैं। आमतौर पर सट्टा कारोबारी सबसे पहले फसलों की पैदावार की स्थितियों पर नज़र रखते हैं यानी किस फसल के खराब होने की संभावना है या कौन सी फसल की पैदावार कम हो सकती है। एक बार ऐसी फसल की पहचान होने पर सट्टा कारोबारी कार्टेल का गठन करते हैं और पहचान की गयी फसल के पहले से संचित भंडारों के साथ ही साथ नई फसल को भी खरीद लेते हैं। यानी बाज़ार में एक कृ्त्रिम कमी पैदा की जाती है। कार्टेल द्वारा खरीदी गयी फसल को या तो भंडारगृहों में संचित किया जाता है या उसे जहाज़ों में लादकर अलग-अलग बन्दरगाहों पर खड़ा कर दिया जाता है ताकि इस बीच उस फसल की माँग को अत्यधिक रूप से बढ़ाकर उसकी कीमतों में वृद्धि के लिए रास्ता साफ कर दिया जाये।
इसी तरह पिछले वर्ष खाद्य वस्तुओं की बिक्री के लिए मोदी के करीबीब उद्योगपति अडानी ने सिंगापुर की ‘विल्मर कम्पनी’ के साथ मिलकर एक संयुक्त उपक्रम गठित किया। इस संयुक्त उपक्रम का मुख्य उद्देश्य दलहन पैदा करने वाले राज्यों के किसानों से दलहन खरीदकर बाज़ार में बेचना था। हालाँकि प्रचुर संचयन और भंडारण संबंधी अत्यधिक सीमा के नियमों के कारण शुरुआत में अडानी और विल्मर कम्पनी के संयुक्त अपक्रम के लिए ऐसा करना संभव न हो सका। बाद में मोदी सरकार ने एक सरकारी आदेश जारी करके तीन प्रकार के दलहनों यानी अरहर, मूँग और उरद पर अत्यधिक सीमा के इस नियम को हटा दिया। इसके बाद इस उपक्रम ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों के अलावा दलहन को कीनिया, तन्ज़ानिया और मोज़म्बीक जैसे अफ्रीकी मुल्कों से 30-40 रू प्रति किलो की बेहद कम कीमतों पर खरीदकर 1000 करोड़ किलो से अधिक दलहन का भंडारण शुरू कर दिया। इस दलहन को बाज़ार में 220 रुपये प्रति किलो तक पर बेचा जाने लगा। इससे डेढ़ लाख करोड़ से भी ज़्यादा का मुनाफ़ा पीटा गया।
बहरहाल यह गोरखधंधा केवल दालों तक सीमित नहीं है। अन्य खाद्य वस्तुएँ भी इसकी गिरफ्त में हैं। पूँजीवाद उत्पादन के दौरान मेहनतकशों की मेहनत को लूटकर तो अतिलाभ कमाता ही है, पर साथ ही साथ पूँजीवाद का लगातार विस्तृत होता अनुत्पादक चरित्र उत्पादन की दुनिया के बाहर भी मुनाफे की हवस को पूरा करने की जुगत भिड़ाता रहता है। सट्टा कारोबार पूँजीवाद के इसी अनुत्पादक चरित्र की एक अभिव्यक्ति है।
मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2016
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन