मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (चौथी किस्त)
अनुवाद: आनन्द सिंह
अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं प्रसिद्ध राजनीतिक चित्रकार ह्यूगो गेलर्ट ने 1934 में मार्क्स की ‘पूँजी’ के आधार पर एक पुस्तक ‘कार्ल मार्क्सेज़ कैपिटल इन लिथोग्राफ़्स’ लिखी थी जिसमें ‘पूँजी’ में दी गयी प्रमुख अवधारणाओं को चित्रों के ज़रिये समझाया गया था। गेलर्ट के ही शब्दों में इस पुस्तक में ‘‘…मूल पाठ के सबसे महत्वपूर्ण अंश ही दिये गये हैं। लेकिन मार्क्सवाद की बुनियादी समझ के लिए आवश्यक सामग्री चित्रांकनों की मदद से डाली गयी है।’’ ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए इस शानदार कृति के चुनिन्दा अंशों को एक श्रृंखला के रूप में दिया जा रहा है। — सम्पादक
माल: माल के दो कारक
उपयोग मूल्य और मूल्य (मूल्य का सारतत्व, मूल्य का परिमाण)
जिन समाजों में उत्पादन की पूँजीवादी पद्धति व्याप्त होती है, उनकी सम्पदा ‘‘मालों के विशाल संचय’’ का रूप लेती है, जिसमें एक-एक माल उसकी बुनियादी इकाई होता है…
माल मुख्यत: एक बाह्य वस्तु होती है, एक ऐसी वस्तु जिसके गुण उसे किसी न किसी प्रकार से किसी मानवीय आवश्यकता की पूर्ति करने में सक्षम बनाते हैं। इन आवश्यकताओं का स्वरूप क्या है, उदाहरण के लिए वे पेट से पैदा हुई हैं या कल्पना से, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता…
हर उपयोगी वस्तु, जैसे कि लोहा, कागज़ आदि, को दोहरे दृष्टिकोण से देखना चाहिए, उसकी गुणवत्ता के दृष्टिकोण से और उसकी मात्रा के दृष्टिकोण से….
किसी चीज़ की उपयोगिता उसे उपयोग-मूल्य प्रदान करती है। परन्तु यह उपयोगिता अपने आप में उससे कोई अलग चीज़ नहीं है। माल के गुणों से निर्धारित होने के नाते उनके बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए माल अपने आप में, जैसे लोहा, गेहूँ, हीरा आदि, उपयोग-मूल्य या वस्तु है…उपयोग-मूल्य केवल उपयोग या उपभोग के द्वारा ही वास्तविकता बनता है। उपयोग-मूल्य सम्पदा का सारतत्व होते हैं, उसका सामाजिक स्वरूप चाहे जो भी हो। इसी तरह से, जिस प्रकार के समाज की हम पड़ताल करने जा रहे हैं, उसमें वे विनिमय-मूल्य के भौतिक आधान होते हैं।
विनिमय-मूल्य अपने आपको मुख्यत: एक परिमाणात्मक अनुपात में व्यक्त करता है, एक ऐसा अनुपात जिसमें एक प्रकार के उपयोग-मूल्य की दूसरे प्रकार के उपयोग-मूल्य से अदला-बदली की जाती है, एक ऐसा अनुपात जो दिक् और काल के अनुसार लगातार बदलता रहता है। अत: विनिमय-मूल्य आकस्मिक ओर पूरी तरह से सापेक्ष प्रतीत होता है, और नतीजतन मालों में अन्तर्निहित विनिमय-मूल्य (अन्तर्निहित मूल्य) जैसा शब्द विरोधाभासी है…
मालों के बीच के विनिमय अनुपात की स्पष्ट अभिलाक्षणिकता ठीक यही है कि उनके उपयोग-मूल्य पर ध्यान नहीं दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से एक उपयोग-मूल्य किसी दूसरे उपयोग मूल्य जैसा ही मूल्यवान है, बशर्ते वह पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो…सौ पाउण्ड की क़ीमत का सीसा या लोहा उतना ही मूल्यवान है जितना कि सौ पाउण्ड की क़ीमत का चाँदी और सोना। उपयोग-मूल्य के रूप में देखने पर माल सबसे पहले अलग-अलग गुणवत्ता वाले होते हैं; जबकि विनिमय-मूल्य के रूप में देखने पर वे केवल परिमाण में अलग हो सकते हैं, क्योंकि इस दृष्टिकोण से उनका कोई उपयोग-मूल्य नहीं है।
मालों के उपयोग मूल्य पर ध्यान न देने पर केवल एक चीज़ ऐसी बचती है जो उन सबमें साझा है, वह यह कि वे सभी श्रम के उत्पाद हैं।
लेकिन श्रम का उत्पाद भी हमारे हाथ में आकर बदल चुका है। यदि अमूर्तन की प्रक्रिया द्वारा हम इसके उपयोग-मूल्य को नज़रअन्दाज़ कर दें, यदि उन भौतिक संघटकों और स्वरूपों को भी नज़रअन्दाज़ कर दें, हमारे लिए कोई मेज़, या घर, या सूत, या अन्य कोई उपयोगी चीज़ नहीं है। उन सभी गुणों को निरस्त कर दें जिनके द्वारा यह हमारी इन्द्रियों पर असर डालती है। ऐसी स्थिति में यह एक बढ़ई के, राजमिस्त्री के या कताई करने वाले के काम का उत्पाद या किसी विशिष्ट श्रम का नतीजा नहीं रह जाते। जब श्रम उत्पादों का उपयोगी चरित्र विलुप्त हो जाता है, तो उनमें निहित श्रम का उपयोगी चरित्र भी विलुप्त हो जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि उस श्रम के विभिन्न ठोस रूप भी ग़ायब हो जाते हैं; अब वे एक-दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते; वे सभी एक ही तरह के मानवीय श्रम में बदल जाते हैं—अमूर्त मानवीय श्रम।
आइये अब इस पर विचार करें कि श्रम के उत्पादों में से क्या चीज़ बची रह गयी। उनमें से कुछ भी नहीं बचा रह गया, सिवाय उपरोक्त अमूर्त चीज़ के, महज़ अविभेदीकृत मानवीय श्रम के जमाव के, यानी मानवीय श्रम की ख़पत, इस ख़पत का तरीका क्या है, यह चीज़ मायने नहीं रखती।
अब जो चीज़ मायने रखती है वह यह कि उनके उत्पादन में मानवीय श्रम शक्ति की ख़पत हुई है, कि मानव श्रम उनमें संचित है। इस सामाजिक सारतत्व के क्रिस्टल के रूप में वे मूल्य हैं—मालों के मूल्य।
उपयोग मूल्य और मूल्य (मूल्य का सारतत्व, मूल्य का परिमाण)
मालों के विनिमय के अनुपात में हमें उनके विनिमय-मूल्य उनके उपयोग मूल्यों से सर्वथा स्वतंत्र प्रतीत हुए थे। श्रम उत्पादों के उपयोग-मूल्य को नज़रअन्दाज़ करके हम उनके मूल्य के बारे में उपरोक्त परिभाषित सन्दर्भ तक पहुँचे थे। मालों के विनिमय-अनुपात या विनिमय-मूल्य में पाया गया साझा तत्व वास्तव में उनका मूल्य होता है। हमारी पड़ताल आगे यह दिखायेगी कि विनिमय-मूल्य, मूल्य का आवश्यक प्रतीयमान रूप है, यानी वह एकमात्र रूप जिसमें मूल्य को अभिव्यक्त किया जा सकता है। परन्तु अभी के लिए हमें मूल्य को उसकी अभिव्यक्ति की प्रणाली से स्वतंत्र ही विचार करना होगा।
उपयोग-मूल्य या किसी वस्तु (उपयोगी वस्तु) का कोई मूल्य सिर्फ़ इसीलिए है क्योंकि उसमें अमूर्त श्रम निहित है अथवा उसने भौतिक रूप धारण किया है। इस मूल्य को हम कैसे माप सकते हैं? उसमें निहित ‘‘मूल्य पैदा करने वाली’’ की मात्रा के रूप में—श्रम की मात्रा के रूप में। यह स्वयं अपनी अवधि से मापी जाती है; और श्रम-काल को घंटों, दिनों आदि से माप जाता है।
अब यदि किसी माल का मूल्य उसके उत्पादन में लगे श्रम की मात्रा से तय होता है तो प्रथम दृष्टया यह प्रतीत हो सकता है कि यदि उसको बनाने वाला श्रमिक आलसी अथवा कम हुनरमन्द होगा तो उसका मूल्य अधिक होगा, क्योंकि आलस्य या फिर हुनर की कमी निश्चय ही उत्पादन में लगे समय को बढ़ा देगी। परन्तु वह श्रम जिसने मूल्य का सारतत्व पैदा किया वह समांग मानव श्रम है, यानी एकसमान श्रमशक्ति की ख़पत।
इसलिए, ऐसे मालों के मूल्य का परिमाण एक ही होगा जिनमें बराबर मात्रा में श्रम निहित होता है, अथवा जिन्हें बराबर श्रमकाल में उत्पादित किया जा सकता है। दो मालों के मूल्यों का अनुपात उनके उत्पादन में लगे आवश्यक श्रमकाल के बराबर होता है।
‘‘मूल्य के रूप में माल घनीभूत श्रमकाल के ही विशिष्ट पिण्ड हैं।’’
इस प्रकार यदि किसी माल के उत्पादन में लगा श्रमकाल स्थिर है तो उसके मूल्य का परिमाण भी स्थिर रहेगा। परन्तु मालों के उत्पादन में लगने वाला श्रमकाल श्रम की उत्पादकता में आये हर बदलाव के साथ बदलेगा। श्रम की उत्पादकता विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार तय होती है , जिनमें श्रमिक की औसत कुशलता, वैज्ञानिक सिद्धान्त का विकास, किस हद तक यह सिद्धान्त व्यवहार में लागू किया गया है, उत्पादन का सामाजिक संगठन, उत्पादन के साधनों की आपूर्ति और उनकी कार्यकुशलता, एवं कुछ भौतिक परिस्थितियाँ। उदाहरण के लिए श्रम की एक निश्चित मात्रा अनुकूल मौसम में आठ बुशेल गेहूँ के द्वारा प्रदर्शित की जा सकती है, जबकि प्रतिकूल मौसम में चार….
यह सम्भव है कि किसी वस्तु में मूल्य न हो, लेकिन फिर भी उसमें उपयोग-मूल्य हो। ऐसा तब होता है जब मानवता के लिए उसकी उपयोगिता श्रम का नतीजा न हो। उदाहरण के लिए: वायु, अछूती धरती, प्रायरी, आदिकालीन जंगल इत्यादि। ऐसी भी कोई चीज़ हो सकती है जो उपयोगी भी हो और मानव श्रम का उत्पाद भी हो, लेकिन फिर भी वह माल न हो। यदि कोई व्यक्ति अपने ख़ुद के श्रम के उत्पादों से अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है, तो वह उपयोग-मूल्य पैदा करता है लेकिन माल नहीं।
माल पैदा करने के लिए उसे महज़ उपयोग-मूल्य ही नहीं बल्कि दूसरों के लिए उपयोग मूल्य – सामाजिक उपयोग-मूल्य – पैदा करना होगा। ( और केवल ‘‘दूसरों के लिए’’ पैदा करना ही पर्याप्त नहीं है। मध्यकालीन किसान अपने सामन्ती स्वामी के लिए और पादरी की दक्षिणा के लिए अनाज का उत्पादन करता था; लेकिन यह तथ्य कि वे दूसरों के लिए उत्पादित किये गये थे, अपने आप में अनाज को माल नहीं बना देता। माल होने के लिए किसी उत्पाद को विनिमय के ज़रिये दूसरे ऐसे व्यक्ति के हाथों में पहुँचना चाहिए जिसके लिए इसका उपयोग-मूल्य हो।)
अन्त में ऐसी किसी चीज़ में मूल्य नहीं हो सकता जिसकी कोई उपयोगिता ही न हो। यदि वह बेकार है तो उसमें निहित श्रम भी बेकार होगा; ऐसे श्रम की गणना श्रम के रूप में नहीं की जा सकती, और इसलिए वह कोई मूल्य पैदा नहीं कर सकती।
माल: माल विनिमय के अन्धभक्तिनुमा चरित्र का रहस्य
… इस प्रकार श्रमकाल के द्वारा मूल्य के परिमाण का निर्धारण एक ऐसा रहस्य है जो मालों के सापेक्षिक मूल्यों के प्रत्यक्ष उतार-चढ़ाव के नीचे छिप जाता है।
… जब मैं यह कहता हूँ कि कोट या जूता या कोई अन्य चीज़ कपड़े से इस रूप में सम्बन्धित है कि वे सभी अमूर्त मानवीय श्रम के सामान्य मूर्त रूप हैं, तो यह बयान प्रत्यक्षत: बेतुका लगता है। फिर भी जब कोटों, जूतों, आदि के उत्पादक इन मालों को कपड़े के रूप में एक सामान्य समतुल्य (या फिर सामान्य समतुल्य के रूप में सोना या चाँदी के साथ) के साथ लाते हैं तो उनके निजी श्रम और समाज के सामूहिक श्रम के बीच का सम्बन्ध उनको ठीक इसी बेतुके रूप में उजागर होता है….
… केवल ऐसी ही चीज़ मूल्य का उपयुक्त प्रतीयमान रूप अथवा अमूर्त और इसलिए एकसमान मानव श्रम का मूर्त रूप हो सकती है जिसके हरेक नमूने के एक ही और एकसमान गुण हों। दूसरी ओर, चूँकि मूल्य के परिमाणों के बीच अन्तर पूरी तरह से मात्रात्मक है, ऐसा माल जिसे मुद्रा के रूप में काम करना है, उसे केवल मात्रात्मक बदलावों के प्रति ग्रहणशील होना होगा, यानी उसे इच्छानुसार आसानी से विभाजित किया जा सकता हो, और उसके बावजूद उसे उन हिस्सों का इस्तेमाल करके फिर से निर्मित किया जा सकता हो जिनमें वह विभाजित किया गया था। ये वो गुण हैं जो सोने और चाँदी की प्राकृतिक अभिलाक्षणिकता है। जिस माल का उपयोग मुद्रा के रूप में किया जाता है उसके दो प्रकार के उपयोग मूल्य होते हैं। एक माल के रूप में इसके विशिष्ट उपयोग-मूल्य (उदाहरण के लिए सोने का इस्तेमाल दाँत को भरने में, विलासिता के समानों के लिए कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल इत्यादि) के अतिरिक्त यह एक औपचारिक उपयोग-मूल्य ग्रहण करता है जो उसके विशिष्ट सामाजिक प्रकार्यों से उत्पन्न होता है।
…जब हम जानते हैं कि सोना मुद्रा है, और इसलिए अन्य मालों के बदले में इसका विनिमय किया जा सकता है, तो इसमें यह ज्ञान निहित नहीं होता कि सोने का मूल्य क्या होगा, मसलन 10 पौंड सोने का। किसी भी अन्य माल की तरह सोना अपने मूल्य के परिमाण को अन्य मालों के सापेक्षिक रूप में ही व्यक्त कर सकता है। इसका ख़ुद का मूल्य इसके उत्पादन में लगे श्रम की मात्रा पर निर्भर करता है, और वह मूल्य ऐसे किसी अन्य माल की मात्रा में व्यक्त होता है जिसमें उसी मात्रा में श्रमकाल घनीभूत हुआ हो।
मुद्रा, अथवा मालों का परिचलन
… जो चीज़ मालों को आनुपातिक बनाती है वह मुद्रा नहीं है। बल्कि सत्य इसके ठीक उलट है। चूँकि सभी माल, जहाँ तक कि वे मूल्य हैं, मानवीय श्रम के मूर्त रूप हैं, और इसलिए आनुपातिक हैं, इसलिए उन सभी के मूल्य किसी एक विशिष्ट माल के रूप में मापे जा सकते हैं; और इस विशिष्ट माल को इसलिए उनके मूल्यों के साझा मापक, यानी मुद्रा के रूप में तब्दील किया जा सकता है। मूल्य के रूप में मुद्रा मूल्य के अन्तर्निहित मापन का आवश्यक प्रतीयमान रूप, यानी श्रमकाल है…
मुद्रा दो बिल्कुल अलग कामों को अंजाम देती है: मूल्य के मापक के तौर पर और क़ीमतों के मानक के तौर पर। यह मूल्य का मापक है, क्योंकि यह मानवीय श्रम का सामाजिक अवतार है; यह क़ीमत का मानक तब तक है तब तक यह धातु के तयशुदा वजन के रूप में विद्यमान है। मूल्य के पैमाने के रूप में यह तमाम मालों के मूल्यों को क़़ीमतों में, या यूँ कहें कि सोने की काल्पनिक मात्राओं में तब्दील करने का काम करती है; क़ीमतों के मानक के रूप में यह सोने की इन मात्राओं को मापती है।
मूल्यों का मापक मूल्यों के रूप में मान्य मालों को मापता है; इसके उलट क़ीमतों का मानक सोने की मात्राओं को सोने की इकाई मात्रा के ज़रिये मापता है, यदि सोने को क़ीमतों के मानक के रूप में काम करना है, तो सोने के किसी निश्चित वजन को एक इकाई के रूप में तय करना होगा। यहाँ चूँकि एक ही मूल्यवर्ग वाली मात्राओं को मापा जाता है, इसलिए मापन की किसी अपरिवर्तनशील इकाई का होना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। नतीजतन जब तक सोने की एक निश्चित मात्रा मापन की इकाई का काम कर सकती है, तब तक क़ीमतों का मानक अपने काम को अंजाम देगा।
परन्तु सोना मूल्यों के मापन का काम सिर्फ़ इसलिए कर सकता है क्योंकि वह स्वयं श्रम का उत्पाद है, और इसलिए मूल्य में संभावित रूप से परिवर्तनशील है….
किसी वस्तु की क़ीमत उस वस्तु में निहित मूल्य का मुद्रा रूपी नाम है।
…जो चीज़ें अपने आप में माल नहीं होतीं, जैसे कि अन्तरात्मा, इज़्ज़त, आदि, उन्हें उनके स्वामियों द्वारा बेचने के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है, और इसलिए अपनी क़ीमत के ज़रिये वे माल का रूप ले लेती हैं। अत: किसी चीज़ का मूल्य हुए बिना भी उसकी क़ीमत हो सकती है। ऐसे मामले में क़ीमत की अभिव्यक्ति काल्पनिक होती है, जैसे कि गणितीय गणनाओं में प्रयुक्त कुछ निश्चित परिमाण। वहीं दूसरी ओर काल्पनिक क़ीमतों का रूप कभी-कभी प्रत्यक्ष या परोक्ष मूल्य सम्बन्धों को छिपा भी सकता है; मिसाल के लिए, ऐसी ज़मीन जिसे जोता न गया हो, उसकी क़ीमत हो सकती है, भले ही उसमें मानवीय श्रम ने लगने की वजह से उसका कोई मूल्य न हो।
… सोना मूल्य का एक आदर्श मापक सिर्फ़ इसीलिए है क्योंकि विनिमय की प्रक्रिया में उसने अपने आपको एक मुद्रा माल के रूप में स्थापित कर लिया है। मूल्य के आदर्श मापक के पीछे नक़दी छुपी होती है।
परिचलन के माध्यम के रूप में मुद्रा अपना काम एक ऐसा उपकरण बनकर अंजाम देती है जिसके द्वारा मालों का परिचलन संभव होता है….
काग़ज़ी मुद्रा सोना या मुद्रा को प्रदर्शित करने वाला टोकन है। उसके और मालों के मूल्यों के बीच सम्बन्ध यह है कि माल आदर्श रूप में सोने की उतनी ही मात्रा को प्रदर्शित करते हैं जितना कि प्रतीकात्मक रूप से उस काग़ज़ द्वारा किया जाता है। जिस हद तक काग़ज़ी मुद्रा सोने को प्रदर्शित करती है (जिसका अन्य मालों की ही भाँति मूल्य है), सिर्फ़ उसी हद तक यह मूल्य का प्रतीक होती है।
… जिस तरह मालों के बीच के सभी गुणात्मक अन्तर मुद्रा में बदलकर मिट जाते हैं, उसी तरह से अपनी बारी में मुद्रा रूपी यह उग्र सपाटकर्ता सभी अन्तरों को मिटा देता है। परन्तु मुद्रा स्वयं एक माल है, एक बाहरी वस्तु जो किसी व्यक्ति की निजी सम्पत्ति बनने में सक्षम है। इस प्रकार सामाजिक शक्ति निजी शक्ति में तब्दील हो जाती है। यही वजह है कि प्राचीन काल में लोग आर्थिक और नैतिक व्यवस्था का ध्वंस करने वाली चीज़ के रूप में मुद्रा की भर्त्सना करते थे। आधुनिक समाज…सोने की, अपने होली ग्रेल (पवित्र चषक) की, अपने जीवन के अन्तरतम सिद्धान्त के कान्तिमय मूर्त रूप की तरह जयजयकार करता है।
मुद्रा का पूँजी के रूप में रूपान्तरण
मालों का परिचलन पूँजी का आरंभिक बिन्दु है…
मुद्रा के रूप में मुद्रा और पूँजी के रूप में मुद्रा के बीच का प्रमुख अन्तर क्रमश: उनके परिचलन के रूपों के बीच का अन्तर ही है।
मालों के परिचलन का सरलतम रूप C – M – C है, यानी माल का मुद्रा के रूप में रूपान्तरण, और फिर मुद्रा का माल के रूप में पुन: रूपान्तरण; यानी ख़रीदने के लिए बेचना। परन्तु इस रूप के साथ ही साथ हम एक अन्य रूप भी देखते हैं जो विशिष्ट तौर पर अलग होता है। हम M – C – M रूप भी पाते हैं, मुद्रा का मालों में रूपान्तरण, और फिर मालों का मुद्रा के रूप में पुन: रूपान्तरण, यानी बेचने के लिए ख़रीदना। इनमें से बाद वाले तरीके से परिचलित मुद्रा इस प्रकार पूँजी में रूपान्तरित हो जाती है, वह पहले ही संभावित पूँजी है।
…मालों का साधारण परिचलन (ख़रीदने के लिए बेचना) एक ऐसे मक़सद को पूरा करने का माध्यम है, जो परिचलन के कार्यक्षेत्र से बाहर होता है; यानी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग-मूल्य के विनियोजन का माध्यम। वहीं दूसरी ओर पूँजी के रूप में मुद्रा का परिचलन अपने आप में एक लक्ष्य होता है, क्योंकि मूल्य का संवर्धन केवल इस सतत नवीनीकृत गति में ही संभव है। नतीजतन पूँजी के परिचलन की कोई सीमा नहीं है।
इस गति के सचेत प्रतिनिधि के तौर ही पर मुद्रा का स्वामी एक पूँजीपति बनता है। उसका व्यक्तित्व, या यूँ कहें कि उसकी जेब ही वह बिन्दु है जहाँ से मुद्रा निकलती है और जहाँ वह वापस लौटती है।
इस परिचलन की वस्तुगत आवश्यकता, मूल्य में संवर्धन, वास्तव में उसका मनोगत लक्ष्य है; और जब तक वह अमूर्त सम्पदा का विनियोजन उसके क्रियाकलापों का एकमात्र लक्ष्य होता है, केवल तब तक ही वह एक पूँजीपति के रूप में अथवा इच्छा सम्पन्न व चेतना सम्पन्न साक्षात पूँजी के तौर पर काम करता है। अत: उपयोग-मूल्य को कभी भी पूँजीपति का प्रत्यक्ष लक्ष्य नहीं मानना चाहिए। और न ही किसी एक लेनदेन में मुनाफ़ा उसका लक्ष्य होता है, क्योंकि उसका लक्ष्य तो मुनाफ़ाखोरी की कभी न ख़त्म होने वाली प्रक्रिया है…
जब मुद्रा पूँजी बन जाती है, तो परिचलन जो रूप ग्रहण करता है, वह माल की प्रकृति, मूल्य, मुद्रा और यहाँ तक कि परिचलन से सम्बन्धित अब तक हमने जितने नियमों का अध्ययन किया है, उन सब से टकराता है।
उपयोग-मूल्य के मामले में जहाँ विनिमय करने वाले दोनो पक्षों को लाभ होता है, विनिमय-मूल्य के मामले में दोनों को लाभ होना असंभव है। बल्कि यहाँ हमें यह कहना चाहिए: ‘‘जहाँ समानता का अस्तित्व होता है वहाँ कोई लाभ नहीं होता…’’
अधिशेष मूल्य का निर्माण और इसलिए मुद्रा के पूँजी में रूपान्तरण की व्याख्या न तो इस परिकल्पना के द्वारा की जा सकती है कि विक्रेता मालों को उनके मूल्य से ऊपर बेचता है, और न ही इस परिकल्पना के द्वारा कि ख़रीदार उन्हें उनके मूल्य से नीचे बेचता है….
हम जिस भी तरीके से देखें, कुल योग वही रहता है। यदि समतुल्य चीज़ों का विनिमय किया जाये तो कोई अधिशेष मूल्य नहीं पैदा होता; और यदि ग़ैर-समतुल्य चीज़ों का विनिमय किया जाये तो भी कोई अधिशेष मूल्य नहीं पैदा होता। परिचलन, यानी मालों का विनिमय, कोई मूल्य नहीं पैदा करता।
… चूँकि मुद्रा के पूँजी में रूपान्तरित होने अथवा अधिशेष मूल्य के पैदा होने की व्याख्या महज़ परिचलन के नतीजे के रूप में असंभव है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापारी की पूँजी केवल इसलिए पैदा होती है क्योंकि व्यापारी ख़रीदने वाले उत्पादक और बेचने वाले उत्पादक के बीच में ख़ुद को परजीवी के समान धकेलकर दोनों को ठगता है। इस मायने में बेंजामिन फ्रैंकलिन कहते हैं: ‘‘युद्ध डाकेजनी है, व्यापार आम तौर पर ठगी है’’। अगर हम व्यापारी की पूँजी के संवर्धन की व्याख्या मालों के उत्पादकों की ठगी से अधिक और किसी चीज़ की वजह से करते हैं, तो हमें बीच की कड़ियों के एक लम्बे सिलसिले की चर्चा करनी होगी, जिसका हमारे पास अभी भी अभाव है, जबकि हमारा सरोकार सिर्फ़ मालों के परिचलन और इसके साधारण कारकों से है।
…श्रीमान थैलीशाह, जो अभी केवल भूण रूप में पूँजीपति हैं, को अपने मालों को उनके मूल्य पर ख़रीदना होगा, और उन्हें उनके मूल्य पर बेचना होगा; परन्तु इस प्रक्रिया के अन्त में उन्हें परिचलन के प्रारम्भ में डाले गये मूल्य से अधिक मूल्य प्राप्त करना होगा। उन्हें एक इल्ली से बढ़कर तितली बनना होगा, और यह रूपान्तरण परिचलन के क्षेत्र और उसके बाहर एकसाथ होना होगा। तो यह है समस्या की स्थिति। यह है वो चुनौती जिससे हमें जूझना है!
मुद्रा का पूँजी में रूपान्तरण: श्रम शक्ति की ख़रीद और बिक्री
… थैलीशाहों को इतना खुशक़िस्मत होना होता है कि उन्हें बाज़ार में परिचलन के क्षेत्र में ऐसा माल मिले जिसके उपयोग-मूल्य का यह विशिष्ट गुण हो कि वह मूल्य का स्रोत हो। ऐसा माल जिसका वास्तविक उपभोग वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा श्रम मूर्त रूप धारण करता है, और इसलिए जिसके द्वारा मूल्य पैदा होता है। इस शख़्स को बाज़ार में वाक़ई ऐसा विशिष्ट माल मिल जाता है। उसे यह श्रम करने की क्षमता के रूप में मिलता है, यानी श्रमशक्ति के रूप में।
….
परन्तु मुद्रा के स्वामी को ऐसी श्रमशक्ति मिल सके जो स्वयं को बाज़ार में माल की तरह बेच रही हो, इसके लिए कई शर्तों को पूरा होना ज़रूरी है।… श्रमशक्ति को बेचने वाला और मुद्रा का स्वामी दोनों बाज़ार में मिलते हैं और समान अधिकार वाले मालों के स्वामी के तौर पर पारस्परिक सम्बन्धों में बँधते हैं, उनमें फ़र्क केवल यह होता है कि उनमें से एक ख़रीदार है और दूसरा विक्रेता; यानी वे क़ानून की निगाह में समान व्यक्ति हैं।
ऐसा सम्बन्ध केवल इस समझ पर क़ायम रह सकता है कि श्रमशक्ति का स्वामी श्रमशक्ति को एक निश्चित समय के लिए ही बेचे, न कि उससे अधिक समय के लिए; क्योंकि यदि वह उसे हमेशा के लिए बेचता है, तो वह स्वयं को बेच देगा, वह अपने आप को एक स्वतंत्र व्यक्ति से एक दास के रूप में तब्दील कर लेगा, यानी वह एक माल का स्वामी हाने की बजाय ख़ुद एक माल के रूप में तब्दील हो जायेगा।…
यदि मुद्रा के स्वामी को बाज़ार में श्रमशक्ति पानी है, तो इसके लिए दूसरी आवश्यक शर्त यह है कि मज़दूर, यानी श्रमशक्ति का स्वामी, ऐसा होना चाहिए कि जिन मालों में उसके श्रम ने मूर्त रूप धारण किया है, उन्हें बेच सकने की बजाय वह अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए तैयार हो, जिसका उसके जीवित व्यक्तित्व से अलग कोई अस्तित्व नहीं होता…
यह विशिष्ट माल, यानी श्रमशक्ति, अब और क़रीब से ध्यान देने की माँग करती है। अन्य सभी मालों की ही तरह इसका भी मूल्य होता है। यह मूल्य कैसे निर्धारित होता है?
किसी भी अन्य माल की ही तरह श्रमशक्ति का मूल्य भी इस विशिष्ट माल के उत्पादन, और नतीजतन उसके पुनरोत्पादन में लगे श्रमकाल द्वारा निर्धारित होता है। जब तक इसमें मूल्य निहित है, श्रमशक्ति स्वयं इसमें लगे औसत सामाजिक श्रम की किसी निश्चित मात्रा को ही प्रदर्शित करती है….
श्रमशक्ति का स्वामी नश्वर है। नतीजतन यदि उसे सदैव बाज़ार में उपस्थित होना है, जोकि मुद्रा को पूँजी में रूपान्तरित करने के लिए आवश्यक है, श्रमशक्ति के विक्रेता को ख़ुद को चिरायु बनाना होता है, प्रजनन के द्वारा।
ह्रास और मौत की वजह से बाज़ार से निकली श्रमशक्ति को लगातार कम से कम उसी मात्रा में श्रमशक्ति से प्रतिस्थापित करना होता है। अत: श्रमशक्ति के उत्पादन के लिए आवश्यक जीवन-निर्वाह के साधनों के कुल योग में उनके जीवन-निर्वाह के साधन भी शामिल होते हैं जो उनकी श्रमशक्ति को प्रतिस्थापित करेंगे, यानी मज़दूरों के बच्चे…
निम्नतम सीमा, या श्रमशक्ति के मूल्य का न्यूनतम मान, निश्चित मात्रा में उन मालों के मूल्य द्वारा निर्धारित होती है जिनकी दैनिक आपूर्ति के बिना श्रमशक्ति का स्वामी, वह इंसान, अपने जीवन के लिए आवश्यक प्रक्रियाओं को पुनर्नवा नहीं कर सकता; यानी यह जीवन-निर्वाह के उन साधनों के मूल्य द्वारा निर्धारित होता है जो भौतिक रूप से अपरिहार्य हैं। यदि श्रमशक्ति की क़ीमत इस न्यूनतम तक गिरती है तो यह अपने मूल्य से भी नीचे गिर जाती है, जो यह दिखाता है कि श्रमशक्ति सिर्फ़ विकृत रूप में स्वयं को क़ायम रख सकती है और विकसित कर सकती है। परन्तु हर माल का मूल्य उसकी सामान्य गुणवत्ता में उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल से ही निर्धारित होता है।
…उन देशों में जहाँ पूँजीवादी उत्पादन पद्धति स्थापित हो चुकी है, श्रमशक्ति का भुगतान अनुबंध में निर्दिष्ट समय तक काम करने के बाद ही किया जाता है; उदाहरण के लिए सप्ताह के अन्त में। इसलिए हर जगह मज़दूर अपनी श्रमशक्ति के उपयोग-मूल्य को अग्रिम तौर पर पेश करता है; श्रमशक्ति का विक्रेता दाम मिलने से पहले ही ख़रीदार को अपने उपयोग-मूल्य का उपभोग करने की अनुमति देता है; हर जगह मज़दूर पूँजीपति को ऋृण देता है।
… हम मुद्रा के स्वामी और श्रमशक्ति के स्वामी का पीछा उत्पादन के केन्द्र बिन्दु तक करेंगे, उस दरवाज़े की दहलीज़ तक जिसके ऊपर यह लिखा है: ‘‘व्यवसाय के अतिरिक्त और किसी चीज़ के लिए प्रवेश की आज्ञा नहीं’’ यहाँ हम न सिर्फ़ यह देखेंगे कि पूँजी कैसे उत्पादन करती है, बल्कि यह भी कि यह ख़ुद कैसे उत्पादित होती है। हम अन्तत: अधिशेष मूल्य के निर्माण का रहस्य खोज लेंगे।
… वह जो बाज़ार में मुद्रा के स्वामी के रूप में आया था, पूँजीपति के रूप में लम्बे डग भरते हुए बाज़ार को छोड़ता है; वह जो बाज़ार में श्रमशक्ति के स्वामी के रूप में आया था, मज़दूर के रूप में घिसटकर चलता है। पहला वाला अहंकारी, आत्मतुष्ट, व्यवसाय पर तीख़ी नज़र रखने वाला होता है; दूसरा वाला भीरु, अनिच्छुुक, एक ऐसे व्यक्ति की तरह होता है जो बाज़ार में अपनी ही चमड़ी लाता है और उसे इसके अलावा और कोई उम्मीद नहीं रहती कि उसकी चमड़ी उधेड़ी जायेगी।
मज़दूर बिगुल, जून 2016
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