• March 4, 2024

    फ़ासिस्ट दमन के गहराते अँधेरे में चंद बातें जो शायद आपको भी ज़रूरी लगें

    आज के अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि मोदी-शाह की फ़ासिस्ट सत्ता किसी भी जुझारू जन-उभार की संभावना से थरथर काँप रही है। इसीलिए, देश के किसी भी कोने में होने वाले किसी जनांदोलन को कुचलने के लिए वह पुलिस और अर्धसैनिक बलों की पूरी ताक़त झोंक दे रही है, जेनुइन जनांदोलनों के नेताओं पर आतंकवाद और देशद्रोह आदि की धाराएँ लगाकर फर्जी मुकदमे ठोंक रही है और उनके ज़मानत तक नहीं होने दे रही है। लेकिन जैसाकि हमेशा होता है, किसी भी सत्ता का जनता से भय जितना अधिक बढ़ता जाता है, वह उतना ही नग्न-निरंकुश दमनकारी होती जाती है। जनता को डराने की एक हद जब पार हो जाती है तो फिर जनता धीरे-धीरे डरना बंद कर देती है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि जीना मुहाल होने पर और अपने सारे अधिकारों के छिनते जाने पर जनता सड़कों पर उतरती ही है। शुरूआती दौरों में सत्ता के दमन और आतंक के प्रभाव से वह दब और बिखर जाती है। लेकिन शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार के विरुद्ध वह फिर -फिर सड़कों पर उतरती है। फिर सत्ता तंत्र का दमन भी बढ़ता जाता है और फिर ऐसा दौर आता है कि जनता डरना बंद कर देती है। सभी आततायी शासक उसी दिन के बारे में सोचकर भयाक्रांत हो जाते हैं।

  • February 26, 2024

    राम मन्दिर से अपेक्षित साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने में असफल मोदी सरकार अब काशी-मथुरा के ...

    मोदी सरकार के ख़िलाफ़, उसकी जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता के जुझारू आन्दोलन खड़ा करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। पूँजीवादी चुनावी पार्टियों से बने विपक्ष से कोई उम्मीद पालकर रखना आत्मघाती होगा। अगर इन विपक्षी चुनावी पार्टियों का गठबन्धन अनपेक्षित रूप से चुनाव जीत भी जाये, तो वह भाजपा की किसी और भी ज़्यादा तानाशाह और बर्बर किस्म की सरकार के दोबारा चुने जाने की ज़मीन ही तैयार करेगा। अव्वलन, तो इस समय पूँजीवादी विपक्ष के लिए एकजुट रहना और एकजुट तरीके से चुनाव लड़कर जीतना ही बहुत मुश्किल है। नामुमकिन नहीं है, लेकिन बेहद मुश्किल ज़रूर है। लेकिन अगर ऐसा हो भी जाये तो वह फ़ासीवाद के एक नये, ज़्यादा बर्बर और उन्मादी उभार की ही ज़मीन तैयार करेगा। इसकी बुनियादी वजह है मौजूदा दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता आर्थिक संकट, जिससे तत्काल उबर पाने की गुंजाइश बेहद कम है। ऐसे में, कोई गैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी सरकार पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि आपवादिक स्थिति में 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा हार भी जाये, तो वह फ़ासीवादी उभार की एक नये स्तर पर ज़मीन ही तैयार करेगा।

  • February 22, 2024

    कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न और मण्डल कमीशन की राजनीति

    भारतीय बुर्जुआ राजनीति में दो शब्दों, मण्डल और कमण्डल को अक्सर एक दूसरे के विलोम के तौर पर प्रदर्शित किया जाता है। लेकिन वास्तव में दोनों ही राजनीतिक धाराओं का यह अन्तर केवल सतही है, और वस्तुत: ये एक दूसरे के पूरक का काम करती हैं। पिछले 40 वर्षों के राजनीतिक इतिहास ने तो यही दर्शाया है कि दोनों ही धाराएँ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज भारत में कमण्डल की राजनीति के जरिये फ़ासीवाद की विषबेल भी मण्डल की राजनीति के कारण बनी ज़मीन पर ही पनपी है। कभी मण्डल की राजनीति के जरिये कमण्डल का जवाब देने की बात करने वाले नीतीश कुमार व शरद यादव भी सत्ता का सुख पाने के लिए भाजपा के साथ गलबहियाँ करने से नहीं हिचके। और यह अनायास नहीं था, बल्कि वर्गीय राजनीति में इसकी वजहें निहित थीं।

  • February 18, 2024

    राम मन्दिर के बाद काशी के ज़रिये साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिश में लगे संघ-भाजपा – ...

    मोदी सरकार के पास अब यही मुद्दे बचे हैं, जिसके ज़रिये वह 2024 का चुनाव जीत सकती है। पहले राम मन्दिर के नाम पर दंगे हुए, अब ज्ञानवापी के नाम पर उन्माद फैलाने की कोशिश जारी है और हो सकता है चुनाव तक काशी-मथुरा तक भी यह आग पहुँच जाये। भाजपा व संघ परिवार आपकी धार्मिक भावनाओं का शोषण कर आप को ही मूर्ख बना रही है। मोदी सरकार धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। यह आपको तय करना है कि आपको क्या चाहिए। क्या आपको शिक्षा-चिकित्सा-रोज़गार-आवास के अपने बुनियादी हक़ चाहिए, एक बेहतर जीवन चाहिए या फिर आपको मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़ों में ही उलझे रहना है।

  • February 18, 2024

    हिटलर की तर्ज़ पर अरबों रुपये बहाकर मोदी की महाछवि का निर्माण

    इसमें कोई सन्देह नहीं है कि फासीवादियों के व्यवहार में अत्यन्त नाटकीयता होती है। उन्हें नाटकीयता से विशेष लगाव होता है। वे खुद को ‘रेजी’ (निर्देशन, मंच प्रबन्धन) बोलते हैं, और उन्होंने सीधे तौर पर नाटक की प्रभावी विधा की एक पूरी श्रृँखला अपनाई है  जैसे कि रोशनी और संगीत, कोरस और अप्रत्याशित मोड़। एक अभिनेता ने मुझे कई साल पहले बताया था कि हिटलर ने म्यूनिख के कोर्ट थिएटर में एक्टर फ्रिट्ज़ बेसिल से न केवल वक्तृत्व कला की, बल्कि ‘कम्पोर्टमेण्ट’ की भी शिक्षा ली थी। मसलन उसने सीखा कि मंच पर कैसे एक नायक की तरह चलते हैं, जिसके लिए आपको अपने घुटने सीधे रखते हुए पूरे पाँव को ज़मीन पर रखना होता है ताकि आप महान दिखें। और उसने अपनी बाहों को क्रॉस करने का सबसे प्रभावशाली तरीका सीखा और ये भी सीखा कि कैसे सहज दिखना होता है।