किसानों-खेत मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याएँ और कर्ज़ की समस्या
जिम्मेदार कौन है? रास्ता क्या है?
गुरप्रीत
बीती 26 अप्रैल को पंजाब के बरनाला ज़िले के जोधपुर गाँव में सूदखोरों का कर्ज़ा चुका पाने में असमर्थ किसान और उसकी माँ द्वारा ज़हरीली दवाई पीकर ख़ुदकुशी करने की भयानक घटना ने एक बार फिर से राज्य के संवेदनशील लोगों को हिला कर रख दिया। किसान बलजीत के पास 2 एकड़ ज़मीन थी और उसके बाप पर तेजा सिंह नाम के सूदख़ोर का कर्ज़ा था जो उनके मरने के बाद बलजीत के सिर आ गया। कई तरह की हेरा-फेरियों, ज़्यादा ब्याज लगाने और सरकारी महकमों में जोड़-तोड़ करके तेजा सिंह ने बलजीत की ज़मीन अपने नाम करा ली। जब तेजा सरकारी अधिकारियों और पुलिस के साथ ज़मीन पर कब्ज़ा करने आया तो गाँव के लोगों की मौजूदगी में बलजीत सिंह ने घर की छत पर चढ़कर ज़हरीली दवाई पी ली, उसको देखकर उसकी मां बलबीर कौर ने भी बाकी की दवाई पी ली और अस्पताल ले जाते समय दोनों की मौत हो गयी। यह त्रासदी कृषि प्रधान राज्य पंजाब में खेती के संकट में जी रहे ग़रीब किसानों और मज़दूरों की दर्दनाक हालत को दिखाने वाली एक प्रतिनिधि घटना है।
राज्य के अख़बारों में लगभग रोज़ ख़ुदकुशी की कोई नयी ख़बर छपती है। ऐसी ख़बरों के कुछ अंश हम यहाँ दे रहे हैं। पंजाबी ट्रिब्यून 27 अप्रैल के संपादकीय के अनुसार, ”पंजाब में इस समय औसतन हर दो दिनों में तीन किसान कर्ज़े के बोझ के कारण ख़ुदकुशी करते हैं। केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री की ओर से संसद में पेश किये गये आँकड़ों के अनुसार पंजाब में इस साल 11 मार्च तक 56 किसानों ने ख़ुदकुशी की है जबकि अख़बारी रिपोर्टों के अनुसार सिर्फ अप्रैल महीने में 26 तारीख तक 40 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसान ख़ुदकुशियों के मामले में महाराष्ट्र के बाद पंजाब देश में दूसरे नम्बर पर आ गया है। राज्य के तीन विश्वविद्यालयों की ओर से किये गये सर्वेक्षण के अनुसार 2000 से 2011 के दौरान राज्य में कृषि से सम्बन्धित 6926 व्यक्तियों ने ख़ुदकुशी की जिनमें से 3954 किसान और 2972 खेत मज़दूर थे। पंजाब सरकार ने 2011 के बाद किसानों और खेत मज़दूरों की ख़ुदकुशियों के बारे में ना तो कोई नया सर्वेक्षण करवाया है और ना ही इनका रिकार्ड रखने के लिए कोई तंत्र क़ायम किया है जबकि इस समय के दौरान कृषि संकट और गहरा होने के कारण ख़ुदकुशियों की गिनती में बहुत ज़्यादा वृद्धि हुई है।’’ यहाँ देखा जाये तो सबसे ज़्यादा ख़ुदकुशियाँ संगरूर (1,132), फिर मानसा (1,013) और बठिंडा (827) में हुई हैं।
यह तस्वीर सिर्फ पंजाब की ही नहीं बल्कि पूरे भारत की है। देश में सबसे ज़्यादा, 45 प्रतिशत किसानों की आत्महत्याएँ महाराष्ट्र में होती हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार जनवरी से जून 2015 के दौरान 1300 किसानों ने ख़ुदकुशी की, मतलब रोज़ाना 7 किसानों ने ख़ुदकुशी की। पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी, लुधियाना के डा. सुखपाल अपने लेख में लिखते हैं, “राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2012 में देश में हर रोज़ 46 किसान ख़ुदकुशी करते थे। भारत में बड़े स्तर पर ख़ुदकुशियों का सिलसिला नयी आर्थिक नीतियाँ लागू होने के बाद 1990 के आखिर में देखने को मिलता है। 1997 से 2006 के दौरान 10,95,219 व्यक्तियों ने ख़ुदकुशी की, जिनमें से 1,66,304 किसान थे। किसानों का यह आँकड़ा अब बढ़कर तीन लाख हो गया है। किसानों में ख़ुदकुशियों की दर बाकी आबादी से ज़्यादा है, जहाँ पूरी आबादी में एक लाख के पीछे 10.6 व्यक्ति ख़ुदकुशी करते हैं, वहाँ किसानों में यह एक लाख के पीछे 15.8 ख़ुदकुशियाँ हैं। भारत में हर साल करीब 17,000 किसान ख़ुदकुशियाँ कर रहे हैं। जहाँ पिछले दस सालों के दौरान हर बीते दिन 47 किसानों ने ख़ुदकुशी की, वहीं यह आँकड़ा 2006 के बाद 52 हो गया। यह सारा विश्लेषण नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों पर आधारित है कि जब कि विश्वविद्यालयों और खोज संस्थाओं की रिपोर्टें बताती हैं कि भिन्न-भिन्न राज्यों में ख़ुदकुशियों की गिनती इससे भी कहीं ज़्यादा है”।
इन ख़ुदकुशियों के ज़्यादातर मामलों में ख़ुदकुशी का कारण कर्ज़ा है। पंजाब में हुई करीब 7000 ख़ुदकुशियों में से 74 फ़ीसदी किसानों और 58.6 फ़ीसदी खेत मज़दूरों की ख़ुदकुशी का कारण उनकी कर्ज़ा चुका पाने की असमर्थता थी। इसके अलावा फसल का बर्बाद हो जाना, फसल ना बिकना, घाटा होना जैसे भी कारण शामिल हैं। खेत मज़दूरों के मामले में काम का ज़्यादा बोझ, सामाजिक अपमान जैसे कारण भी जुड़ जाते हैं। ख़ुदकुशी करने वालों में से ज़्यादातर किसान ग़रीब और मझोले किसान हैं। आज कृषि सेक्टर पर 52 हज़ार करोड़ रुपए का संस्थागत कर्ज़ा है। पिछले 10 सालों में कर्ज़ा लिये हुए किसानों की गिनती दोगुनी हो गयी है।
पंजाबी यूनिवर्सिटी की ओर से भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसन्धान परिषद के लिए जनवरी 2016 में कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार पंजाब के किसानों-मज़दूरों पर 69,355 करोड़ रुपए का कर्ज़ा है। इसमें से 56,481 करोड़ रुपए संस्थागत कर्ज़े हैं। 2.5 एकड़ की मालिकी वाले किसानों पर औसतन 2,76,839 रुपए, 5 एकड़ तक के किसानों पर 5,57,338 करोड़ रुपए, 10 एकड़ तक वालों पर 6,84,649 रुपए, 15 एकड़ तक वालों पर 9,35,608 करोड़ रुपए और उससे ऊपर वाले किसानों पर 16,7,473 रुपए कर्ज़ा है। 2.5 एकड़ तक वाले 83.3 प्रतिशत किसान और 5 एकड़ तक वाले 88.64 प्रतिशत किसान कर्ज़े में दबे हैं। कुल किसानी का 85.9 फ़ीसदी हिस्सा कर्ज़े में है और एक किसान पर औसतन 5,52,064 रुपए का कर्ज़ा है। धनी किसानों का 8.16 फ़ीसदी हिस्सा ही गैर-संस्थागत (यानी निजी सूदख़ोरों से) कर्ज़े लेता है जबकि छोटे किसानों में यह दर 40 फ़ीसदी तक जा पहुँची है।
खेत मज़दूरों की हालत ज़्यादा बुरी है। एक खेत मज़दूर परिवार पर औसतन 66,330 रुपए का कर्ज़ा है। इनमें से 92 फ़ीसदी मज़दूरों के कर्ज़े गैर-संस्थागत हैं। यानी खेत मज़दूर ज़्यादातर धनी किसानों के ही कर्ज़दार हैं। यह कर्ज़ा चुकाने के लिए उनका पूरा परिवार काम करता है। मर्दों के अलावा औरतें और बच्चे भी फसल बुवाई, कटाई, सब्जियों और फलों को तोड़ने और उन्हें सँभालने का काम करते हैं। खेतों के साथ-साथ मज़दूर परिवार की औरतें और बच्चे कर्ज़ा देने वालों के घरों में साफ-सफाई, कूड़ा- कर्कट, पशुओं की देखभाल जैसे घरेलू काम भी करते हैं। इन खेत मज़दूरों पर मनमर्ज़ी के ब्याज लगाये जाते हैं और उनकी मेहनत का कोई तय मूल्य नहीं होता और उनसे बहुत ज़्यादा काम लिया जाता है। खेत मज़दूरों को मकान बनाने, दवा-इलाज, शादी, पढ़ाई आदि के कारण कर्ज़ा लेना पड़ता है जो बाद में सारे परिवार द्वारा मिलकर काम करने पर भी चुक नहीं पाता है।
किसान के कर्ज़ों और ख़ुदकुशियों के कई तरह के उदाहरण अक्सर देखने को मिल जाते हैं। इनमें से सबसे ज़्यादा यह सुनने को मिलता है कि किसान ख़ुद ही मौत का ज़िम्मेदार है। शादियों में दिखावे के लिए कर्ज़े लेता है और बाद में उससे वो कर्ज़ा चुकाया नहीं जाता। यह पूरी तस्वीर नहीं है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन के 2005 के आँकड़े के अनुसार किसानों की ओर से लिये गये कर्ज़े का 65 फ़ीसदी हिस्सा खेती में ही खर्च होता है, जबकि घरेलू खर्च (इलाज, शादी, शिक्षा) के लिए लगभग 25 फ़ीसदी और बाकी का 10 फ़ीसदी अन्य खर्चों में इस्तेमाल होता है। इन आँकड़ों से साफ है कि सिर्फ विवाह के खर्चे ही ख़ुदकुशियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि विवाह पर किया गया व्यर्थ खर्चा सही है। विवाह के खर्चों के कारण किसान कर्ज़दार होते हैं और ख़ुदकुशियाँ भी करते हैं। पर यह पूरी तस्वीर का छोटा हिस्सा है, यह मुख्य कारण नहीं है। इसको बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना ही मुख्य कारणों को छिपाना है।
इस कर्ज़े के कारण को लेकर बहुत अस्पष्टता फैली हुई है। अकसर ही कृषि संकट की जड़ें हरित क्रान्ति के मॉडल, किसी सरकार की कुछ नीतियों या फिर अधिक लागत पर किसानों को मिलने वाले कम दाम आदि में देखी जाती हैं। मगर ये सभी बातें संकट के कुछ लक्षणों की ही व्याख्या करती हैं, बुनियादी कारण की नहीं। दरअसल भारत एक पूँजीवादी देश है और यह विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का एक हिस्सा है। खेती-किसानी का संकट असल में पूँजीवादी व्यवस्था का एक बुनियादी लक्षण है, या यह कह लें कि पूँजीवादी व्यवस्था ख़ुद ही एक संकट है। पूँजीवादी होने का मतलब है कि यहाँ उत्पादन के साधनों (यानी कारख़ाने, ज़मीनें और खानें आदि) का मालिकाना निजी है जबकि पैदावार सामाजिक है, यानी उत्पादन के साधनों द्वारा चीज़ें पैदा करने में समाज का बहुत बड़ा हिस्सा मेहनत करता है और ये चीज़ें समाज की ज़रूरतों से पैदा की जाती हैं । लेकिन मालिकाना निजी हाथों में होने के कारण पैदावार पर उत्पादन के साधनों के मालिक का कब्ज़ा हो जाता है और वह इनको बेचकर मुनाफ़ा कमाता है। इस कारण क्या पैदा करना है और कितना पैदा करना है यह मालिक अपने मुनाफे़ के हिसाब से तय करते हैं ना कि समाज की ज़रूरतों के अनुसार। इस तरह पूँजीवाद में पैदावार की चालक शक्ति मुनाफ़ा होती है। भारत में कृषि पूरी तरह पूँजीवादी खेती में बदल चुकी है। यानी यहाँ खेती बाज़ार के लिए की जाती है। भारत में किसानी की अनेक परतें हैं। किसानी की इन विभिन्न परतों के हित अलग-अलग हैं और मण्डी के लिए उनमें आपस में मुकाबला होता है। यहाँ बहुसंख्यक किसान छोटे मालिकाने वाले हैं। मण्डी में आने वाले उत्पाद का बड़ा हिस्सा धनी किसानों की ओर से आता है, पर जब खेती मुख्यतया मण्डी के लिए होने लगती है तो छोटे मालिक इस होड़ में अपने आप घसीट लिये जाते हैं। मुनाफे़ के लिए पैदावार में हर कोई ज़्यादा से ज़्यादा पैदा करना चाहता है और मण्डी का ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा हड़पना चाहता है। इस होड़ में बड़े मालिकों का हाथ ऊपर होता है और मुनाफे़ की दौड़ में छोटे किसान हमेशा पिछड़ जाते हैं। इस तरह किसानी की निचली परतों के एक हिस्से का लगातार उजरती मज़दूरों में कायापलट होता रहता है। ग़रीब किसानों के सिर पर हमेशा पैदावार के साधनों से अलग होने की तलवार लटकती रहती है। कृषि संकट की सबसे ज़्यादा मार तो इस हिस्से पर पड़ती है बल्कि कृषि अर्थव्यवस्था संकट में नहीं होती तब भी ग़रीब किसानों का मण्डी की होड़ में मुक़ाबले से बाहर होना और पैदावार के साधनों से वंचित होना चलता रहता है।
अधिक मुनाफे़ के लिए कृषि की तकनीक, बीज, खाद आदि पर निवेश लगातार बढ़ता रहता है। धनी किसान अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए अधिक बड़े स्तर पर निवेश करते हैं और इसके लिए वह कर्ज़ा भी लेते हैं। उनके लिए कर्ज़ा लेना कोई समस्या नहीं होती बल्कि वह आसानी से प्राप्त होने वाली राशि होती है जिसको ब्याज समेत चुकाकर भी वह मुनाफ़ा कमा लेते हैं। दूसरी ओर ग़रीब और छोटे किसानों को भी मण्डी में टिके रहने के लिए कृषि पैदावार और तकनीक में पैसे लगाने की ज़रूरत होती है और इसके लिए उनको कर्ज़ा लेना पड़ता है। छोटे पैमाने पर पैदावार के कारण उनकी आमदनी भी कम होती है और उनका कर्ज़ा चुकाना मुश्किल हो जाता है। फसल ख़राब होने या ना बिकने की हालत में उनके खर्चे पूरे नहीं होते और वे कर्ज़ा नहीं चुका पाते। इस तरह ग़रीब और छोटे किसानों के कर्ज़े और ख़ुदकुशी की जड़ें पूरी पूँजीवादी व्यव्सथा में, या कह लें कि ज़मीन के निजी मालिकाने में है। जब तक निजी मालिकाना है तब तक छोटे किसानों का पैदावार के साधनों से वंचित होते जाना एक अटल प्रक्रिया की तरह चलता रहेगा। कर्ज़ा उनके पैदावार के साधनों से वंचित होने की गति को कुछ हद तक बढ़ा देता है, पर यह उनके पैदावार के साधनों से वंचित होने का बुनियादी कारण नहीं होता। अगर ग़रीब और छोटे किसान के सिर पर कर्ज़ा ना भी हो तो भी वह धनी किसानों के साथ ज़्यादा देर मुकाबले में खड़े नहीं रह सकते और उन्हें अपनी जगह-ज़मीन से उजड़कर मज़दूरों की कतार में शामिल होना ही होता है।
खेत मज़दूरों का मामला तो और भी ज़्यादा स्पष्ट है। उनके पास पैदावार के साधन ना होने के कारण उनको अपनी श्रम शक्ति बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है, पर उनको अपने श्रम का इतना भी मूल्य नहीं मिलता कि अपने परिवार की बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें। इस मज़बूरी के कारण उन्हें कर्ज़ा लेना पड़ता है और वे कर्ज़ के जाल में उलझ जाते हैं।
इस तरह हम देख सकते हैं कि ग़रीब किसानों और खेत मज़दूरों की आत्महत्याओं की जड़ें इस पूँजीवादी व्यवस्था में ही हैं जो दौड़ के पशुओं की तरह उन्हें अपने तरीके से भागने के लिए मजबूर करती है और जो इस दौड़ में टिक नहीं पाता उसे मार दिया जाता है।
किसानों की आत्महत्याओं और कर्ज़े की समस्या के प्रति सरकारों का व्यवहार सदा बेरुखी वाला रहा है। चाहे किसी राज्य की सरकार हो, या केन्द्र की, किसी ने भी ख़ुदकुशी करते किसानों, मज़दूरों को बचाने की कोशिश नहीं की। पंजाब में 2001 से कर्ज़ा माफी विधेयक को लेकर हंगामा चल रहा था, जो अब आने वाले विधानसभा चुनाव को देखकर अप्रैल महीने में पास तो कर दिया गया पर उनको साहूकारों के पक्ष में बना दिया गया जिससे किसानों-मज़दूरों को कोई राहत नहीं मिली। सरकारी विभागों और नौकरशाही में फैला भ्रष्टाचार भी किसानों-मज़दूरों की समस्याओं को और बढ़ाता है। यूपीए सरकार की ओर वर्ष 2008-2015 के दौरान अच्छे कीटनाशकों के लिए पंजाब सरकार को 1700 करोड़ रुपए भेजे गये, पर वह घपलेबाज़ी का शिकार हो गये। कुछ समय पहले कपास को सफेद मच्छर लगने के कारण नकली कीटनाशकों में सरकारी भ्रष्टाचार का मामला सामने आया है। ऐसे कारणों से भी किसान पर संकट की मार पड़ती है और उसको ख़ुदकुशी का रास्ता चुनने के लिए मजबूर होना पड़ता है। पंजाब में ख़ुदकुशी कर चुके किसानों और मज़दूरों के परिवारों को राहत देने की सरकार ने जो योजना अपनायी है वह सिर्फ खानापूरी तक सीमित है। इस योजना के तहत ख़ुदकुशी करने वाले के परिवार को 3 लाख रुपये की सरकारी सहायता मिलेगी, मगर इस सहायता के लिए आने वाले बहुतेरे मामलों को तकनीकी और कागज़ी अड़चनों द्वारा रद्द किया जा सकता है।
पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार भी पूँजीपतियों की सेवा के लिए होती है। दूसरे उद्योग के मुक़ाबले कृषि हमेशा पिछड़ जाती है। इसलिए सरकार की ओर औद्योगिक व्यवस्था (सड़कें, फ्लाइओवर आदि) में निवेश करने और औद्योगिक पूँजी को टैक्स छूट, कर्ज़े माफ़ करने जैसी सहायता देने के लिए तो बहुत सारा धन लुटाया जाता है पर कृषि के मामले में यह निवेश नाममात्र ही होता है। इसके अलावा कृषि के लिए भिन्न-भिन्न पार्टियाँ और सरकारें जो करती हैं वह भी धनी किसानों, धन्नासेठों आदि के लिए होता है, ग़रीब किसानों और मज़दूरों के हिस्से में कुछ भी नहीं आता। सरकारों के ध्यान ना देने के कारण ग़रीब किसान और खेत मज़दूर हाशिए पर धकेल दिये जाते हैं।
कृषि कर्ज़ों की सारी प्रक्रिया को समझने से यह साफ होता है कि ग़रीब किसान और मझोले किसानों का कर्ज़ा माफ कर दिया जाये तो इससे उनको कुछ समय के लिए राहत तो मिलेगी, लेकिन छोटी मालिक किसान का पैदावार के साधनों से उजड़कर मज़दूरों में तब्दील होना जारी रहेगा। दूसरे, कुछ समय बाद बाज़ार के नियमों के आगे मजबूर होकर ग़रीब और मझोले किसान फिर से कर्ज़दार हो जायेंगे। इसलिए इनकी आत्महत्याओं को रोकने के लिए कर्ज़ा माफ़ी कोई समाधान नहीं है। इससे बहुत आगे बढ़कर सोचने की ज़रूरत है।
किसान आत्महत्याओं पर मंत्रियों की बयानबाज़ी
• “सभी किसान आत्महत्याएँ बेरोज़गारी या भुखमरी के कारण होती हैं। यह तो फैशन बन गया है। रिवाज़ बन गया है।” – महाराष्ट्र में किसान आत्महत्याओं के बारे भाजपा सांसद गोपाल शेट्टी,18 फरवरी, 2016
• “भारतीय क़ानून के अनुसार ख़ुदकुशी ज़ुर्म है। जो व्यक्ति ख़ुदकुशी करता है, वह अपनी ज़िम्मेवारी से भागता है। ऐसे लोग बुज़दिल हैं और सरकार को ऐसे बुज़दिलों और मुजरिमों का साथ नहीं देना चाहिए।” – किसान ख़ुदकुशियों के बारे ओम प्रकाश धनकड़, हरियाणा में भाजपा सरकार का कृषि मंत्री, 29 अप्रैल, 2015
• “किसान अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद उठायें । अगर फसलें खराब हो जायें तो वह देखें कि क्या करना है। अगर वह मरते हैं तो मरने दो। जो खेती कर सकते हैं वो करें बाकी नहीं।” – संजय ढोकरा, महाराष्ट्र से भाजपा का सांसद, 31 दिसंबर, 2014
• “कोई भी फसल ख़राब होने के कारण ख़ुदकुशी नहीं कर सकता। मध्य प्रदेश में किसान निजी कारणों से ख़ुदकुशी कर रहे हैं।” – कैलाश विजयवर्गीय, भाजपा का राष्ट्रीय महासचिव, 8 अप्रैल, 2015
• “किसानों की ख़ुदकुशी के पीछे पारिवारिक समस्याएँ, बीमारी, नशा, दहेज़, प्रेम सम्बन्ध और नपुंसकता जैसे कारण हैं।” – राधामोहन सिंह, मोदी सरकार में केन्द्रीय कृषि मंत्री, जुलाई 2015
• “अगर किसान अपने मोबाइलों के बिल भर सकते हैं तो बिजली के क्यों नहीं? उनको बिल के कर्ज़े उतारने की आदत डाल लेनी चाहिए।” – एकनाथ खडसे, महाराष्ट्र में भाजपा का कृषि मंत्री, 24 नवंबर, 2014
आत्महत्याओं की इन घटनाओं को रोकने के लिए कई नुस्खे सुझाये जाते हैं। सबसे आम नुस्खा कृषि उत्पादों की क़ीमत बढ़ाने का पेश किया जाता है। पंजाब राज्य किसान कमीशन के चेयरमैन डॉ. जी.एस. कालकट का कहना सही है कि ‘स्वामीनाथन फार्मूला लागू करके अगर किसान की फसल का पचास फ़ीसदी मुनाफे़ पर भी दिया जाये तो भी राज्य के 70 फ़ीसदी किसान आर्थिक तंगी से बाहर नहीं आ सकते क्योंकि उनके पास बेचने के लिए ज़्यादा अनाज ही नहीं होता।‘ दूसरे नुस्खों में बदली फसलें या सब्जियाँ आदि बोने की सलाहें दी जाती हैं। पर यह भी कोई हल नहीं है। सब्जियाँ आदि बोकर कोई एक किसान तो टिका रह सकता है पर अगर बहुत से लोग सब्जियाँ बोने लगेंगे तो मण्डी में ज़रूरत से ज़्यादा फसल आ जायेगी और क़ीमतें पहले से भी ज़्यादा गिरने से फिर किसानी का एक हिस्सा तबाह हो जायेगा। यह तो पंजाब में आलू, किन्नू और कपास आदि की फसल के मामले में अक्सर ही देखने को मिलता है। एक और हल ज़मीन का बँटवारा भी पेश किया जाता है। लेकिन अगर सबको थोड़ी-थोड़ी ज़मीन मिल भी गयी तो बाज़ार की होड़ के चलते कृषि में ध्रुवीकरण जारी रहेगा, एक ओर ज़मीन कुछ हाथों में केन्द्रित होती जायेगी और दूसरी ओर ग़रीब किसान पैदावार के साधनों से वंचित होकर मज़दूरों की कतारों में शामिल होते जायेंगे। इस तरह इन सभी नुस्खों के पास इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं है, ज़्यादा से ज़्यादा कुछ नुस्खे थोड़ी देर के लिए ही राहत दे सकते हैं।
किसानों और खेत मज़दूरों की ख़ुदकुशी की घटनाएँ आज पंजाब में और पूरे देश में एक गम्भीर समस्या बनी हुई हैं। लेकिन इसका स्थायी हल एक ही है, और वह है पैदावार के साधनों के निजी मालिकाने को ख़त्म करके इसको समाज की सांझी मिल्कियत बनाना, जिससे पैदावार मुनाफे़ के लिए ना हो बल्कि समाज की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए हो। ऐसी व्यवस्था में मण्डी के लिए पैदावार कर रहे अलग-अलग किसानों की जगह पूरा समाज मिलकर अपनी ज़रूरतों के लिए पैदा करेगा जिससे ना किसी को उजड़ने का डर हो और ना ही कर्ज़दार होने का। यह काम कोई भी पूँजीवादी पार्टी नहीं करेगी। यह काम मज़दूर वर्ग की पार्टी की अगुवाई में समाजवादी इंक़लाब होने के बाद ही हो सकता है। इसलिए ग़रीब और मझोली किसानी का भविष्य मज़दूर वर्ग के इंक़लाबी आन्दोलन के साथ ख़ुद को जोड़ने में ही है।
मज़दूर बिगुल, जून 2016
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