काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो पाता। कम ही ऐसा हो पाता है कि लगातार सालभर उन्हें काम मिल सके (कभी-कभी किसी निर्माण परियोजना में साल, दो साल, तीन साल वे लगातार काम करते भी हैं तो उसके बाद बेकार हो जाते हैं)। लम्बी-लम्बी अवधियों तक ‘बेरोज़गारों की आरक्षित सेना’ में शामिल होना या महज पेट भरने के लिए कम से कम मज़दूरी और अपमानजनक शर्तों पर कुछ काम करके अर्द्धबेरोज़गारी में छिपी बेरोज़गारी की स्थिति में दिन बिताना उनकी नियति होती है।
पिछले इक्कीस वर्षों से जारी उदारीकरण-निजीकरण का दौर लगातार मज़दूरी के बढ़ते औपचारिकीकरण, ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण, ‘कैजुअलीकरण’ और ‘पीसरेटीकरण’ का दौर रहा है। नियमित/औपचारिक/स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की तादाद घटती चली गयी है, यूनियनों का रहा-सहा आधार भी सिकुड़ गया है। औद्योगिक ग्रामीण मज़दूरों की कुल आबादी का 95 प्रतिशत से भी अधिक असंगठित/अनौपचारिक है, यूनियनों के दायरे के बाहर है (या एक हद तक है भी तो महज़ औपचारिक तौर पर) और उसकी सामूहिक सौदेबाज़ी की ताक़त नगण्य हो गयी है। ऐसे मज़दूरों का बड़ा हिस्सा किसी भी तरह के रोज़गार की तलाश में लगातर यहाँ-वहाँ भागता रहता है। उसका स्थायी निवास या तो है ही नहीं या है भी, तो वह वहाँ से दूर कहीं भी काम करने को बाध्य है। तात्पर्य यह कि नवउदारवाद ने मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा यहाँ-वहाँ भटकने के लिए मजबूर करके प्रवासी मज़दूरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ा दी है।