माँगपत्रक शिक्षणमाला – 9 (पहली किस्त)
सर्वहारा आबादी के सबसे बड़े और सबसे ग़रीब हिस्से की माँगों के लिए नये सिरे से व्यवस्थित संघर्ष की ज़रूरत
मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक
भारत में सर्वहारा आबादी, यानी ऐसी आबादी जिसके पास अपने बाजुओं के ज़ोर के अलावा कोई सम्पत्ति या पूँजी नहीं है, क़रीब 70 करोड़ है। इस आबादी का भी क़रीब 60 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण सर्वहारा आबादी का है। यानी, गाँवों में खेतिहर और गैर-खेतिहर मज़दूरों की संख्या क़रीब 40 करोड़ है। भारत की मज़दूर आबादी का यह सबसे बड़ा हिस्सा सबसे ज्यादा ग़रीब, सबसे ज्यादा असंगठित, सबसे ज्यादा शोषित, सबसे ज्यादा दमन-उत्पीड़न झेलने वाला और सबसे अशिक्षित हिस्सा है। इस हिस्से को उसकी ठोस माँगों के तहत एकजुट और संगठित किये बिना भारत के मज़दूर अपनी क्रान्तिकारी राजनीति को देश के केन्द्र में स्थापित नहीं कर सकते हैं। सभी पिछड़े पूँजीवादी देशों में, जहाँ आबादी का बड़ा हिस्सा खेती-बारी में लगा होता है और गाँवों में रहता है, वहाँ खेतिहर मज़दूरों को संगठित करने का सवाल ज़रूरी बन जाता है। कुछ ऐसी ही स्थिति रूस की थी जब लेनिन ने लिखा था : ”रूस के सभी वर्ग संगठित हो रहे हैं। केवल वह वर्ग जो इनमें से सबसे ज्यादा शोषित और सबसे ज्यादा ग़रीब है, जो सबसे ज्यादा बिखरा हुआ और सबसे ज्यादा दमित है — यानी, रूस के खेतिहर उज़रती मज़दूरों का वर्ग — वही लगता है कि भुला-सा दिया गया है। …महान रूसी और उक्राइनी गुबेर्नियाओं की प्रबल बहुसंख्या, यानी कि ग्रामीण सर्वहारा के पास अपना कोई वर्ग संगठन नहीं है। …यह रूस के सर्वहारा के हिरावल, यानी कि औद्योगिक ट्रेड यूनियनों का अविवादास्पद और परम कर्त्तव्य है कि वे अपने भाइयों की सहायता के लिए, यानी ग्रामीण सर्वहारा की सहायता के लिए आगे आयें।” (लेनिन, रूस में एक कृषि मज़दूर यूनियन की आवश्यकता, ‘प्राव्दा’ संख्या 90 में, 24 जून 1917 को प्रकाशित)
लेनिन ने अपने इस कथन में एक ऐसी बात कही है जो आज हमारे लिए भी लागू होती है। भारत के करोड़ों-करोड़ ग्रामीण सर्वहारा बिखरे हुए हैं, बँटे हुए हैं, असंगठित हैं, अशिक्षित हैं और साथ ही वे दमन और शोषण के नग्नतम रूपों का शिकार हैं। लेकिन इसके बावजूद उनका कोई अलग वर्ग संगठन मौजूद नहीं है जो कि उनकी माँगों को लेकर संघर्ष करे, उन्हें संगठित करे। माकपा और भाकपा जैसे संशोधनवादियों की ट्रेड यूनियनों से यह उम्मीद करना बेकार है कि वे देश के इस सबसे बड़े हिस्से के लिए कोई संघर्ष करेंगे। भाकपा (माले) ने ग्रामीण मज़दूरों के बीच कुछ संगठन बनाये हैं लेकिन वे उनकी सर्वहारा वर्गीय माँगों पर संघर्ष करने के बजाय उनके बीच ज़मीन की भूख ही जगाने का काम करते हैं और इसके जरिये उन्हें मँझोले और धनी किसानों के संगठनों और आन्दोलनों का पिछलग्गू बनाने का काम करते हैं, जबकि इससे ग्रामीण सर्वहाराओं को कुछ भी हासिल नहीं होता।
गाँव के ग़रीब मज़दूरों की माँग क्या है?
लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका ‘गाँव के ग़रीबों से’ में स्पष्ट रूप से बताया है कि पूँजीवादी कृषि (यानी कि जब खेती उपभोग के लिए नहीं बल्कि बाज़ार के लिए होती है, ज़मीन ख़रीद-फ़रोख्त की वस्तु बन जाती है, और खेतिहर आबादी सीधे सरकार को लगान देने लगती है न कि किसी सामन्ती भूस्वामी को) के शुरू होने के बाद गाँव की सबसे ग़रीब खेतिहर मज़दूर आबादी के लिए ज़मीन का सवाल प्रमुख सवाल नहीं रह जाता है। इसका कारण यह है कि खेती के लिए अब महज़ ज़मीन की ज़रूरत ही नहीं रह जाती है। पूँजीवादी खेती के दौर में केवल वही किसान खेती के बूते ज़िन्दा रह सकता है जिसके पास न केवल पर्याप्त मात्रा में ज़मीन हो, बल्कि जिसके पास पर्याप्त मात्रा में ढोर-डंगर, सहज उपलब्ध बीज, खेती की मशीनें और उपकरण, बेहद आसान दरों पर कर्ज़ और बाज़ार तक सहज पहुँच मौजूद हो। हम सभी जानते हैं कि अगर करोड़ों भूमिहीन खेतिहर मज़दूरों को दो-ढाई बीघा ज़मीन मिल भी जाये तो उसके पास पर्याप्त मात्रा में गाय-बैल, पूँजी, बीज, कर्ज़ और मशीनरी उपलब्ध नहीं होगी। खेती में आज जो चीज़ सबसे महत्वपूर्ण बन गयी है वह है पूँजी। जिसके पास पर्याप्त मात्रा में नकदी और आसान शर्तों पर कर्ज़ की मौजूदगी नहीं है वह अगर ज़मीन के किसी छोटे-से टुकड़े का मालिक बन भी जाये तो सरकार से लेकर उसके बैंकों तक उसकी ज़रूरतों की पुकार नहीं पहुँचने वाली। वह अन्तत: तबाह होकर दूसरे के खेतों पर मज़दूरी करने को ही विवश होगा, भले ही वह अपनी ज़मीन का मालिक बना रहे। उसके लिए ज़मीन का मालिक होना महज़ एक कहने की चीज़ बनकर रह जायेगी और उसका गुज़ारा मुख्य तौर पर दूसरे के खेतों पर मज़दूरी करके या फिर शहरों में प्रवासी मज़दूर के तौर पर खटने से ही चलेगा। वास्तव में, छोटे और ग़रीब किसानों की एक भारी बहुसंख्या आज यही करने को मजबूर है। गाँवों में खेती योग्य अच्छी भूमि का क़रीब 80 प्रतिशत धनी और खाते-पीते मँझोले किसानों के पास है, जबकि उनकी आबादी कुल ग्रामीण आबादी में महज़ 10 से 15 फ़ीसदी के बीच है। देश की कुल आबादी में से 2011 की जनगणना के अनुसार खुदकाश्त किसानों का हिस्सा 30 प्रतिशत से भी कम है। इनमें से क़रीब 66 प्रतिशत ऐसे हैं जो छोटे या बेहद छोटे किसान हैं। ये छोटे या बेहद छोटे किसान अपने जीविकोपार्जन के लिए मुख्य रूप से अपनी भूमि पर खेती पर निर्भर नहीं है। ये दूसरे के खेतों पर काम करके अपना गुज़ारा करते हैं। खुदकाश्त किसानों की कुल संख्या 2001 में क़रीब 12 करोड़ थी, जबकि खेतिहर मज़दूरों की संख्या क़रीब 11 करोड़ थी। लेकिन इन 12 करोड़ किसानों में से क़रीब 8 करोड़ इतने ग़रीब हैं कि उन्हें अर्द्धसर्वहारा कहा जाना चाहिए। यानी कुल खेतिहर सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा की संख्या क़रीब 20 करोड़ के आस-पास थी। 2011 में यह बढ़कर क़रीब 23 करोड़ हो चुकी थी। अभी हम इसमें ग्रामीण सर्वहारा के उस हिस्से को नहीं जोड़ रहे हैं जो कि गैर-खेतिहर पेशों में लगे हैं। अगर खेती में लगी कुल आबादी को देखें तो उसका क़रीब 80 फीसदी हिस्सा सर्वहारा या अर्द्धसर्वहारा का है। इस आबादी को ज़मीन के छोटे टुकड़ों से न तो कुछ हासिल हो सका है न ही हो सकता है। उसे एक इज्ज़त और आसूदगी की ज़िन्दगी दो बीघे ज़मीन से नहीं मिल सकती। क्या आज ही छोटे और ग़रीब किसानों की बदहाल ज़िन्दगी चीख़-चीख़कर इस बात का सबूत नहीं दे रही है? एक बात स्पष्ट है कि इस देश के खेतिहर सर्वहारा समेत 40 करोड़ ग्रामीण सर्वहारा की अन्तिम माँग समाजवाद ही हो सकती है। उनकी अन्तिम माँग साझा खेती हो सकती है, न कि ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा, जो न तो उन्हें एक बेहतर ज़िन्दगी दे सकता हो और न ही चैन और सुक़ून।
लेकिन ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब देश का सर्वहारा वर्ग (ग्रामीण भी और शहरी भी) अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के तहत एकजुट होकर बुर्जुआ राजसत्ता को चकनाचूर करे और उत्पादन, राज-काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ क़ायम कर दे; जब सारे कल-कारखाने मज़दूरों की पंचायतों को सौंप दिये जायें, सारी खान-खदान देश की मेहनतकश जनता की साझी सम्पत्ति बना दी जायें, सारे खेत-खलिहान किसानों की पंचायतों के हवाले कर दिये जायें और शासन-सत्ता पर मज़दूरों और किसानों की पंचायत का नियन्त्रण क़ायम हो जाये। यह एक लम्बी और जटिल लड़ाई है जिसके लिए आज ही से एक इन्क़लाबी पार्टी बनाने की तैयारी के साथ शुरुआत करनी होगी। लेकिन तब तक इस देश के करोड़ों खेतिहर मज़दूर चुपचाप बैठे नहीं रह सकते। उन्हें इस पूँजीवादी सत्ता से अपने उन सभी अधिकारों को हासिल करने की लड़ाई लड़नी होगी जो कि पूँजीवाद जनवाद उन्हें देने का वायदा करता है, या जो संवैधानिक उसूलों के मुताबिक उन्हें मिलने चाहिए।
पूँजीवादी सरकार से ग्रामीण मज़दूरों की माँगें क्या हों?
जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं, ग्रामीण सर्वहारा आबादी इस देश के सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा है। लेकिन इसके बावजूद वह सबसे बिखरा, असंगठित, शोषित, उत्पीड़ित और अशिक्षित हिस्सा है। इन सबके बावजूद यह बात आश्चर्यजनक है कि ग्रामीण मज़दूरों के आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए देश की कानून-व्यवस्था और संविधान कोई व्यवस्थित ढाँचा मुहैया नहीं कराता। देश भर में ग्रामीण मज़दूरों के लिए कोई एकरूप क़ानूनी ढाँचा मौजूद नहीं है। सरकार ने गाँवों से उजड़ने वाले मज़दूरों के शहरों में प्रवास को रोकने और कम करने के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना शुरू की। लेकिन यह योजना ख़ुद ही सरकार द्वारा बनाये गये क़ानूनों का उल्लंघन करती है। इस योजना के तहत मिलने वाले काम के बदले मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं दी जाती। ऊपर से यह योजना वर्ष में मात्र 100 दिनों के रोज़गार की गारण्टी देती है। इसलिए वास्तव में यह रोज़गार गारण्टी है ही नहीं क्योंकि रोज़गार का अर्थ ही यह है कि साल भर, नियमित तौर पर रोज़ मिलने वाला काम। लेकिन अगर कोई योजना महज़ 100 दिनों के काम की गारण्टी कर रही है तो वह ग्रामीण मज़दूरों के साथ एक भद्दा मज़ाक़ है, और साथ ही उनमें रोज़गार का भ्रम पैदा करती है। इसके अतिरिक्त, इससे होने वाली आय ग्रामीण मज़दूरों को केवल भुखमरी के स्तर पर ज़िन्दा रख सकती है। और यह सब कुछ भी तब होगा जब यह योजना भ्रष्टाचार से मुक्त होकर लागू हो। और हम सब जानते हैं कि मुनाफ़े की हवस में अन्धी पूँजीवादी व्यवस्था और समाज में यह सम्भव ही नहीं है। हालत यह है कि इस योजना के लिए आवण्टित 40 हज़ार करोड़ रुपये में से अच्छा-ख़ासा हिस्सा इस्तेमाल ही नहीं होता और जो होता है, उसका भी बड़ा हिस्सा सरपंचों, तहसीलदारों से लेकर ब्लाक विकास अधिकारी की जेब में चला जाता है। यानी कि ग्रामीण सर्वहारा के पास पहुँचती है केवल जूठन-छाजन। इसलिए स्पष्ट है कि ग्रामीण मज़दूरों के लिए इस योजना से बहुत कुछ उम्मीद करना बेकार है।
ऐसी कुछेक आधी-अधूरी, मज़ाकिया योजनाओं के अलावा गाँव के ग़रीब मज़दूरों के लिए सरकार के पास श्रम क़ानूनों का कोई ढाँचा मौजूद नहीं है। राष्ट्रीय ग्रामीण श्रम आयोग ने सरकार से ऐसे क़ानूनी ढाँचे की सिफ़ारिश की थी जो कि ग्रामीण मज़दूरों के लिए, चाहे वे खेतिहर मज़दूर हों या फिर ग़ैर-खेतिहर मज़दूर, इस बात की गारण्टी करे कि उनके कार्यदिवस आठ घण्टे के हों, उन्हें साप्ताहिक छुट्टी मिले, उनकी सामाजिक सुरक्षा के लिए पी.एफ़ और ई.एस.आई. कार्ड योजना शुरू की जाये और उनके आवास आदि के लिए भी सरकार ज़िम्मेदारी लेकर योजना बनाये। लेकिन इन सिफ़ारिशों पर न अमल होना था और न ही हुआ। ग्रामीण मज़दूरों के काम करने की परिस्थितियाँ भी घातक होती हैं और एक आकलन के अनुसार औद्योगिक दुर्घटनाओं में जितने शहरी मज़दूर जान गँवाते हैं या अपंग होते हैं, ग्रामीण मज़दूर भी काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं में लगभग उतनी ही तादाद में जान गँवाते या अपंग होते हैं। हालाँकि शहरी मज़दूरों के लिए इन सब चीज़ों के लिए क़ानून होने के बावजूद वे लागू नहीं होते, लेकिन शहरी औद्योगिक मज़दूरों द्वारा लड़कर इन हक़ों को हासिल किया जाना एक बड़ी जीत था, और अब लड़ाई इन कानूनों को लागू करवाने और उसके लिए पूरे प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन कराने की है। लेकिन ग्रामीण मज़दूरों के लिए अब तक ऐसे क़ानून ही नहीं हैं, इसलिए वे कोई क़ानूनी लड़ाई लड़ ही नहीं सकते। वास्तव में, अभी तो ज़रूरत ऐसे क़ानूनी ढाँचे को बनवाने की है। जहाँ तक खेतिहर मज़दूरों की माँगों का सवाल है, वह मुख्य तौर पर खेतिहर मज़दूरी के मानक तय करने की है। खेतिहर मज़दूरी का अभी कोई सरकारी मानक या पैमाना नहीं है। ऐसे में, खेतिहर मज़दूर पूरी तरह से बाज़ार की ताक़तों और धनी और मँझोले किसानों के रहम पर रहता है। बाज़ार में तेज़ी होने पर कई बार उसे सन्तोषजनक मज़दूरी मिलती है, लेकिन 12-12 घण्टे कमरतोड़ मेहनत के बाद। लेकिन ज्यादातर की क़िस्मत इतनी अच्छी नहीं होती। देश में खेती का सेक्टर लम्बे समय से संकटग्रस्त है और इसका सबसे बुरा प्रभाव देश के ग़रीब खेतिहर मज़दूरों पर पड़ता है, जिसकी मज़दूरी लगातार गुज़ारे के स्तर से भी नीचे जाती रहती है। क़ानूनों के जरिये कोई भी सरकारी विनियमन न होने के कारण ये खेतिहर मज़दूर पूरी तरह से बाज़ार की दया पर रहते हैं। सरकार खेतिहर मज़दूरों के हक़ों के लिए कोई भी क़ानून बनाने से कतराती है क्योंकि वह धनी किसानों, कुलकों और फार्मरों को नाराज़ नहीं करना चाहती। इन धनी किसानों की ताक़तवर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं जो कि उनके हितों की नुमाइन्दगी करती हैं और सत्ता में उनकी हिस्सेदारी को सुनिश्चित करती हैं। ऐसे में, न तो राष्ट्रीय सरकार और न ही राज्य सरकारें ऐसा कोई क़ानून बनाना चाहती हैं जो कि खेतिहर मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी व अन्य अधिकारों को सुनिश्चित करे। यह तभी हो सकता है जब देश के ग्रामीण मज़दूर अपनी ठोस माँगों के इर्द-गिर्द एकजुट, गोलबन्द और संगठित हों।
‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्रक’ सरकार के सामने ऐसी तमाम माँगें रखता है, जो कि खेतिहर और ग़ैर-खेतिहर ग्रामीण मज़दूरों के हितों की नुमाइन्दगी करती हैं। अगले अंक में हम इन ठोस माँगों के बारे में जानेंगे।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2012
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन